प्रयत्न यज्ञ:-एक पहल
प्रयत्न यज्ञ:-एक पहल
आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व एक ब्रह्मचारी थे, जिनका नाम था बुद्धिहीन। दोस्तों जिस भाँति का नाम था उनका, वो थे भी उस भाँति के ही। उन दिनों आज की भाँति विद्यालय, महाविद्यालय नहीं हुआ करते थे। न ही होता था ऑनलाइन अध्ययन सामग्री यथा चलन्तदूरभाष(Mobile), अभिकलक(laptop)
अन्तरजालिका(Internet) , इत्यादि।
लोगों को दूर-दूर जाकर गुरूकुल में अध्ययन करना पड़ता था, साथ ही अपने घर का त्यागकर गुरूकुल आश्रम में रहना पड़ता था। गुरू के बताए अनुरूप कार्यों
को करना होता था। बुद्धिविहीन को भी इस प्रकार के गुरूकुल में जाना पड़ा। दोस्तों गुरूकुल में अध्ययन करना बुद्धिहीन के लिए कोई सरल कार्य नहीं था क्योंकि गुरूकुल में अध्ययन करना आसान भी तो नहीं होता न ! उस पर उसका नाम भी तो बुद्धिहीन ठहरा। गुरू जो भी बतलाते उसके छोटे से मानसपटल (दिमाग) में अंकित (लिखना, प्रवेश करना) होता ही नहीं था। गुरू उसे गणित समझाते तो वो समझता कि गुरूजी उससे मजाक कर रहे हैं।
एक दिन गुरूजी ने उससे कहा कि बेटा पाँच में से दो गया तो कितना हुआ, उसे लगा कि गुरूजी मजाक कर रहे हैं, इसलिए उसने सोचा कि गुरूजी फिर उससे मजाक कर रहे हैं।
तो मजाक का जवाब भी मजाक में होना चाहिए । इसलिए बिना सोचे समझे उसने जवाब भी दिया कि गुरूजी आपको तो मैं महाज्ञानी समझता था और आप लिखने निरीह मूर्ख । क्या पाँच कोई आभूषण है जिसमें से दो चला जाएगा तो अफसोस हो जाय।
दूसरी बात यह कि उसे लेगा कौन उसे मुझसे पहले मल्लयुद्ध(कुश्ती) करनी होगी। वहाँ उपस्थित सभी विद्यार्थी उस पर हँसने लगे, बेचारा बुद्धिहीन समझ ही नहीं पा रहा था कि वे लोग उसके बात पर हँसने लगे।
अन्त में बुद्धिहीन से रहा न गया तो अन्त में उसने वहाँ उपस्थित लोगों और गुरूजी से पूछ ही दिया कि आखिर उसने ऐसा कह ही क्या दिया कि वे लोग हँसने लगे। उसने सोचा कि सब लोग हँस रहे हैं , और यदि मैं न हँसूँ तो गुरूजी सोचेंगे कि मैं कितना मूर्ख हूँ।
शायद इसी कारण वह यह सोचते-सोचते कि गुरूजी। उसे मूर्ख समझेंगे खूब जोर देकर हँसने लगा। यह देखकर गुरूजी को भी हँसी आ गयी और वो भी उसकी मूर्खता पर हँसने लगे।
साथ ही वहाँ उपस्थित विद्यार्थीगण उसे देखकर जोर-जोर से यह कहकर हँसने लगे कि बुद्धिहीन तो बुद्धिहीन ठहरा । साथ ही जिस प्रकार एक नवयुवक में यह विशेषता पाई जाती है कि उन्हें दूसरों का मजाक बनाने या कष्ट पहुँचाने में आनन्द की अनुभूति होती है और वो हर तरह से लोगों का मजाक बनाते हैं । ये विद्यार्थीगण भी यह कह-कह कर नाचने लगे:-
देखो, देखो !
ये बुद्धिहीन कैसा,
आँख रहते अंधे जैसा।
कान रहते भी है बहरा।
बुद्धि पर भी इसके
न जाने किसने लगा
रखा है पहरा।
ये वो सब एक जादुई मन्त्र की भाँति ही दुहराने लगे।
बेचारा बुद्धिहीन अपने द्वारा ही कही बात के कारण ही फँस गया था, कर भी क्या सकता था वह...वह उस समय वहाँ से चला गया , परतु संध्याकालीन कक्षा में वह पहले गुरूजी के पास पहुँचकर उनको प्रणाम कर के उनसे बोला कि गुरूजी मेरा नाम ही बुद्धिहीन है और इसके अनुरूप ही मेरी बुद्धि भी है,
इसमें मेरा क्या दोष है बताइये आप ही। उसके इस प्रकार बोलने के बाद गुरूजी ने समझा कि ये बात तो सही कर रहा है, पर इसमें इसका क्या दोष है ?
