Vinod kumar Jogi

Tragedy

4  

Vinod kumar Jogi

Tragedy

बेरंग तितलियाँ

बेरंग तितलियाँ

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310



आज मौसम बड़ा सुहाना था। मैं बगीचे में टहल रही थी, जैसा हर शाम करती हूँ। क्षितिज पर अँधेरा छाने वाला था। आसमान लाल, नीले और नारंगी रंगों से लिपा हुआ था मानो कोई चित्रकार दिन ढ़लते अपने रंगों को समेट रहा हो और रंग घुले पानी को आकाश में उंडेल दिया हो। घर का बाकी काम हो चुका था, खाना बनाना रह गया था। चूँकि मोहनीश थोड़ा लेट आते हैं और उन्हें गरमागरम खाना पसंद है, तो खाना लेट से ही बनाती हूँ। दूर बगीचे के कोने में आरव खेल रहा था। यहां-वहां दौड़ते भागते। 

तभी अचानक मैं सहम गई आरव एक प्यारी सी तितली के पीछे भाग रहा था। वह उसे पकड़ना चाहता था। उसके रंग-बिरंगे मखमली पंख उसे लालायित कर रहे थे। मैं दौड़कर उसके पास गई, उसे रोकने लगी, वह दौड़े जा रहा था। मैं उसे आवाज दे रही - रुको आरव, रुक जाओ बेटु, शैतानी नहीं करते। वह सुनने को तैयार ही नहीं था। मैंने दौड़कर उसका हाथ पकड़ा और जोर का तमाचा उसके गाल पर रसीद दिया। पहले उस ज़ोरदार चांटे की आवाज, और फिर आरव के बेतहाशा रोने की आवाज़ बहुत देर तक गूंजती रही। मैंने आजतक उसपर कभी हाथ नहीं उठाया था, लेकिन आज खुद पर काबू नहीं रख पाई। उसके दृग से ब्रम्हपुत्र के समान दृगधारा बह रही थी, जिसमें बहते हुए मैं भी समय-चक्र में सालों पहले के उन यादों में चली गई। 


एक ऐसी ही बसंती शाम थी, चारों तरफ़ रंग-बिरंगे फूल महक रहे थे। बाग इंद्रधनुषी रंगों से सराबोर था। यहां-वहां बहुत सारे रंगीन तितलियां फूलों से मकरंद इकट्ठे करने में लगी हुई थी। मैं और व्योम बाग में खेल रहे थे। हम दोनों एक ही मोहल्ले में रहते थे, हमारे मम्मी पापा एक दूसरे के घनिष्ठ मित्र हुआ करते थे, इसलिए हममें भी मित्रता की प्रगाढ़ता थी। हम एक-दूसरे की खुशियों का ख्याल रखते थे। मैं उस शाम एक तितली को देख आकृष्ट हो गई। मैंने व्योम से मनुहार किया - प्लीज़ मुझे वो तितली पकड़ कर दो न। व्योम भी यह सुनते ही तितली के पीछे दौड़ पड़ा, जैसे हमेशा करता था। मेरी हर ख्वाहिश बड़ी शिद्दत से पूरा करता था। इस बार भी वह इस झाड़ी से उस झाड़ी झपट्टा मार रहा था। मैं उसको देखकर तालियां बजाकर उसका उत्साहवर्धन कर रही थी।

तभी एक जोरदार चीख ने मुझे झकझोर कर रख दिया, व्योम के रोने की आवाज आ रही थी। मैं दौड़कर उसके पास गई, वह झाड़ियों में गिरा था। मैं उसके ऊपर हंसने लगी। उसकी तड़प और बढ़ने लगी, और सहसा ही उसका शरीर स्याह होने लगा, जैसे शाम ढ़ले आकाश का रंग हो जाता था। यह देखकर मैं डर गई। मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। मैं कुछ समझ पाती उससे पहले ही उसका शरीर ठंडा हो गया था, आंखें शून्य हो गई थी रुंधते आवाज, और टूटते शब्दों के साथ उसने मेरा नाम लेने का जो प्रयास किया था वो भी असफल रहा। आस-पास भीड़ इकट्ठा हो गई, पार्क में आए सभी लोग आ गए थे। व्योम के मुख से झाग निकलता देख लोखंडे अंकल ने कहा था - "लगता है किसी सांप ने काट लिया है।" तभी एक सांप झाड़ियों से भागता दिखा, किसी ने भीड़ में कहा - "हे भगवान! ये क्या अनर्थ हो गया। ये तो वही सांप है जिसका काटा पानी भी नहीं मांगता।" यह सुनकर मैं शून्य पड़ गई, मानों कोई निर्जीव मूर्ति हो। उसके बाद क्या हुआ कुछ याद नहीं। होश आया तो मैं अपनी मां की गोद में थी। मैंने उठते ही झट से उन्हें पूछा - "मां व्योम कहां है? वह ठीक तो है ना? चलो न मुझे उसके पास ले चलो।" यह सुनकर मां के नैन भी सावन के बादलों की तरह बरस पड़े थे। उसने मुझे दुराते हुए कहा था - " बेटा व्योम हमसे बहुत दूर चला गया है, इतनी दूर कि हम उसके पास नहीं जा सकते। यह सुन मैं अपने आपको कोसते हुए रोने लगी - "काश मैं उसे ज़िद नहीं करती तितली पकड़ने के लिए।" मैं वर्तमान में आ गई, आरव अब भी सुबक रहा था, उसकी आंखें सूजने लगी थी। मैं ‌मन ही मन सोच रही थी कि उसे कह दूं, यह रंग-बिरंगी तितलियां केवल छलावा है, जिसके कारण मैंने अपने सबसे अजीज दोस्त को खोया है। और अब मैं तुम्हें नहीं खोना चाहती। उसे यह भी कह देना चाहती थी कि- "मुझे भी रंग-बिरंगे चीज पसंद है बिल्कुल तुम्हारी तरह, रंगीन फूल, रंगी इन्द्रधनुष और रंगीन चित्रकारी भी। मगर मुझे ये रंगीन तितलियां अब रंगीन नहीं लगती। ये मेरे लिए बेरंग है, जिन्होंने मेरे जीवन में अमावस की कालिख पोत दी।

मैं और आरव घर की ओर लौट चले थे। मैंने उसे मना लिया था, आईसक्रीम खिलाने के बहाने। लेकिन मन में अब भी इस बात का अफसोस था - "काश मैं इन तितलियों के बेरंग रूप को देख पाती और व्योम से जिद नहीं करती।"........


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