manisha sinha

Inspirational

0.2  

manisha sinha

Inspirational

परवाह

परवाह

7 mins
324


सरला जी, मोहल्ले के बच्चों, उनके शोर शराबों से हमेशा परेशान सी रहती थीं। या यूँ कहें, किसी भी बाहर वाले का घर पर आना उन्हें पसन्द नहीं था।उनके पोते भले उनके कमरे में रखी चीजों, बिस्तर के चादर को इधर उधर कर दें, मगर उनके दोस्तों द्वारा की गई शरारत सरला जी को बिल्कुल नागवार थी।

सरला जी, ६५ साल की थी। वे अपने बेटे बहु और दो पोतों के साथ रहती थी। पति आर्मी में थे और दो साल पहले बीमारी की वजह से उनकी मौत हो चुकी थी। उसी शहर में थोड़ी दूर उनकी दो बेटियों के ससुराल भी थे, जिनसे महीने में एक बार या त्योहारों में मिलना जुलना हो जाता था। उनके लिए बस यही दुनिया थी। अपने बेटे और बेटियों के परिवार के अलावा वो किसी से भी मिलना जुलना या बात करना पसंद नहीं करती थी। उन्हें हमेशा यही लगता था कि जो भी उनसे या उनके परिवार वालों से बात करता है या उनके घर आता जाता है वो किसी ना किसी मतलब से जुड़ा हुआ है। सिर्फ़ खून के रिश्ते ही अपने होते है। और बाक़ी जो भी है सब किसी ना किसी लालच में तुमसे जुड़ते है। इसी भावना से ग्रसित वो कभी किसी से सीधी मुँह बात तक नहीं करती थी।और उनकी लोगों के मनसूबों पर शक करने की आदत दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी।

उनके इस बर्ताव की वजह से उनके बेटे बहु को कॉलोनी में बहुत ज़िल्लत उठानी पड़ती थी। वो आए दिन किसी पड़ोसी के बच्चे को डाँट देती या हर रोज़ काम वाली बाई ,अख़बार वाले, दूध वाले या कूड़ा उठाने वाले या अपने पड़ोस के लोगों से बड़ी बुरी तरह से पेश आती थी। पहले तो लोग उनके उम्र का लिहाज़ करके छोड़ देते थे, मगर अब ये लोग उनकी शिकायत उनके बहु बेटे से करने लगे थे। मगर उनके बहु बेटे को समझ नहीं आ रहा था की अपनी माँ को मना करें भी तो कैसे! वो तो किसी की सुनने वाली नहीं थी। बहु जब छुट्टियों में आस पड़ोस या दोस्तों को खाने पर बुलाती या उनके घर काम करने वालों को किसी पर्व में उपहार देती तो वह बार बार अपनी बहु को मना करती और कहती की ये लोग तो बस तुम्हारी चापलूसी करके तुमसे अपना उल्लू सीधा कराते है। फिर याद करती हुईं बोली, कैसे पिछले रविवार बगल वाली ने अपने बच्चे को हमारे पास रख खुद सिनेमा देखने चली गयी। जब रात में लेने आई तो कितनी चालाकी से यहाँ खाना भी खा लिया। इसपर उनके बेटे जो खुद मौक़े की तलाश में थे, कि कैसे माँ को समझाया जाए कहा, हमलोगों ने खाने कहा था तब तो खाया ना। वो तो बच्चे को लेकर जा ही रही थी।

सरला जी ने, मुँह बनाते हुए कहा, "अरे ये सब एक चाल है। वो जान कर उस समय आइ थी। उसे पता था की हम उस समय खाना खाते हैं।"

यह सुन उनका बेटा थोड़ा ग़ुस्सा होते हुए बोला, "छोटी दीदी तो एक एक सप्ताह अपने उतने छोटे बेटे को या रख कर घूमने चली जाती है। जबकि उसे पता है कि तुम बीमार रहती हो। तब तो तुम कुछ नहीं बोलती। बड़ी दीदी की बेटी मीरा तो पिछले साल रह कर या परीक्षा की तैयारी की ,और उसे फ़र्क़ भी नहीं पड़ा की हम कैसे सम्भाल रहे। एक बार पूछने भी नहीं आई।"

इस पर सरला जी ने रोना पिटना मचा दिया की, "अब तुम अपनों को करने का हिसाब रखोगे। वो दीदियाँ है तुम्हारी। समय पड़ने पर वही काम आएँगी। ये लोग जिनकी तुम तरफ़दारी कर रहे ,समय पड़ने पर पीठ दिखा देंगे।"

उनके बेटे ने ग़ुस्सा को शांत करते हुए बोला, "माँ मैं कोई हिसाब नहीं रख रहा, बस ये बताने की कोशिश कर रहा कि, सभी दुनिया में कोई भी हो चाहे वो खून का रिश्ता हो या समाज में बने रिश्ते सभी किसी ना किसी वजह से ही आपसे जुड़े है। जिस दिन उन्हें लगेगा कि आप उनके कोई काम की नहीं वो मुँह फेर लेंगे। अब चाहे वो रिश्ता खून का हो या मन का। आप बाहर वालों की क्या बोलती है, कल को शायद आप मेरी या दीदियों की किसी बात को लगातार मना करती रहो या मैं अगर आपकी या दीदी की कोई बात मानने से मना कर दूँ तो आप भी शायद मेरे से कुछ दिन बात ना करो। बिना स्वार्थ कोई भी रिश्ता नहीं जुड़ता। अगर मैं किसी पर मानसिक तौर पर आश्रित हूँ तो वो भी एक तरीक़े से मैं उससे अपना स्वार्थ ही सीद्द कर रहा।