फिर उन्होंने कहा कि बुद्धिहीन तुम्हें एक काम करनी होगी कि तुम्हें प्रयत्न यज्ञ करनी होगी।
पहले बुद्धिहीन के मन में शंका हुई कि वो तो बुद्धिहीन ठहरा, इसलिए असमंजस में पड़ गया कि ये किस प्रकार का यज्ञ होता है और इसमें क्या-क्या काम करनी होती है। क्या-क्या और कितना -कितना लगेगा ?
मैंने तो पहले इस यज्ञ को न किसी के करते देखा है और न सुना ही है। लेकिन गुरूजी ने कहा है तो अवश्य ही कोई विशेष तरह का यज्ञ है और शायद इस यज्ञ के द्वारा में बुद्धिहीन से बुद्धिजीवी बन जाऊँगा। यह सोचता हुआ उसने इस प्रयत्न यज्ञ को करने के बारे में सोचा और पुनः अपने गुरूजी के पास इस यज्ञ के विषय में और अधिक जानने के लिए पहुँच गया।
उसके गुरूजी उस समय ध्यान में लगे हुए थे , इसलिए उसने सोचा कि गुरूजी को ध्यान की स्थिति से जगाना उचित नहीं है, लेकिन वो तब तक क्या करे।
फिर उसने अपने मन में सोचा कि वह भी गुरूजी के साथ ही ध्यान लगा लेगा और वह भी गुरूजी को प्रणाम कर ध्यान करने प्रणाम की मुद्रा में बैठ गया।
उसने सोचा कि गुरूजी का ध्यान कुछ समय में सम्पूर्ण हो जाएगा तब वह गुरूजी से इस विशेष प्रकार के यज्ञ, इसमें लगने वाली सामग्री, और कितनी मात्रा की सामग्री लगेगी इसके बारे में पूछ लेगा ।
तत्पश्चात वह प्रयत्न यज्ञ के बारे में उनसे पूछ लेगा और इस विषय में समझ भी लेगा।
इस प्रकार सोचता हुआ वह ध्यान करने लगा और यह ध्यान कई वर्षों तक चला।
देखने वालों को ऐसा लग रहा था कि मानो गुरू-शिष्य में ध्यान प्रतियोगिता चल रही हो। समय बीतता गया , बीतता गया और बुद्धिहीन गुरू के पास ही इसी प्रकार प्रणाम की मुद्रा में बैठा रह गया।
कुछ वर्षों के बाद जब गुरूजी की ध्यान सम्पूर्ण हुई तो उन्होंने नीचे प्रणाम की मुद्रा में बैठे हुए बुद्धिहीन को देखा जिसकी ढाढ़ी-मूँछें पकी हुई थी।
गुरूजी ने जब बुद्धिहीन से यह पूछा कि वह कब और क्यों आया तो उसने बोला कि वह कुछ देर पहले ही आया था, परन्तु गुरूजी को ध्यान करते हुए देखकर उन्हें
ध्यान से जगाना उचित नहीं समझा । यह सुनकर गुरूजी को बहुत ही अधिक प्रसन्नता हुई और उन्होंने बुद्धिहीन से कहा कि , ठीक है वह अब अपने आने का कारण उन्हें बता सकता है।
तो बुद्धिहीन ने आव देखा न ताव और गुरूजी से एक ही साँस में सारे प्रश्न पूछ डाले कि , "गुरूजी ने बड़े ही प्रेम से अब उसका प्रयुत्तर दिया:-
बोलो वत्स निःसंकोच होकर कहो जो भी तुम्हारी इच्छा है और जो जानना चाहते हो वो सब एक-एक कर पूछो ...
गुरूजी के इस प्रकार कहने के बाद बुद्धिहीन ने अपने प्रश्नों को गुरूजी के समक्ष रखा:-
(1) गुरूजी ये प्रयत्न यज्ञ क्या होता है ?
(2) गुरूजी इसे किस समय किया जा सकता है ?
(3) गुरूजी क्या आपने भी कभी इस प्रकार का यज्ञ किया है ?
(4) गुरूजी ये यज्ञ आपको किसने करना सीखाया ?
(5) गुरूजी इस यज्ञ को करने के लिए कितने लोगों की आवश्यकता होती है ?
(6) गुरूजी इस यज्ञ को करने के लिए कितनी सामग्रियों
की आवश्यकता होती है ?
(7) गुरूजी किस-किस दिन इसे कर सकते हैं ?
(8) गुरूजी किस सामग्री की इसमें कितनी मात्रा होनी। चाहिए ?
(9) गुरूजी इस यज्ञ को करने के मन्त्र क्या हैं ?
(10) गुरूजी इस यज्ञ का फल देने वाले देवता का नाम क्या है ?
इस प्रकार से प्रश्न पूछने के पश्चात वह गुरूजी के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। गुरूजी ने मन में सोचा कि इस बुद्धिहीन को लोग न जाने बुद्धिहीन क्यों कहते हैं। इसके
द्वारा पूछा गया एक भी प्रश्न बेकार नहीं है। सब एक से एक बुद्धिजीवी मनुष्य के द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों के जैसे ही सधे व यथोचित प्रश्न हैं।
परन्तु , अभी तो फिलहाल इसकी जिज्ञासा शान्त करनी होगी , इस भाँति सोचकर गुरूजी ने उसके सारे प्रश्नों का यथोचित उत्तर देने का निश्चय किया और वो बुद्धिहीन द्वारा पूछे प्रश्नों का यथोचित उत्तर एक-एक कर देने लगेः-
(1) बेटा, प्रयत्न यज्ञ का मतलब होता है प्रयत्न करते रहना, जबतक लक्ष्य की प्राति न हो जाय।
(2) बेटा इस यज्ञ को करने के लिए कोई नियत समय नहीं होता, इसे जब चाहो कर सकते हो।
(3) हाँ बेटा, हम सबने भी इसी यज्ञ के द्वारा ही सफलता की सीढ़ी पर पाँव रखा है और आगे भी रखते रहेंगे।
(4) बेटा इस यज्ञ को करने के लिए किसी विशेष गुरू की आवश्यकता नहीं होती है, अपितु ये स्वतः ही सम्पन्न किया
जा सकता है।
(5) बेटा इस यज्ञ को करने के लिए लोगों की आवश्यकता नहीं होती है। हाँ किसी विशेष कार्य को सम्पन्न करने वाले कार्यों अर्थात शारीरिक कार्यों में लोगों की आवश्यकता होती है।
(6) बेटा इस यज्ञ को करने के लिए बहुत सारी सामग्रियों की आवश्यकता होती है, यथा :-धैर्य, तुम्हारी चीजों को समझने की क्षमता , थोड़ा अभ्यास, विश्वास इत्यादि।
(7) बेटा , इसके लिए कोई निर्धारित दिन नहीं होता।
(8) बेटा इसमें प्रयुक्त सारी सामग्रियों की बराबर मात्रा होनी अति आवश्यक है।
(9) बेटा, इस यज्ञ को पूर्ण करने के कोई विशेष मन्त्र नहीं है, मात्र तुम्हें यह कहना है कि :- हे ईश्वर ! मैंने इस प्रयत्न यज्ञ में धैर्य रूपी समिधा, विश्वास रूपी घी, और पूर्ण अभ्यास रूपी अग्नि का आवाहन किया है, अतएव
हे ईश्वर ! मेरे इस प्रयत्न यज्ञ को सफल बनावें। इस प्रयत्न यज्ञ को मैंने स्वयं ही सफल करने का प्रयत्न किया है।
(10) बेटा इस यज्ञ का फल देने वाले देवता का नाम परिश्रम है।
उसके बाद बुद्धिहीन प्रयत्न यज्ञ करने की ओर निकल पड़ा, जैसा उसके गुरूजी ने बताया था वह प्रयत्न यज्ञ करने के लिए निकल पड़ा।
उसके गुरूजी ने बताया था कि वो आश्रम में आने के पश्चात जो भी सीख पाया है, वह उसे लिखना प्रारम्भ कर दे।
पहले बुद्धिहीन के मन में ये विचार आया कि वो तो बुद्धिहीन है, वो इस प्रयत्न यज्ञ को किस भाँति सफल
कर पाएगा, परन्तु उसने गुरू की आज्ञा मानकर लिखना प्रारम्भ कर दिया और वो उसी तरह लिखता रहा, जिस तरह आज हम अपने विचारों को, अपने अनुभव
को एक डायरी में लिखा करते हैं। इसे हम इस प्रकार भी बतला सकते हैं कि ये लिखने की कला का जन्म कहा जा सकता है।
बुद्धिहीन लिखता गया....लिखता गया और वो लिखता गया, सम्भवतः इसी प्रकार के किसी बुद्धिहीन जो कि इस प्रकार के मानव के लिए यथोचित सम्मान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसी प्रकार के किसी महामनस्वी मानव के लेखन का प्रतिफल है हमारे लिए आज की लिखित सामग्री। इस महामस्नवी मानव को हमें धन्यवाद देने की आवश्यकता है क्योंकि इनके इस अथक परिश्रम के फलस्वरूप ही हम आज उनके जीवन शैली, कला शिल्प इत्यादि के विषय में जानने में हम सक्षम हो पाए हैं। बुद्धिहीन ने सम्भवतः अपने गुरूजी की आज्ञानुसार ही सर्वप्रथम आश्रम के दैनिक जीवन शैली का वर्णन किया, जिसमें उसने अपने बुद्धि के अनुसार प्रार्थनाएं, पूजा
उपासना, ध्यान, प्राणायाम इत्यादि का वर्णन किया।
उसके पश्चात यज्ञ, हवन, देवताओं के आवहाहन इत्यादि के मन्त्रों का वर्णन किया। अन्त में आश्रम के विभिन्न नियमों के बारे में। लिखा, वहाँ के गुरूओं इत्यादि के बारे में लिखा। आज सम्भवतः इसी प्रकार के किसी महामनस्वी के
वर्षों की परिश्रम का प्रतिफल है कि हमें गुरूकुल पद्धति के बारे में पता चल पाया, विभिन्न देवी-देवताओं के बारे में पता चल पाया, उनके पूजन विधि इत्यादि के बारे में पता चल पाया। जब उस महामनस्वी बुद्धिहीन ने सम्पूर्ण विषय-वस्तुओं के बारे में जब लिख लिया तो वो अपने गुरूजी के पास उसे लेकर पहुँचा।
गुरूजी ने जब उन सारे लिखे तथ्यों को पढ़ा तो सर्वप्रथम थोड़ी आंशिक सुधार करने के पश्चात उन्होंने बुद्धिहीन की प्रशन्सा करते हुए कहा कि बेटे बुद्धिहीन तुमने आज सफलता पूर्वक प्रयत्न यज्ञ सम्पन्न किया तुम्हें तुम्हारी इस विजय पर मेरी असीम शुभकामनाएं। आज से मैं तुम्हें एक नया नाम प्रदान करता हूँ ।
तुम आज से बुद्धिहीन नहीं बुद्धिजीवी के नाम से जाने जाओगे। साथ ही तुम्हें एक और नाम से यह संसार जानेगा, तुम्हारा वह नाम होगा अलौकिक प्रकाश क्योंकि
तुमने आने वाली पीढ़ी को असंख्य प्रकाशलैम्प अपनी रोश्नी से किसी स्थान को जिस प्रकार से अंधकार दूर कर प्रकाशवान करता है, उसी भाँति ही तुमने अपने ज्ञान से इस संसार को प्रकाशवान किया है।
यह संसार तुम्हारा सदैव ऋणी रहेगा। सच ही तो उस दिन उसके गुरू ने कहा था उन्हीं प्रकार के मनस्वी के प्रयत्न यज्ञ का प्रतिफल है यह कि हमें प्राचीन चीजों के बारे में जानकारी हो पाती है। तो मित्रों आपने देखा कि प्रयत्न यज्ञ से किस प्रकार से एक मनुष्य को बुद्धिहीन से बुद्धिजीवी और वहाँ से अलौकिक प्रकाश तक का सफर तय करवाता है। अतः मित्रों हमें भी अलौकिक प्रकाश की भाँति ही
प्रयत्न यज्ञ करना ही चाहिए।
अन्त में मैं युवाओं से यह कहना चाहूँगा:-
उठो जागो हे मेरे प्यारे युवाओं
भारतवंश के तूफ़ानी जलधाराओं।
राह कठिन हो या सरल हो
पीने को यदि भी गरल हो।
सामने फैला चाहे अनन्त छल हो
याद रहे बस राष्ट्रधर्म ही सबल हो।
टूट न पाये वो माँ भारती की स्वर्णिम इच्छाएं
सम्मुख हो अगर भी धधकते असंख्य ज्वालाएं।
