धुंआ
धुंआ


कल शाम से ही साँस फूल रही थी। बार बार की खांसी ने जीना मुश्किल किया हुआ था। अच्छा था की सुधा और बच्चे छुट्टियों के चलते गांव गए है वर्ना कितना सुनाती। घूम फिर कर उसकी सुई धूम्रपान पर आकर ही टिकती है । क्या करूँ.. कितनी बार कोशिश की पर कमबख्त ये आदत जाती नहीं है। सोचते हुए प्रकाश ने लैपटॉप खोला। आदतन मजबूर डॉक्टर के पास जाने से पहले गूगल करता और बीमारी को समझने की कोशिश करता था। उसके सारे लक्षण, सारी तकलीफ और चौदह साल के धुम्रपान के गूगल विश्लेषण से निष्कर्ष निकला की शायद उसे फेफड़ों का कैंसर है। प्रकाश की आँखों के आगे अंधेरा छा गया। हे भगवान! मेरे परिवार का क्या होगा? तुरंत अस्पताल जाकर टेस्ट करवाने की ठान ऑफिस से निकल पड़ा। रास्ते में सुधा का फोन भी आया पर उठाने की हिम्मत ही ना हुई। कैंसर अस्पताल के बाहर मरीजों के परिवार की भीड़, उनके चिंता और शोक में डूबे चेहरों में अपने परिवार का भविष्य दिखने लगा। उफ्फ! क्या कर दिया मैंने? थोड़ी सी इच्छा शक्ति और दृढ़ की होती तो आज शायद हालात कुछ और होते। कैंसर की बीमारी पीड़ित ही नहीं बल्कि उसके पूरे परिवार को निगल जाती है शारीरिक, आर्थिक और मानसिक तौर पर और ये उसे आज प्रत्यक्ष दिख रहा था। थोड़े देर में एक डॉक्टर से मिलकर उसने अपनी जांच करायी। डॉक्टरों ने कहा वैसे तो हम टेस्ट कर लेते हैं पर घबराने की बात नहीं है बस कफ जम गया है सीने में।
अस्पताल से बाहर आकर प्रकाश को लगा जैसे कि उसे नया जीवन मिल गया। वापसी में उसका दोस्त शेखर मिल गया। शेखर ने उसकी मनपसंद सिगरेट जला कर सामने दी तो प्रकाश ने साफ मना कर दिया। कुछ देर पहले ही मौत आँखों पर नाच रही थी उसकी जिन्दगी धुंआ होते होते बची है।