पति के बटुए से ज़िन्दगी

पति के बटुए से ज़िन्दगी

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काम-वाली का बवाल आख़िरकार हाहाकार कर ही उठा। चर्चा-प्रक्रिया तो वैसे कई महीनों से जारी थी। घर की आला-कमान ने अपना फरमान भी काफ़ी पहले ही सुना दिया था। पर ये तो हम थे, जो कुछ न कुछ करके मामले को पुरजोर टरकाए जा रहे थे। लेकिन आख़िर कब तक? अकेला भला कब तक लड़ता खुद के बचाव की ये जंग! हारकर हथियार डाल ही दिये। काम-वाली की पगार भर आमदनी सीधे श्रीमती जी के हाथों में रखी और ऑफ़िस चलते बने।

ऑफ़िस में तो रोज की तरह पूरा दिन रहे, पर एक काम में मन न लगा। वो कैसी होगी, क्या-क्या करेगी, घर में जाने कहाँ-कहाँ किस तरह की नज़रें गड़ाएगी, सब सोचते-सोचते पूरा दिन ये भी ख़याल न रहा, टिफिन का खाना खाकर श्रीमती जी के मोबाइल फ़ोन की घंटी बजानी है। ये रोज की दिनचर्या की आमतौर पर बड़ी अहम कार्य-प्रक्रिया थी।

दोपहर के खाने के बाद जो तारीफों का तड़का लगता था, उससे ही घर पहुंचने पर मिलने वाली चाय के स्वाद का अमूमनता निर्णय होता था। बातें किस तरह बनायी जाती हैं, इसको एक अच्छा पति बड़ी जल्दी ही बड़े अच्छे से सीख लेता है और इस विद्या में महारत हासिल कर हम रोज चाय के एक संवरे हुए स्वाद का आनन्द लेते थे। पर आज तो वैसे भी इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी। आज की चाय तो काम-वाली बनाने वाली थी।तो फिर तो यही सही था कि ऑफिस का काम ख़त्म करें और हम मुँह उठाकर सीधे घर को चल पड़ें।

सांझ ढलते ही घर पहुंचे और अवाक रह गये। क्या हुलिया-पलट था! शक था, इसलिए पहले बाहर से झाँककर और अगल-बगल के घरों पर घूर-दृष्टि डालकर पूरी तसल्ली की, उसके बाद ही इस घर का मिजाज लेने को हम तैयार थे।

ओह... इतने ज़्यादा बदलाव! हमारा घर एक बार को तो हमें हमारा ही नहीं लगा था। लेकिन दीवारों पर तस्वीरें अभी भी बिल्कुल यथावत लटकी थीं। उनसे फ़ौरन अंदाज़ा मिल गया कि ये दीवारों पर विराजमान वही पति-पत्नी हैं, जो इस चारदीवारी के भीतर के प्राणी हैं। मतलब ये घर हमारा ही था। और जब घर हमारा होने का यकीन हो गया था, तो थोड़ा हक के साथ हम बेधड़क घर के अंदर घुस भी लिए।

अंदर पहुँचे, तो जो आँखें अभी तक हैरान थीं, फटी की फटी रह गयीं। हमारी श्रीमती जी मदद कर रही थीं। ज़रूर वो घर में काम करने आई नयी लड़की ही थी। वो सीढ़ियों के ऊपर चढ़ी हुई मचान पर रखे सामानों को इधर-उधर सरका कर जगह बना रही थी और हमारी श्रीमती जी नीचे से उठाकर कुछ न कुछ सामान उसे लगातार देती जा रही थीं। और ये सत्य दृष्टव्य था कि उनका माथा पसीने की बूँदों से हलहला उठा था।

काम-वाली ज़रूर काम करने के लिए आई थी। आख़िर उसे इसके पैसे मिल रहे थे। पर हमारी श्रीमती जी का भला क्या कसूर था? उनको भला कौन सी पगार मिलने वाली थी? आज से पहले हमने जब भी देखा था उनको, पूरे रौब-रूआब में देखा था। काम जैसा घर का जो काम होता, उसे करने में ज़रूर दिन का दो-एक घंटा बर्बाद जाता था। दो-एक, या कभी कुछ और ज़्यादा ही। पर काम ख़त्म हो जाता था बिना किसी ऊँची आवाज़ की ज़रूरत के। और जो उनसे ख़त्म नहीं होता था, या उनके काबिल नहीं होता था, उसके लिए हम होते थे। प्यार भरी एक पुकार फूटती उनके होठों की मासूम सी हरकत से और हम फ़ौरन ही निढाल हो उठते उनकी हर चाहत पर।

पर आज तो हालात पूरी तरह अलग थे। अक्सर मासूमियत और कमसिनता की मिसाल रहने वाली उनकी आवाज़ आज जोरों पर चटक रही थी। गुस्सा तो नहीं था, पर थोड़ी कुलबुलाहट, थोड़ी बौखलाहट तो थी ही आवाज़ में। आख़िर काम जो करवाना था उन्हें। और वो काम, जिसे वो ही जानती थीं, कैसे करना है; वो काम-वाली तो जैसे जरा भी नहीं, जो काम कर रही थी!

मेरे इतना सब सोचते-सोचते आख़िरकार वो काम अंजाम पर पहुँच ही गया। एकाएक हमारी श्रीमती जी का हम पर दृष्टिपात हुआ और वो होठ हौले से हिले-

“आ जा अब नीचे। बाकी मैं देख लूँगी।” कहते हुए उनकी आवाज़ में जो नीरसता थी, उसे पाँच साल का प्रेमी-ह्रदय बड़ी अच्छी तरह भाँप सकता था।

जिस काम के लिए वो अपनी काम-वाली से ईमानदारी अपेक्षित कर रही थीं, वही काम-वाली के मन का न था। और जो काम-वाली के मन का था, मेमसाब के बताये काम ख़त्म होते ही वो सब एक फ़र्राटे से काम-वाली की ज़ुबान पर आ गया-

“मेमसाब! तो फिर मैं जाऊं? आज इधर आई, तो ज़्यादा ही देर हो गयी। अब दो घंटे में बाकी के चार घर निपटाने पड़ेंगे। पर इत्ती जल्दी भला कहाँ होने वाला है? जहाँ जाऊंगी, सबकी फरमाइश पूरी करनी होगी पहले। कल शाम से अभी तक का सबकुछ बताना पड़ेगा। जो नहीं बोलूँगी, सीधे काम करने बैठ जाऊंगी, तो सब चिकोट-चिकोट के पूछेंगी। फिर तो बोलना ही पड़ेगा। वरना मुझे भला क्या पड़ी है कि इनके घर की वहाँ बताऊं, उनके घर की यहाँ बताऊं!” बोलते-बोलते जिस तरह उसने नीचे लटकते दुपट्टे को हाथ से झटका देकर कंधे पर डाला, हमारी श्रीमती जी चौड़ी होती आँखों से उसे बस देखती ही रह गयीं। बात पूरी हुई और काम-वाली सीधे घर से बाहर निकल गयी।

वो निकली और थोड़े सहमे कदमों से हम श्रीमती जी की तरफ बढ़े। हम करीब पहुंचे और अब बोलने की बारी श्रीमती जी की थी-

“देखा! क्या बोल कर गयी! इसे काम करने के नहीं, यहाँ की वहाँ पहुँचाने के पैसे मिलते हैं।”

वो बोल रही थीं, तो मैं भला क्या बोलता?चेहरे पर कायम इस खामोशी के मिज़ाज को ताड़ते हुए वो फिर खुद ही आगे बोल पड़ीं-

“आज पहले दिन आई थी, तो मैंने सोचा, थोड़ा बता दूँ कि क्या कैसे करना है। सोच रही थी कि खुद भी हाथ बँटा देती हूँ, आख़िर मेरे ही घर का तो काम है। पर महारानी को काम से ज़्यादा, काम करने वालों के तौर-तरीकों से मतलब है। अच्छा हुआ, उसके आने से पहले सारा इंतज़ाम देख लिया था मैंने। पूरा घर देख रहे हो…”

