दुनिया देवी की दुनिया
दुनिया देवी की दुनिया


एक गांव था। वहाँ एक औरत रहती थी। उस औरत का नाम था दुनिया देवी। दुनिया देवी का बड़ा भरा पूरा परिवार था। सब कुछ तो था पर जिस चीज़ की कमी थी उनके घर में तो वह थी हँसी। कारण सिर्फ एक दुनिया देवी का कड़क अनुशासन! हाँ उनके अनुशासन के चलते उनके दोनों लड़के अच्छे से पढ़ लिख गए और अच्छे - अच्छे पोस्ट पर कार्यरत हो गए। उनकी शादी भी हुई और बहुएं भी आ गई थी। उम्र बढ़ती गई पर दुनिया देवी के व्यवहार में कोई बदलाव ना आया। उनके दोनों बेटे अब शहर जाकर बस गए थे और छुट्टियों में आते जाते रहते थे। कई बार कहने के बावजूद दुनिया देवी अपनी दुनिया छोड़ने को राजी नहीं थी। अपना बड़ा सा बँगला छोड़ भला वो कहाँ शहर के माचिस के डिब्बों से फ्लैट में रहने वाली थी?
दुनिया देवी समय की बड़ी पाबंद थी। उनका मानना था कि जो समय के साथ चलता है समय उसे सफ़लता की सीढ़ियों तक पहुंचा देता है। उनके घर हर काम के लिए नौकर चाकर थे और ढेर सारे मवेशी भी। पर दुनिया देवी की जिसमें जान बसती थी वो था उनका प्यारा मुर्गा क्योंकि वही तो था जिसकी सुबह की बांग सबके सुबह का अलार्म था। दुनिया देवी ने नौकरों को स्पष्ट कहा था कि बांग सुनते ही झटपट उनके नहाने का पानी तैयार हो जाना चाहिए। दुनिया इधर की उधर हो जाती पर ना तो दुनिया देवी का मुर्गा बांग देना भूलता और ना ही नौकरों को एक सुबह का सुकून मिलता।
उन दिनों छुट्टियों में दोनों बहुएं भी छुट्टियों में आई थी। सुबह की बांग और अम्मा की भागदौड़ से उनकी छुट्टियों का मजा किरकिरा हो रहा था। एक दुपहर बहुओं ने नौकरो को बुला कर कहा कि कुछ ऐसा करो कि ये जान का दुश्मन मुर्गा एक सुबह देरी से बांग दे। बच्चों का भी मन होता था कि रात को मौज मस्ती कर देर से सो सके और सुबह देर से उठें पर ये मुर्गा बड़ी बाधा बना हुआ था। नौकरों ने बताया कि वो कोशिश कर चुके है, सब बेकार है.. मुर्गा तो बस जैसे अम्मा की ही सुनता है। दुनिया देवी उसके बांग के साथ उठती, नहाती, पूजा करती और खेतों पर जाती। वहाँ जाकर फसलों की जांच, फिर पंचायत जाकर अपना सरपंच वाला किरदार निभातीं थी। कुल मिलाकर अम्मा तो एक ही जिंदगी रोज जीती थी। पोते पोतियों के लिए दादी मतलब कड़क हेडमास्टर जैसी।
काफी सोच विचार के बाद नौकरों और बच्चों ने मिलकर एक उपाय सोचा। क्यों ना अम्मा का मुर्गा ही बदल दिया जाए? दो तीन दिन की खोजबीन के बाद आखिरकार उन्होंने उसे एक मजदूर के गूंगे मुर्गे से कुछ दिनों के लिए बदल दिया। उस रात बच्चों ने बाड़े में खूब मौज मस्ती की और देर रात जाकर सोये। पर अगली सुबह जब मुर्गे ने बांग ही नहीं दी और दुनिया देवी की नींद देर से खुली तो बौखलाए हुए वो नौकरों पर फूट पड़ी। उन लोगों ने अपना पल्ला झाड़ लिया कि मुर्गे ने बांग नहीं दी तो हम क्या करे? पूरे दिन अम्मा का मिजाज़ बिगड़ा रहा, पर बच्चों की मौज हो आई। देर से उठी तो अम्मा को रात में देर से नींद आई और बच्चों ने दादी से ढेर सारी कहानी सुनी। कई दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। घरवाले तो खुश रहते पर अम्मा दुखी होती गईं।
एक सुबह जब सब नाश्ता कर रहे थे तभी वो मजदूर हाथ में मुर्गा थामे वहाँ आया। वो परेशान था कि दिन रात मेहनत करो और सुबह की नींद ये मुर्गा खराब कर देता है। उसे अपना गूँगा मुर्गा वापस चाहिए। नौकरों को काटो तो खून नहीं। अम्मा के क्रोध से अब उन्हें कौन बचाता? तभी बड़े पोते ने सामने आकर दादी से कहा कि ये वह लोग ही थे जिन्होंने ये सब किया ताकि दादी के साथ छुट्टियों को बिता सकें। दुनिया देवी को अपनी गलती समझ में आ गई थी। आँखों से आंसू बह चले। वो बोलीं कि हाँ उनकी ही गलती थी कि जिंदगी को नियमों से बाँध दिया। अनुशासन सफ़लता की सीढ़ी है पर खुशियों को रौंदते हुए नहीं। कुछ पल अपनों के साथ हँसी खुशी से बिताने में कोई बुराई नहीं थी। अपने बच्चों के सुखद भविष्य के लिए उन्होंने उनको अपने वर्तमान की खुशियों से जुदा कर दिया था।
उसके बाद तय हुआ कि अब से मुर्गे को हफ्ते के दो दिन और गर्मी की छुट्टियों में छुट्टी दे दी जाएगी ताकि कुछ पल बिना भाग दौड़ भी जीया जा सके। अब दुनिया देवी की दुनिया में सब कुछ बेहतर था आखिर वहां से अब हँसी की आवाज जो आती थी।