Vinod Kumar Mishra

Drama

5.0  

Vinod Kumar Mishra

Drama

फर्ज और विश्वास का रिश्ता

फर्ज और विश्वास का रिश्ता

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तीस वर्षीय विश्वास अपनी संस्था के उत्थान हेतु सतत प्रयत्नशील रहते हुए समर्पित योगदान में संलग्न था। अचानक एक दिन उसे यह सूचना मिली कि उसकी संस्था में सहायक के रूप में एक कर्मठ और सुयोग्य महिला की नियुक्ति हुई है। वह मन ही मन आह्लादित हुआ कि संस्था के विकास में अब बेहतर प्रयास किया जा सकेगा। अगले दिन वह चौबीस वर्षीया अविवाहित युवती जब कार्यभार ग्रहण करने आयी थी। तब उसने अपना परिचय देने के साथ ही एक उच्चाधिकारी को फोन लगाकर बोली कि सर जी मैं कार्यस्थल पर कार्यभार ग्रहण करने हेतु उपस्थित हूँ। कृपया संस्थाध्यक्ष को कार्यभार ग्रहण कराने हेतु निर्देशित करें। उधर से आवाज आई कि उनसे बात करायें। तब उस युवती ने मोबाइल विश्वास को देते हुए कहा था कि सर जी आपसे बात करना चाहते हैं। जब विश्वास ने फोन रिसीव किया तो उधर से आवाज आई कि मैम को आज ही के दिन कार्यभार ग्रहण करा लीजिएगा। लेकिन आवश्यक कागजात लेने के बाद ही कार्यभार ग्रहण प्रमाण पत्र जारी करिएगा। जिसे वह घर भूल गई हैं और कल तक आपको उपलब्ध करा देंगी। उच्चाधिकारी के आदेश के क्रम में विश्वास ने इस शर्त पर कार्यभार ग्रहण करा लिया कि कल तक सभी आवश्यक कागजात मिल जाने चाहिए। तत्पश्चात उक्त युवती ने कार्यभार ग्रहण करने के प्रमाण पत्र की माँग रख दिया। जिस पर विश्वास ने स्पष्ट कहा कि जब तक आवश्यक कागजात नहीं मिल जाते तब तक प्रमाण पत्र नहीं जारी किया जा सकता है। यह सुनते ही उस युवती ने अपने मोबाइल कैमरे से कार्यभार ग्रहण करने वाले प्रपत्र का फोटो खींचने का असफल प्रयास किया था। असफल प्रयास इसलिए... क्योंकि विश्वास अपने दायित्वों, अपनी संस्था और उच्चाधिकारियों के प्रति वफादार था। उसने तुरंत उस प्रपत्र को अपनी कस्टडी में सुरक्षित करते हुए उस युवती से बोला कि जब तक आवश्यक कागजात आप द्वारा उपलब्ध नहीं करा दिये जाते हैं तब तक आपको संस्था के किसी भी प्रपत्र की फोटो लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी। चालाक युवती के चेहरे पर निराशा के भाव देखकर विश्वास ने उसे ढांढ़स बँधाया था कि सभी प्रपत्र कल तक तो आप दे ही देंगी और जैसे ही आप आवश्यक प्रपत्र दे देंगी आपको कार्यभार ग्रहण प्रमाण पत्र उपलब्ध करा दिया जाएगा। इसी के साथ विश्वास ने उस युवती को जलपान हेतु आमंत्रित किया था। तब अनमने ढंग से उस युवती ने जलपान ग्रहण किया था। तत्पश्चात विश्वास ने संस्था के भौतिक परिवेश से उस युवती को परिचित कराया था और कार्यावधि के पश्चात दोनों अपने-अपने निवास स्थल की ओर प्रस्थान किये