श्रीमती जी के कहने को तवज्जो देते हुए मैंने एक बार पूरी गर्दन दाँये से बाँये घुमाई और फिर भौंहे उचका कर आँखों से ही एक शाबाशी का इशारा किया। फ़ौरन ही एक नया सच तपाक से उनकी ज़ुबान पर था-

“सब उसके आने से पहले मैंने चमकाया था ताकि कुछ ऐसा न हो, जिस पर हाथ साफ किया जा सके।”

बातों के लहजे से श्रीमती जी जिसे अपनी चतुराई साबित करने के इरादे में थी, उसे हम ताड़ गये थे। पर हम कहते भला क्या? मोहल्ला-महिला-समिति के समक्ष अपने घरेलू वातावरण का बखान करवाने का इरादा एक बड़ा परपंच था। पर भला जिस भी इरादे से ये निष्कपट-कर्म उन्होंने आज किया था, वो प्रशंसनीय था।

घर की ऐसी खूबसूरत पलट-दृष्टि के बारे में तो हम सोच भी नहीं सकते थे। और वो भी सब के सब अकेले हमारी श्रीमती जी द्वारा, ये बड़ी सोचनीय बात थी। कहने को तो काम सब काम-वाली ने किया था, पर किसने क्या किया था, श्रीमती जी का चेहरा देखकर उनके संग के पाँच साल का अनुभव सब ज्ञान हमें करा गया था। उनकी इस दिग्विजयी मेहनत को सोचते हुए हम इतना खुश थे कि खुशी का प्रमाण देते हुए फ़ौरन उनके प्रफुल्लित ललाट को हमने स्वयमेव अपने विराट सीने पर आसीन करा लिया।

खुशी दिल में गहरी थी। पर दिमाग़ में टीस उतनी ही ज़्यादा गहरी। दोस्तों, यारों का व्यक्तिगत-अनुभव भी भला किसी चीज़ का ही नाम होता है। उन सभी ने अपने-अपने वाकये से दिमाग़ में गहरा ठूँसा था कि एक बार काम-वाली का घर के काम पर कब्जा हो गया, फिर तो आदत को बदल पाना किसी देवता के आशीर्वाद से ही संभव है। लेकिन इसे अगर सुमुख से श्रीमती जी पर जाहिर कर दिया जाता, तो फिर तो या तो दोस्तों से घरेलू संबंध टूट जाता, या फिर मेरा खुद का हमारी श्रीमती जी की सहज मुस्कुराहट से। जो भी था, हथियार हम डाल चुके थे और जंग का माद्दा तो वैसे भी कभी हममें था ही नहीं।

तीन लंबे हफ्तों तक काम-वाली का घर में काम करना बेधड़क जारी रहा। हाँ, उसने काम कितना किया, ये तो पता नहीं, पर जब भी ऑफिस से लौटकर घर आता, पूरा आशियाना चकाचक चमकता मिलता और इन तीन हफ्तों में श्रीमती जी के बदन से कुछ नहीं, तो तीन किलो का वजन तो ज़रूर उतरा ही उतरा होगा। वजन की ये कमी रोज ही हाथों में आने वाली कमर की एक छुअन से मैं सहजता से महसूस कर सकता था।

अभी भी बड़ी अच्छी तरह याद है, वो तीसरे हफ्ते का ठीक आख़िरी यानी की इक्कीसवां दिन था। जैसे ही घर का दरवाजा खोला, ठिठक कर रुक गया। फर्श पर पोंछा लग रहा था। ऐसे ही अंदर चला जाता, तो नाहक ही जूतों के निशान ज़मीन पर छप जाते। वहीं दरवाजे पर खड़े-खड़े दोनों पैर के जूते उतारे। तभी नज़र पड़ी और याद भी आया। तकरीबन तीन हफ्तों पहले ही जुराबों में सूराख नज़र आने लगे थे। और इन तीन हफ्तों की समयावधि में हालात ही न बने कि श्रीमती जी के सामने नये मोजों को निकालकर देने की बात कह सकूँ। अब ये तहज़ीब भी बड़ी अजीब चीज होती है। सूराख दिखाते जुराब कतई अच्छे लोगों की निशानी नहीं होते, ये ज्ञान मुझे प्राप्त था। मतलब मामला सीधे-सीधे इज़्ज़त पर आन पड़ा था, जिसे बचाकर रखने की हिदायत तो श्रीमती जी से सदैव ही मिली थी। बस, फिर क्या था, सीधे एक ही झटके में खींचकर फ़ौरन जुराबें भी उतार दीं।