बस मुझे इतना ही बोलना था, बाक़ी आपकी मर्ज़ी।" इतना बोल वह अपने कमरे में जाने लगा। फिर उसे कुछ याद आया और बोला, "याद है ना पिछले साल क्या हुआ था। जब मीरा यहाँ रहने आई थी। तुम्हारे गले के चेन को मीरा पहन कर बाहर चली गयी और तुमने इल्ज़ाम उस बेचारे दरबान पर लगा दिया था जो तुम्हारी मदद करने के लिए तुम्हारा सामान उपर तक पहुँचाने आया था। ज़रूरी नहीं कि ,हर रिश्तों के नाम हो। ऐसे ही लोग मिलते जाते है और बेनाम रिश्ते बनते जाते है। हर रोज़ काम वाली या दूध वाला तुम्हें माँ जी कहकर तुम्हारा हाल पूछता है। जब भी मैं दफ़्तर के लिये निकलता हूँ, बगल की आंटी मुझे इतने आशीर्वाद देती हैं और तुम्हारा समाचार भी पूछती हैं। इनसे हमारा तो कोई रिश्ता नहीं ,मगर कुछ ऐसे भी रिश्ते है जिनके नाम नहीं मगर दिल से जुड़ जाते है।" मगर सरला जी पर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ। वो पहले के जैसे ही सबसे दूरी बनाई रखतीं। अब तो लोगों को भी उनके इस बर्ताव की आदत सी हो गयी थी। ऐसे ही दिन निकलते गए। बेटे का ट्रान्स्फ़र हो जाने की वजह से उसे अपने परिवार के साथ दूसरे शहर जाना पड़ रहा था। लाख बोलने पर भी सरला जी ने जाने से मना कर दिया, और कहा इस उम्र में मुझसे इधर उधर नहीं जाया जाता। और वैसे भी दीदी तो है ही।आना जाना लगा ही रहेगा।

फिर अंततः उनके बेटे को अपनी बीवी और बच्चे को लेकर माँ को वही छोड़ जाना पड़ा। जाते समय भी उनके बेटे ने कहा,"कोई भी दिक़्क़त हो बगल वाली आंटी से मदद ले लेना।" उसपर सरला जी ने तपाक से कहा, "मुझे कभी किसी बाहर वाले की मदद नहीं चाहिए। ये लोग करेंगे एक बार और एहसान दिखाएँगे १० बार। तुम्हारी दीदियाँ है ही, मुझे कोई दिक़्क़त नहीं होगी।" सरला जी घर में अकेले ही रहने लगी। आस पास किसी से भी वो कोई बात नहीं करती। १५ दिनों पर उनकी बेटियाँ आ जाया करती थी मिलने। उन्हीं से वो अपने दिल का हाल बताती। मगर रोज़ाना उनसे मिलते लोग उनका हाल ज़रूर पूछ लेते थे। एक बार जब उनकी छोटी बेटी उनसे मिलने आई तो देखा कि माँ को थोड़ा बुख़ार है। उसने तुरंत माँ को कुछ खाने दिया और बाज़ार से दवा लेकर भी आ गई ।

सरला जी ने उसे उस दिन उनके पास रुकने के लिए कहा। मगर उसके बेटे के परीक्षा की वजह से वह नहीं रुक पाई और दो दिनों बाद आने का बोल चली गयी। सरला जी को ये बात थोड़ी बुरी लगी, मगर उन्होंने कुछ जताया नही। रोज़ की तरह सुबह में बाई के दरवाज़ा खटखटाने पर उनकी नींद खुली। अभी भी उनका शरीर बुख़ार से तप रहा था। बड़ी मुश्किल से उठकर उन्होंने दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खोलते ही वो वही गिर पड़ी। तभी दूध वाला और अख़बार वाला भी वहाँ समान पहुँचाने आए थे। उन्होंने तुरंत ही बगल की आंटी को इसकी सूचना दी। फिर आंटी और उनके बेटे ने इन सब की मदद से उन्हें अस्पताल पहुँचाया। उनलोगों ने ही वहाँ की फ़ीस जमा कर इलाज करवाया। सब वहाँ तब तक बैठे रहे जब तक उन्हें होश नहीं आ गया। जब सरला जी की आँखें खुली देखा उनके बगल में उनकी पड़ोसन बैठी है। सरला जी को होश में आते देख उन्होंने उनके सर पर हाथ फेरते हुए उनका हाल पूछा। सरला जी ने देखा, उनकी बाई उनके पैर सहला रही थी। अख़बार वाला, दूध वाला सब वही पास में खड़े थे ।वहाँ ना उनका बेटा ही था और ना बेटी।

वो उन सब को देख कुछ बोलती , इस से पहले ही सबने उन्हें बस आराम करने के लिए कहा। उनके आँखों से बहता आँसू उनके पछतावे को दर्शा रहा था।

तभी वहाँ उनकी बेटी भी आ गई और हाथ जोड़ सब का शुक्रिया अदा किया। उस दिन सरला जी तो एक बात समझ गई थी कि, हर रिश्ते किसी नाम के मोहताज नहीं होते।



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational