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फर्क

फर्क

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"देखिये राघव जी, हमने बेटा-बेटी में कोई फर्क नहीं समझा, दोनों की पढ़ाई,स्वास्थय, रुचि सबमें खुलकर खर्च किया। बेटा इन्जीनियर है, बेटी डॉक्टर।"

रमेश जी के घर पड़ोसी दम्पति के साथ चाय नाश्ते के बीच गपशप चल रही थी, रमेश जी की पत्नी बोली- ये तो दहेज के भी खिलाफ है। साफ मना कर दिया था।

"हाँ जी, बिटिया ने पसंद का लड़का चुना। हमने रोका नहीं। उसकी ससुराल वालों से इतना जरुर कहा, हम दहेज नहीं देंगे। हाँ जितना हमारी सामर्थ्य है अपनी बेटी को देंगे।" राघव जी ने सिर हिलाकर समर्थन किया। "इन्होंने तो बेटे से भी कहा था की अपनी पसंद बता दे।"

"बिल्कुल।" रमेश जी बोले- पर उसने ये भार हम पर डाल दिया। यहाँ भी हम समधी से बोल दिये, हमें दहेज का लालच नहीं। आपको जो देना है अपनी बेटी को दें।"

"मेहमान आये हैं क्या आपके यहाँ, "राघव जी की पत्नी ने विषय बदला।

"बिटिया, दामाद जी आये हैं। कांफ्रेंस में दो दिन के लिये।"

"बहू,आज तुम्हारे पापाजी, बिना चाय के वॉक पर चले गये। नाश्ता भी नहीं बना। दो दिन को ही आये हैं तुम्हारे ननद, ननदोई। मेहमान है इस घर के। क्या सोचेंगे, घर की लक्ष्मी अब सोकर उठ रही है।"

बहू कुछ कहती की बिटिया बोल पड़ी- माँ,जबसे हम आये हैं भाभी हमारी खतिरदारी में लगी है, उन्हें उनके कॉलेज के नोट्स भी तैयार करने थे, कल तबियत भी ठीक नहीं थी। आप को पता है न, आप जल्दी ही दादी बनने वाली हो। भाभी जाइये,आप थोड़ी देर और आराम कर ले। आज नाश्ता मैं बनाऊंगी। चलिये जाइये न।

माँ को अपनी तरफ आश्चर्य से देखते हुए पा बिटिया बोली- माँ कल आप लोग अंकल, आंटी से कह रहे थे कि आप बेटा-बेटी में कोई फर्क नहीं करते ?"।

"हाँ----तो।"

"आप बेटी और बहू में तो फर्क करते हैं। है न।


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