"फन्ने की बहू"
"फन्ने की बहू"
“मैंने सुबह दरवाज़ा खोला, तो जामुन के पेड़ पर चिड़ियों ने शोर मचाया हुआ था।" सामने लाल ओढ़नी में आधा मुँह ढके फन्ने की बहू घर में आती धूप संग उतनी ही तेज गति से दूर से ही कुछ-कुछ कहती चली आ रही थी। “आज आने में देर कैसे हो गयी आंटी”, मैंने पूछा..!
फन्ने की बहू हमेशा की तरह नज़रें चुराकर मुस्कुराती हुई चुप-चाप अपने काम में लग गयी ताकि कोई और प्रश्न न पूछा जाए।
“अच्छा चाय पीओगी या फिर पीकर आये हो?” मैंने फिर पूछा और फन्ने की बहू ने मुस्कुरातें हुए गर्दन हिला दी मतलब हाँ…!
फन्ने की बहू रोज घर आकर पहले चाय पीती फिर काम शुरू करती। हाँ, अक्सर कहती बिटियाँ जब तुम अपने लिए इलायची वाली चाय बनाओगी तो मुझे भी देना शायद इसीलिए मुझसे विशेष लगाव रखती है जितना हो सकता मुझे कोई काम न करने देती।
"पति का नाम फन्नेलाल होने पर माँ उन्हें फन्ने की बहू कहकर ही पुकारती बजाय नाम के!" गांव भर में वह इसी नाम से जानी जाती।
"साँवली सलोनी, छरहरी काया, ओठों से कुछ बाहर आते दांत मुख पर कांतिमय आभा लिए मुस्कुरातें आते ही दिखाई पड़ती और स्वभाव की बड़ी चुलबुली रही फन्ने की बहू! जब भी किसी से बात करती, बात बाद में ख़त्म होती पहले खिलखिला के हँसती रहती। आज लगभग 60 वर्ष की होगी फन्ने की बहू..!
वक़्त की मार ने समय से पहले समझदार बना दिया था, उन्हें! विवाह के कुछ वर्ष पश्चात ही पति का देहांत हो जाना फन्ने की बहू को अंदर तक तोड़ गया था। पथराई सी आँखें और तीन बच्चें साथ में उनका भविष्य कहीं तो अंदर ही अंदर उसे खाये जा रहा था। कम उम्र में ही तितली सी फन्ने की बहू एक अधेड़ सी औरत लगने लगी।
हालांकि तीन बीघा ज़मीन और एक मकान जो कि फन्ने ने अपने विवाह से पहले बनवाया था यानी फन्ने की बहू ने आते ही नए घर में क़दम रखा। दोनों ने विवाहित जीवन को बड़े प्रेम से शुरू किया।
सब कुछ उसकी आँखों के आगे से ओझल से हो रहा था। जमीन व मकान से आज वह चैन की सांस तो ले रही है, कम से कम रहने को छत और खाने-कमाने के लिए ज़मीन तो है वरना तो वारे-न्यारे हो जाते।
फन्ने के गुजरने के बाद अक्सर लोग उसे ढाँढस बंधाते न जाने कैसे -कैसे दिलासे देते। उनके दिलासे सुनकर तो अगर थोड़ा हौसला हो भी, तो वह भी रफ़ूचक्कर हो जाये। अब उसे सब कुछ एक पुरानी खण्डर होती इमारत की भांति लगने लगा। जब भी आईने में खुद को बेरंग सी देखती, कलेजा जैसे मुँह को आता बिना चूड़ियों के अपने ही हाथ उसे खुशियों का गला घोटते दिखाई देते। पति के ना रहने से कम उम्र में ही समाज द्वारा उढ़ाई गयी सफ़ेद चादर दिल पर पत्थर सी रखी थी जैसे किसी ने बेड़ियों में चारों-तरफ से जकड़ लिया हो।
अपनत्व को बटोरती फन्ने की बहू अपने बच्चों की तरफ़ देखकर उनके गिरते आंसुओं को पोछकर स्वयं को संभालती और सोचती पति के जाने का दुःख क्या किसी दिलासे भर से शांत होता है..! आदमी के ना रहने से सबकी नज़रें ही बदल जाती हैं। “किसी को उसका घर दिखता है, किसी को जमीन और किसी को फन्ने की बहू।“
पति के न रहने पर गांव ने उसे एक अलग ही श्रेणी में रखा था किसी भी बार-त्योहार या शादी-ब्याह में उसे नही बुलाया जाता रिश्ते-नातों में भी उसे अलग-थलग ही रखा जाता। आख़िर ये कैसा रिवाज है दुनिया का...?
