प्रतिकार
प्रतिकार
नहीं लगता अब चुटकी भर मुखर होना चाहिये कुछ अबलाओं को,
जो मौन की कगार पे खड़ी सबकुछ झेलने को तत्पर रहती है..!
किसने हक़ दिया उन मर्दों को जो जूती समझते है अपने साथ जुड़ी हर औरतों को,
सादगी शृंगार है माना पर बेड़ी बनाने में साथ क्यूँ देना..!
शादी का बंधन जीवन की जरुरत सही पर बंधन को बंदीश का नाम देना कितना उचित है
सिंदूर को मान दो,
सरताज तुम्हारे जीवन की लगाम थामें जल्लाद बनकर जिस दिशा में घुमाए मत घुमो खुद की भी परिधि तय करो..!
वो तो चाहता ही यही है की तुम दबी रहो मौन, ज़िंदगी के कमरे के एक अंधियारे कोने में,
अरे उखाड़ फेंको हर बंदीगृह से उनके अलीगढ़ी तालों को मुक्त विहंग सी उड़ो ना असीम आसमान को भरने अपनी परवाज़ में..!
सिर्फ़ सारी सूट ही जँचता नहीं, बेकलेस जिन्स में भी सदाबहार है तुम्हारा हुस्न,
लिपिस्टिक को बनाकर गरिमा हिल पहनकर इतराओ..!
शोभा सबकी तुमसे है तुम हो तो हर ब्रांड नभती है,
ना कहना कब सीखोगी आधी दफ़न तो हो गई क्या पूरा समर्पित होना है,
मर्दों की दादागीरी से हनन होना आदत बनाने को पाप माना गया है मेरे लिखे ग्रंथों में..!
हक़ को छीनने को विद्रोह नहीं हिम्मत कहते है
कर लो जीते जी हिम्मत,
भगाकर देखो उनकी प्रताड़ना,
कह दो नहीं चाहिये तुम्हारी अहसानियत भरी रहम नज़र,
जाओ मैं तुम्हें आज़ाद करती हूँ तुम्हारे मर्दाना अहं को अब पोषने की जफ़ा से निजात पा लो..!
मेहनत तो लगती होगी ना आसान थोड़ा है किसी को दमन करते रहना सालों तक..!
सच में मोक्ष दे दो हनन सहने की वृत्ति को, मुक्ति का अहसास तुम्हारी उम्र में २० साल का इज़ाफा करेगा।
