पीपल काका
पीपल काका
जेठ की तपती दुपहरी, जो किरणें सर्दी के दिनों में बहुत ही प्यारी लगती थी, आज चुभन सी हो रही है उनसे। खेत में काम करके पसीने से तर-बतर आज जब मैं तालाब में नहाने गया, तालाब की मेड़ पर अजीब सी खामोशी छाई हुई थी। वो चिड़ियों की चहचहाहट, वो हवा के झोंको संग झूमते पत्तों की संगीतमय आवाज.... आखिर कहां खो गए थे? तभी अनायास ही मुझे उनकी याद आ गई। मैं कुछ वर्ष पीछे चला गया, यादों की दुनिया में।
मैं बरसों से इसी तालाब में नहाने आया करता था, जब दादा जी थे तो अक्सर उनके साथ ही आया करता था। बचपन में थोड़ा बातुनी था, तो यहां-वहां की बातें करते नहीं थकता था। और जाने इस छोटे से मन में क्या जिज्ञासा थी, कभी तृप्त ही नहीं होती थी। मैं अक्सर दादाजी से हजारों सवाल करता था- ये कौन हैं? किनके घर आए हैं? ये क्यों आए होंगे? इसको क्या कहते हैं? मैं तो बच्चा था मुझमें अपार ऊर्जा थी, परन्तु दादाजी भी जवाब देते-देते कभी थकते नहीं थे। शायद वे पचपन की उम्र में बचपन की ओर लौट चले थे। एक दिन उन्होंने ही मिलवाया था मुझे काका से, हाँ मैं उन्हें इसी नाम से पुकारता था- "पीपल काका"। एक दिन मैंने अपने सवालों के अक्षय पात्र से एक सवाल पूछा- दादाजी ये कौन हैं? और इनका नाम क्या है? उन्होंने हमेशा की तरह बड़े ही प्यार से जवाब दिया था- ये पीपल का पेड़ हैं, और तुम इसे पीपल काका बुला सकते हो। मैंने इसे बड़े जतन से पाला है, इस लिहाज से यह मेरे बेटे के समान है, तो फिर हुआ न तुम्हारा काका। मेरा मन दादा जी के जवाब से तृप्त हो चुका था, और तब से ही जुड़ गया था पीपल काका और मेरा रिश्ता।
मैं अक्सर अपने दोस्तों के साथ आया करता था, तालाब में खेलने। और बड़े रौब से अपने दोस्तों को बताता था- ये मेरे काका हैं पीपल काका, मुझे बहुत प्यार करते हैं। और होता भी वैसा ही था पीपल काका मुझे ही नहीं बल्कि गांव के हर एक व्यक्ति से बहुत प्यार करते थे, उनके सानिध्य में आए कोयल, कौआ, तोता, मैना, बुलबुल और गौरया वे हर किसी से उतना ही प्यार करते थे। गिलहरी को आसरा देते, फल खिलाते, बंदरों पर भी अपनी जान छिड़कते थे, और अगर कोई बकरी उनके पास आती तो उसकी भूख को भी अपने हरे-हरे पत्तों से तुष्ट करते थे। वे राहगीरों को सुकून भरी छांव देते थे, अपने मीठे फल से लोगों को आकृष्ट करते और पतझड़ के बाद जब उसमें नव पल्लवन होता तो उसके पत्तों को तुअर की दाल में मस्त लहसुन का तड़का लगा कर खाते थे। मेरे प्रिय सब्जियों में से एक थी पीपल की भाजी। मैं अक्सर पीपल के फल भी खाया करता था, शायद हर बार मेरे लिए बड़े ही प्यार से सहेज कर रखा करते थे मीठे फल। एक बार मेरे दोस्त ने मुझे पीपल खाने से मना किया, उसने कहा था- "मेरी माँ कहती है कि पीपल के फल नहीं खाते, उसमें कीड़े लगे होते हैं।" मैंने भी तपाक से कह दिया - "वो मेरे काका हैं वो भला मुझे कीड़े थोड़ी खिलाएँगे।" आज भी जब मैं पीपल के फल खाता हूँ तो लड़कपन की वो बात याद आती है, और मैं मन ही मन कहता हूँ - "यह पीपल है इंसान नहीं जो अपने क्षणिक स्वार्थ के सिद्धी हेतु अपनों को भी अपना नहीं मानता।"
इसी उधेड़बुन में मैं वापस अपने वर्तमान में आ गया। सूरज अपने रौब में था, गर्मी से तालाब का पानी भी मानो उबल रहा था। मैं पेड़ के नीचे बैठकर थोड़ी देर शीतलता का लुत्फ उठाना चाहता था। लेकिन मेरे पीपल काका अब नहीं रहे। वहीं पीपल काका जो इस झुलसा देने वाली गर्मी में तालाब के पानी से भी ज्यादा शीतलता और सुकून देते थे। जिसके साये में बैठकर मैं घंटों अपना पसीना सुखाया करता था। अभी कुछ ही महीने पहले उनकी सामूहिक हत्या कर दी गई। वे चीख रहे थे, अपने प्राणों की भीख मांगते रहे लेकिन किसी के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। काटने के कारण स्वरूप उनके पत्ते जो गर्मी में छाया देते थे कुछ बुद्धिजीवी लोगों का मानना था कि वे तालाब के पानी को दूषित कर रहे हैं। संभवतः मनुष्य के कर्मों से ज्यादा दूषित। शायद इसीलिए उन्हें सजा दी गई थी। और शायद यह कहकर भी की कड़ाके की ठंड में जब लोग नहाने जाते हैं तो काका सूरज की गरम किरणों को रोक लिया करते थे। और शायद इसीलिए भी की मानव समाज में यह रीत वर्षों से चली आ रही है, बुढ़ापे की दहलीज पर आकर हर किसी की महत्ता शून्य सी हो जाती है। और कई बार तो लोगों के ताने और उपेक्षाओं से वे अंदर ही अंदर दम तोड़ देते हैं। और अपने अंतिम समय में उनके सारे अच्छे कर्मों को भूला दिया जाता है।
अब जाने वाले को तो मैं ना चाहते हुए भी रोक न सका परन्तु मेरी एक ख्वाहिश है, उसी मेड़ पर लगाऊंगा, एक और पीपल का पौधा जिसे आगे चलकर मेरे पोते भी कहेंगे- "प्यारे पीपल काका"।