अकेली औरत का इस संसार में गुजर होना उतना ही मुश्किल है जितना मनुष्य का बिना घर रहना, पिता बिना उसकी संतान का रहना पर जीवन तो जीना है, अपने लिए ना सही अपने मासूम बच्चों के लिए जिन्हें आज भी लगता है कि “बाबूजी किसी काम से शहर गए है…कुछ दिनों बाद लौटेंगे जरूर।“
“है कोई उत्तर इन मासूम प्रश्नों का…?” अपने बच्चों के सामने वह रो भी ना पाती जैसे-तैसे फन्ने की बहू ने सच्चाई को कबूला और संभलना शुरू किया अब वह रोज घर को संवारती और खेतों को भी देखती, फसलों का मुआयना करती और लौटते वक़्त एक घास का भरोटा सर पर रख लाती ताकि घर मे बंधी उसकी गाय कमज़ोर ना हो, समय पर दूध देती रहे। जिससे बच्चों को किसी प्रकार की कोई कमी ना हो।
फन्ने लाल कुछ ही दिनों पहले बड़े अरमान से गाय लाया था। जिस दिन गाय खूंटे पर बांधी थी वह मारे ख़ुशी के फूला न समा रहा था ज़मीदार के घर में गाय हो यह तो “सोने पर सुहागा वाली बात है।“ वह अक्सर कहता कि अब सिर्फ बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाना है, बच्चों का खान-पान अच्छा होगा तो वह बड़े दिमाग से पढ़ेंगे, तुम भी तंदुरुस्त रहोगी। इसलिए गाय लाया हूँ, न जाने क्या-क्या सोच के रखा था। एक पल के लिये फन्ने की बहू उन ख़्वाबों में खो गयी जो घर व बच्चों के लिये फन्ने ने देखें थे, कहते-कहते कुछ समय के लिए वो उस पल को जीने सी लगी थी।
एक दिन खेत से आते समय धीरे-धीरे तेज होते संगीत की आवाज़ फन्ने की बहू के कानों में पड़ी वो घर जाने के लिए आगे बढ़ ही रही थी कि देखते-देखते एक नाचते-गाते लोगों की टोली नजदीक आ गयी जिसमें पुरुष और महिलाएँ भी शामिल थी देखने से विवाह की सी मंडली लग रही थी, गीत भी वैसे ही गाये जा रहे थे। बहुत दिनों बाद फन्ने की बहू ख़ुशी का माहौल देखकर अपनी सुध-बुध सी खो बैठी अचानक सारे गम आँखों से ओझल हो गए लगा कोई बहुत बड़ा बोझ दिल से उतर गया हो।
नाचती-गाती महिलाओ में वो स्वयं को महसूस करने लगी। फन्ने की बहू स्वाभविक रूप से बड़ी चुलबुली रही उसका मन भी उस टोली में नाचने को हो रहा था। वैसे नाचने-गाने की बड़ी शौक़ीन रही, छोटी सी उम्र में ही गीतों के सामने उसके पांव न रुकते थे। अपनी ही शादी में फन्ने के साथ जमकर नाची थी खैर आज…..दिल खोलकर मुस्कुरा रही फन्ने की बहू को अचानक एक आवाज़ सी कानों में पड़ी। गांव की हम उम्र सी भाभियां कह रही थी-“अरी दूर हट, तुझे नहीं पता शादी-ब्याह का मामला है, तू ठहरी विधवा क्यूँ अपशकुन कर रही है।“ ऐसी तिरस्कार वाली बातें सुनकर फन्ने की बहू का दिल बैठा से रह गया कल की सी ही बात है....यहीं गांव की महिलाएं संग हँसी-ठिठोली किया करती थी अब वह कैसी बदल गयी है? फन्ने की बहू सोचने लगी की क्या अब वह किसी भी शुभ कार्य की हिस्सेदार नहीं है।