थे। अगले दिन उस युवती ने सम्पूर्ण आवश्यक प्रपत्र जमा किया और विश्वास ने उसे कार्यभार ग्रहण प्रमाण पत्र भी सहर्ष प्रदान किया। तब उस युवती के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव उभर आये थे। उसने विश्वास से प्रश्न किया कि यदि यही कार्यभार ग्रहण प्रमाण पत्र आप कल ही दे देते तो मुझे अब तक मानसिक पीड़ा से नहीं गुजरना पड़ता। तब विश्वास ने विनम्रतापूर्वक उससे कहा था कि यह संस्था मेरी व्यक्तिगत जागीर नहीं है कि मैं अपनी मनमर्जी से जो चाहूँ उसे कर सकूँ। किसी भी संस्था के अपने नियम होते हैं और उन नियमों के अनुपालन में ऐसा करना आवश्यक होता है। आशा है कि आप हमें समझने का प्रयास करते हुए संस्था हित में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देने में हमारा सहयोग करेंगी। युवती ने सहर्ष अपनी सहमति प्रदान करते हुए अपने दायित्वों को जानना चाहा तो विश्वास ने उसे संस्था के कार्यक्षेत्रों से परिचित कराते हुए उसे उसकी अभिरुचि के अनुरूप कार्य आवंटित किया था। जिसे उस युवती ने निष्ठापूर्वक संपन्न करने के प्रयास में विश्वास से समय- समय पर जब भी सहयोग लेना चाहा तो उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप विश्वास ने सदैव उसे सहयोग प्रदान किया था। संस्था के उन्नयन हेतु दोनों ने संयुक्त रूप से उत्कृष्ट प्रयास करते हुए अपने अप्रतिम योगदान से संस्था को शिखर की ओर अग्रसर करने लगे। इस बीच दोनों एक दूसरे को जज करते हुए दिनोंदिन सन्निकट होते गये थे। यह अहसास उन्हें तब हुआ जब संस्था या व्यक्तिगत कार्य से यदि किसी एक को बाहर जाना पड़ता तो दूसरा उदास हो जाता किंतु अपने मनोभावों को प्रकट करने से वे बचते रहे। फिर भी येनकेन प्रकारेण एक दूसरे के करीब रहने का प्रयास भी वे करते रहते। शनैः-शनैः रिश्ता प्रगाढ़ होता गया और वे संस्था की बातों के अतिरिक्त व्यक्तिगत सुख-दुःख को भी एक दूसरे से अब साझा करने लगे थे। विश्वास उस युवती की कर्तव्यनिष्ठता से प्रभावित होकर उसे फर्ज नाम से पुकारने लगा था। वह जब भी उसे 'फर्ज' नाम से पुकारता तो उस युवती के चेहरे की चमक और लालिमा निखर जाती थी। यद्यपि फर्ज सकुचाकर मंद मुस्कान के साथ वहाँ से या तो हट जाया करती थी या उस सुमधुर अहसास को अनसुना कर दूसरी बात शुरू कर देती थी। समय के साथ एक दूसरे के दायित्वों को सकुशल संपन्न कराने में वे सदैव तत्पर रहते थे। संस्था की भीड़ में भी वे कुछ क्षण के लिए एकांत ढूँढ़ लिया करते थे। दोनों के जीवन में बहारें ही बहारें थीं। चूंकि संस्था के विकास में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही थी। किंतु अन्य सहकर्मियों से यह सहन नहीं हो पा रहा था और वे दोनों के समक्ष कँटीले जाल बिछाने लगे ...।