अब जब मैं नंगे पैरों पर खड़ा था, एक बार फिर से नज़र खुद के पैरों पर चली ही गयी। पतलून नीचे से कुछ ज़्यादा ही लंबी थी। खुद की कम ऊँचाई और ऊँचे तलवों के जूतों को छिपाने की ये अच्छी तरकीब थी। पर जूते उतरने के बाद अभी हालत अलग थे। इज़्ज़त छिपाने के लिए फ़ौरन पतलून को ऊपर की तरफ मोड़ लिया। मोड़ा क्या, उसको सीधा मोड़ते हुए घुटनों तक उठा लिया। आख़िर में एक बार फिर से खुद को ऊपर से नीचे तक निहारा। सब ठीक लगा, तो दरवाजे पर दस्तक दी और सीधा अंदर दाखिल हो गया।

इधर मैंने कदम अंदर रखा और सामने ज़मीन पर बैठी वो नौकरानी खिलखिला कर हंस पड़ी। श्रीमती जी इस अट्टहास को सुनकर फ़ौरन दौड़ी बाहर चली आईं। बिल्कुल सटीक प्रतिक्रिया की मौके पर उन्होंने। भला कोई भारतीय नारी कैसे अपने पति का उपहास सहन कर सकती है? उनका रौद्र रूप देख मैं आगामी चरणों को भली-भाँति ताड़ गया था। मेरा हाथ सीधा पीछे की जेब की तरफ गया और उन्होंने फ़ौरन मेरा बटुआ मुझसे माँग लिया। एक हफ्ते और तीन दिन की पगार बख्शीश में देते हुए वो काम-वाली से बोलीं-

“हो गया हिसाब! अब आज के बाद इधर मत आना। और ध्यान रखना हर औरत को अपने पति की इज़्ज़त सबसे ज़्यादा प्यारी होती है।”

वो बाहर निकली और श्रीमती जी हमसे मुखातिब होते हुए बोलीं-

“डोरे डाल रही थी आप पर। कोई मेरे पति के साथ ऐसा-वैसा कुछ भी करे, मुझे कतई मंजूर नहीं।” कहते-कहते उन्होंने मेरे गालों पर एक प्रेम-पुरस्कार चिपका दिया।

भले वो कह न रही थीं, पर मैं तो समझ ही सकता था। आख़िर खुशी जो इतनी ज़्यादा थी! काम-वाली को काम से निकालने का मौका तलाशा जा रहा था, ये मैं महसूस कर चुका था। पर इसे न तो वो काम-वाली पर जाहिर कर सकती थीं, न मुझ पर। काम-वाली को घर में लाने का फ़ैसला उनका था। तो फिर उसे काम से निकालने का कारण वो भला खुद कैसे बन सकती थीं? मन ही मन दुधारी जीत का जो जश्न वो मना रही थीं, उस पर मैंने बड़ी चतुर चुटकी ली-

“कोई कुछ नहीं कर सकता, आप सब कुछ कर सकती हैं?”

तुरंत ही जवाब मिला-

“हाँ! मैं जो चाहे कर सकती हूँ। मेरे पति हैं, मैं कोई भी हुक्म दे सकती हूँ और कुछ भी करवा सकती हूँ।” कहते हुए उनकी बाँहों के हार ने मेरी गर्दन को आलिंगन में ले लिया और मैं फिर से ग्रह-मंत्रालय का हर हुक्म मानने को सहसा तैयार था।



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