पीले खत
पीले खत


पीले खतों ने यादों की पिटारी खोल दी थी..आज अलमारी साफ करने का कोई ख्याल तो नहीं था पर बोरिंग दोपहर में करने को कुछ था भी नहीं इस छोटे से शहर में। पुराना डब्बा जिसमें पड़े सफेद खत पीले पड़ चुके थे। आज कोई नहीं साथ उसके.. सिर्फ इन डब्बों में पड़े खत है जो अपनी रंगत खो कर भी उसके साथ ही है। पुरानी बाते सोच कर शीतल चिट्ठी का डब्बा लेकर कुर्सी पर बैठ गई।
कितनी सारी चिट्ठियां थी, जिनमें से एक तो आनंद की थी...आनंद ने जब पहले बार प्यार का इज़हार किया था और वो इसी चिट्ठी के प्रेम में डूबी तो सब छोड़ छाड़ उसके संग चली आई थी। पर आनंद भी उम्र के साथ ज़िम्मेदारियों और इच्छाओं में दब कर बस एक बीमार शरीर बन कर रहे और एक दिन शीतल को छोड़ गए। शीतल को याद भी नहीं की इस पहली चिट्ठी के अलावा कोई गहरी याद आनंद की आती भी होगी। यंत्रवत बच्चे करना फिर उनको बड़ा करना, आज बच्चे अपनी अपनी दुनिया में जाकर रम बस गए है। अपनी जिंदगी में उदास शीतल आज चिट्ठियों में कुछ पल खोज रही थी।
अरे ये क्या " ज्योति भारती ".. ये इतनी सारी चिट्ठियां उसकी बचपन की प्रिय सखी ज्योति की थी। जाने इन पीले काग़ज़ों के स्पर्श मात्र से शीतल के अंदर अलग सी स्फूर्ति आ गई थी। ज्योति थी ही वैसी, जिंदादिल.. जिंदगी से भरी। जब फोन ना हुआ करता था तब ज्योति बहुत चिट्ठियां भेजती थी पर शीतल ने कभी कभार ही जवाब दिया होगा। खुद को घर परिवार के लिए जिंदगी भर देने के बाद आज ये चिट्ठियां थी बस साथ।
शीतल का हाथ अनायास ही फोन पर चला गया। जाने कितने सालों से उसने ज्योति को कोई काॅन्टेक्ट नहीं किया था। दो बार रिंग होने के बाद उधर से ज्योति की आवाज़ आई
" हैलो! शीतल ss यार बड़े दिनों बाद.. कहाँ हो तुम आजकल? बच्चे कैसे है? कर क्या रही हो तुम आजकल?"
इतने सारे सवालों को झड़ी और आवाज़ अब भी वैसे ही खनकती हुई।
"सॉरी ज्योति! मैंने तो तुम्हें ज़माने से कॉल नहीं किया ना हाल चाल लिया, शायद इसलिए तुमने भी कॉल नहीं किया.. मैं ठीक हूँ.. और मैं अब इस उम्र में क्या कर सकती हूं खाली कमरों की दीवारों को घूरती हूं बस" फीकी हँसी हँसती हुई शीतल बोली।
" नहीं ऐसा नहीं है शीतल! मेरे फोन से तुम्हारा नंबर गायब हो गया था और तुम नहीं जानती मैं कितनी बेचैन थी तुमसे बात करने को.. हाँ थोड़ी व्यस्त हो गई थी नहीं तो तुम्हारे यहां आने का मन बना लिया था "
"व्यस्त! ज्योति मेरे लिए तो ये शब्द आनंद के साथ ही चला गया, फिर बच्चे अपनी अपनी दुनिया में व्यस्त.. अकेलापन काटता है ज्योति.. फिर भी मन उन्हीं में लगा रहता है कि जाने वो कैसे होंगे, क्या करते होंगे? मेरा मन तो विरक्त होता नहीं और परेशान होता है" कहकर शीतल की आवाज़ भारी हो चली।
" अरे शीतल! तुम पहले शांत हो जाओ.. और यही तो नियति है.. जीवन चक्र और प्रकृति का नियम है ना दोस्त.. जैसे चिड़िया खुद भूखे रह कर भी बच्चों को दाना चुगाती है और बच्चे जब बड़े हो जाते तो घोंसला छोड़ उड़ जाते हैं बिल्कुल वैसे ही हम प्रकृति के नियम में बंधे है.. हम अपने बच्चे और वो अपने बच्चों के लिए मेहनत करेंगे और जिएंगे "
" ज्योति! तुम कितनी खुश लग रही हो.. शायद तुम्हारा परिवार ऐसा नहीं है ना.. "
" ऐसा मतलब कैसा? तुम समझी नहीं शीतल.. मैं आध्यात्म को फॉलो करती हूं.. मुझे पता है इसलिए मैंने खुद ही बच्चों को उनकी दुनिया में अकेला छोड़ उड़ आई.. अब जब सेटल है तो मैं भी अब अपनी जिंदगी जी लूँ, क्यूँ सही कहा ना.. शीतल मैं एक एनजीओ चलाती हूं और कई बेसहारा बच्चों और औरतों का परिवार हूं।
"परिवार" नाम की संस्था जहां एक ही जगह वृद्ध और अनाथ बच्चों को एक साथ रखती हूं जिससे उन दोनों को एक परिवार मिल जाए.. हाँ और मैं खुद बच्चों को छोड़ आई पर मन वही अटका रहता है कि क्या करते होंगे.. मुझे कोसते होंगे.. सालों से बनाए मेरे घर को जाने कैसे रखते होंगे.. तो ये सब मोह माया है जो हमको पकड़े रहता है ज्योति.. और कुछ नहीं "
ज्योति की बातें सुनकर शीतल अब भी स्तब्ध थी.. कितनी आसानी से ज्योति ने सालों से उलझी गांठें सुलझा दी थी। सच! बच्चे भी तो वही कर रहे हैं जो खुद उसने किया.. अपने परिवार की देख रेख! और मन में जाने कितना दुख पाले वो खुद को और सबको कोसती रही। जीवन में सब कुछ बदले में मिलने की भावना से करना जरूरी तो नहीं.. ये तो अपना अपना फर्ज है और उसको पूरा करने की राह में मिलने वाली ख़ुशियों को समेटना है बस।
"ज्योति! एक बात पूछूं? क्या मैं तुम्हें जॉइन कर सकती हूं.. क्यूँ की करने को कुछ और खास तो नहीं है मेरे पास.. मेरा भी मन लगा रहेगा.."
"शीतल! इसमे पूछना कैसा.. तुम कल की ट्रेन ले लो और आ जाओ.. हम दोनों सखियाँ मिल कर अपनी और औरों की गांठें सुलझाएगे.. किसी का संबल बनेंगे.. अपनों के लिए बहुत जिया कुछ अपने लिए भी जी ले..मैं अड्रेस भेजती हूं
कहकर ज्योति हँसने लगी और फोन रख दिया।
सालों बाद आज शीतल के चेहरे पर मुस्कान थी। चिट्ठियों को रखकर वो अपना बैग पैक करने लगी। फोन कर बच्चों को भी बता दिया और सब इस बात से बहुत खुश भी हुए। वो खुद बैरंग चिट्ठी जैसे ज्योति के पास पहुंचने को तैयार थी। सोचा ना था पुरानी पड़ी ये पीली चिट्ठियां उसके जीवन में उजाला ला देंगी।