एक बार संस्था के वार्षिकोत्सव के लिए दोनों ने जब पूर्व संध्या पर सर्वश्रेष्ठ आयोजन की तैयारी कर वार्षिकोत्सव के दिन संस्था के द्वार पर पहुंचे थे, तो वहाँ मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था... "फर्ज संग विश्वास" और... न जाने क्या-क्या लिखा हुआ था। जिसे किसी और ने नहीं बल्कि उनके एक सहकर्मी ने आसपास के अराजक तत्वों की सहायता से उत्सव को फीका करने के उद्देश्य से यह घृणित कार्य किया था। दोनों घबराये हुए थे और लोकलाज के वशीभूत होकर कुछ क्षण के लिए सन्न रह गए थे। जबकि दोनों के दिल में एक दूसरे के प्रति अगाध स्नेह, सम्मान, विश्वास और अपनापन तो अवश्य था किंतु शब्दों की भाषा और शारीरिक हावभाव से दोनों ने कभी मर्यादा नहीं लाँघी थी। तब विश्वास ने फर्ज को ढांढ़स बँधाते हुए उत्सव की सफलता पर उसे ध्यान केंद्रित करने को कहा था। फिर दोनों ने उत्साह के साथ कार्यक्रम को सफल बनाने हेतु संयुक्त रूप से उत्कृष्ट प्रयास किया था। कार्यक्रम सफलता की ओर ज्यों-ज्यों अग्रसर होता गया था त्यों-त्यों खलनायक सहकर्मी के चेहरे की मलीनता बढ़ती गई थी। कार्यक्रम सफलता की ओर अग्रसर होते देखकर वह खलनायक सहकर्मी बीच में ही कार्यक्रम छोड़कर वहाँ से चला गया था। जबकि कार्यक्रम सफलतापूर्वक संपन्न होने पर सभी ने अब तक का सर्वश्रेष्ठ आयोजन बताते हुए दोनों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। फर्ज और विश्वास दोनों किशोरावस्था की दहलीज पार कर परिपक्व हो चुके थे। इसलिए दोनों को अपने भले-बुरे का ज्ञान भलीभांति था। फर्क इतना ही था कि फर्ज अविवाहित थी और विश्वास वैवाहिक जीवन व्यतीत कर रहा था। फिर भी दोनों की उपस्थिति मात्र से ही संस्था रूपी उपवन महक सा जाता था। दोनों के मन-मंदिर में एक दूसरे के लिए असीम सम्मान और निर्मल प्यार था। वे एक दूसरे के मनोभावों को बड़ी ही सहजता से भाँप लेते थे और दूसरे की अपेक्षाओं को पूरा करने का भरपूर प्रयत्न भी करते थे। दोनों में गजब का संयम था। इसलिए दोनों की सृजनात्मक क्षमता उत्तरोत्तर प्रगति पर थी। तभी एक दिन फर्ज ने विश्वास को बताया था कि हमारी शादी तय हो गई है और मुझे अब ससुराल के आसपास ही स्थानांतरण कराना होगा। यह सुनते ही विश्वास हर्ष और विषाद के संगम में डूब गया था। बड़ी मुश्किल से अपने को सँभालकर विश्वास ने अपनी फर्ज को बधाई देते हुए बोला था कि आपका वैवाहिक जीवन सुखमय हो...। फिर विरह वेदना के स्वप्न सागर में वह डूब गया था। जब उसकी चेतना जाग्रत हुई तो... याचक की भाँति अपनी फर्ज से अनुरोध किया था कि इस संस्था को छोड़कर आप कभी मत जाइएगा। तब फर्ज ने कहा था कि जाना तो मैं भी नहीं चाहती किंतु ससुराल और इस संस्था की दूरी इतनी अधिक है कि एक को छोड़ना ही पड़ेगा। भारी मन से विश्वास ने उसके वैवाहिक जीवन की शुभकामनाएं देते हुए कहा था कि आप अपने वैवाहिक जीवन को प्राथमिकता प्रदान करें। मैं टूटकर भी अकेले ही संस्था के उत्थान हेतु यथासंभव प्रयास करता रहूँगा...। फर्ज के शादी की शुभ घड़ी करीब आ जाने पर उसने विश्वास को निमंत्रण पत्र देते हुए उससे अपनी शादी में आने का आग्रह किया तो वह सहर्ष तैयार हो गया था और शादी समारोह में उत्साहपूर्वक भाग लेते हुए विश्वास ने ससम्मान उसके सुखमय दाम्पत्य जीवन के लिए ईश्वर से मंगलकामनाएं भी किया था।कुछ ही दिन बीते थे कि फर्ज ने विश्वास को फोन पर बताया कि मेरा स्थानांतरण ससुराल के आसपास हो गया है। विश्वास पर मानो अब दु:खों का पहाड़ सा टूट पड़ा हो। वह इस समाचार से स्तब्ध रह गया था। उसकी आँखों के सामने अंधेरा सा छा गया था। विश्वास को यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जो साये की तरह हरदम उसके साथ रही वही आज कितनी सहजता से उससे दूर जाने हेतु अपना स्थानांतरण भी करा लिया। मगर... नियति को कौन टाल सकता है? अगले दिन संस्था में पहुंच कर मिठाई का डिब्बा और स्थानांतरण का आदेश प्रस्तुत करते हुए फर्ज ने अपनी विवशता के साथ विश्वास से कार्यमुक्त करने का अनुरोध किया था। कार्यभार ग्रहण और कार्यभार से मुक्ति के मध्य पाँच वर्ष का समय कैसे गुजर गया था... दोनों को इसका आभास ही नहीं हुआ था और आज कार्यमुक्ति प्रमाण पत्र लिखते हुए विश्वास न जाने किस दुनियां में खो गया था। उसकी आँखों के सामने फर्ज के कार्यभार ग्रहण करने से लेकर अब तक की खट्टी-मीठी यादें एक-एक कर तैरने लगी थीं। फर्ज भी चुपचाप विश्वास के चेहरे पर टकटकी लगाए गुमसुम सी हो गई थी। तभी फर्ज की नजर टिकटिक करती हुई दीवाल घड़ी पर पड़ी तो वह चौंककर बोली थी। सर जी, काफी देर हो गई है, कार्यमुक्ति प्रमाण पत्र बनाकर अब मुझे जाने की अनुमति और आशीर्वाद प्रदान करें। विश्वास ने कार्यमुक्ति प्रमाण पत्र के साथ उसके सुखमय जीवन का आशीर्वाद भी प्रदान किया। फिर... दोनों एक दूसरे की आँखों में इस कदर डूब गए थे कि मानो जन्म-जन्मांतर तक उस दरिया से बाहर निकल ही नहीं पायेंगे...।


जिंदगी के सफर में कौन सा राही हमसफर बनकर जिंदगी सँवार दे...। इसी यक्ष प्रश्न का उत्तर दोनों खोज ही रहे थे कि तभी विश्वास ने ही साहस कर अपनी फर्ज को उसके दाम्पत्य जीवन का फर्ज निभाने हेतु प्रोत्साहित करते हुए अपने सीने पर पत्थर रखकर भारी मन से अपनी फर्ज को विदा किया था। मगर... दरवाजे पर खड़े होकर एक तरफ वह अपनी फर्ज को अपनी आँखों से ओझल होते हुए एकटक निहारता रह गया था तो दूसरी तरफ उसकी फर्ज अपने आगे बढ़ते हुए हर कदम के साथ अपनी प्यासी आत्मा को संतृप्त करने हेतु पीछे मुड़-मुड़कर अपने विश्वास का आखिरी दीदार बारबार करती जा रही थी। देखते ही देखते दोनों एक दूसरे की नजरों से हमेशा-हमेशा के लिए ओझल हो गये थे। किंतु... उनकी साँसेंं आज भी उसी स्नेह, सम्मान, विश्वास और अपनेपन के साथ एक दूसरे के लिए धड़कती रही...। समय के साथ वक्त गुजरता गया और दोनों की सकारात्मक प्रवृत्ति ने उन्हें अपनी संस्था के विकास हेतु पुनः उत्प्रेरित किया और दूर देश में रहकर भी दो पंछी अप्रत्यक्ष रूप से एक दूसरे की संस्था के विकास हेतु सतत प्रयत्नशील रहे। जिससे एक संस्था के स्थान पर अब दो-दो संस्थाओं का विकास निरंतर जारी है...।


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