“क्या बिना पति के स्त्री के जीवन का कोई मोल नही।“ आँसू पोछते हुए घर की और बढ़ने लगी और उसे अपनी माँ की बात याद आयी जो अक्सर कहा करती थी, “आदमी एक छत की तरह होता है।“
दरवाज़े में दाख़िल होते ही बच्चों को गिल्ली-डंडे का खेल खेलते देखकर मुस्कुरा उठी और कहने लगी "आग लगे ऐसे समाज को मुझे बस अपना घर देखना है, अपने बच्चों का ध्यान रखना है।“ अब वह रोजाना निश्चिन्त मन से अपना काम करने लगी।
समय अपनी गति से चलता गया और सोलह वर्ष बीत गए। बड़ा बेटा दिलीप कॉलेज जाने लगा और साथ में शाम के समय स्कूल के बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाने लगा बाकी दो बच्चें स्कूल में पढ़ रहे थे।
उधर फन्ने की बहू को गांव के एक प्रतिष्ठित परिवार में काम मिल गया था अब वह अपना घर संभालती, खेतों को भी देखती और ख़ुश रहती। कुछ दिनों बाद बड़े बेटे को स्कूल में नोकरी मिल गयी अब घर में बचत के हिसाब से काम होने लगे और बेटी का कॉलेज पूरा हो गया था।
एक दिन मैं अपने कमरे की तरफ़ जा ही रही थी और फन्ने की बहू ने बड़े प्यार से मेरे सर पर हाथ रखा और कहा कि “क्या लगाती हो बेटी इतनी कैसे चमकती हो, अबके शहर से मेरे लिए भी अच्छी सी क्रीम लाना मैं भी थोड़ी गोरी हो जाउंगी। ( दोनों हँसते हुए) जी आंटी, आप यहीं रख लो।
यक़ीनन एक क्रीम मात्र से वो इतनी खुश हो गयी कि मानो कोई हीरा हाथ लगा हो। अब मैं जब भी गांव जाती तो फन्ने की बहू के लिए उपहार स्वरूप कुछ न कुछ ले जाती।
बढ़ती उम्र के साथ ही वह गांव की बड़ी औरतों में गिनी जाने लगी अब महिलाएँ व पुरुष सभी उससे अच्छे से बात करते उसका मान-सम्मान करते और ईश्वर की कृपा से कुछ दिनों बाद बड़े बेटे का विवाह तय हुआ। बहुत दिनों बाद ऐसी ख़ुशी घर में आई थी। फन्ने की बहू रह-रह कर फूली ना समाती बार- बार स्वयं को आईने में देखती, पति के गुजरने के बाद तो जैसे घर में आईना भी है, “वह भूल चुकी थी।“
एक दिन चूल्हे पर रोटी सेकते हुए उसकी नज़र दलान में टंगी फन्ने की तस्वीर पर पड़ी। सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहनें सर पर साफा बाँधकर तस्वीर में फन्ने का मुस्कुराता हुआ चेहरा देखकर वह बीते दिनों में खो गयी । जिसमें फन्ने वहीं कुर्ता-पायजामा पहनकर उसे दिखाता हुआ पूछ रहा है- “क्यूँ लक्ष्मी कैसे लग रहे हैं….? बताओगी भी या देखे ही जाओगी…!”
"फन्ने की बहू नज़र भर के फन्ने को देख रही है," की अचानक तवे पर सिकती रोटी के जलने की सुगंध से वह अपने सपने से बाहर आ जाती है और जलती रोटी को कटोरदान में रखते हुए ही सारा शरीर सुन्न पड़ जाता है।
वह कहती है- “तुम होते तो न जाने क्या-क्या करतें, सारे गांव में ढिढोरा पीटते, वाह-वाही बटोरतें, तुम होते तो मैं भी दुल्हन सी सजती....और फूट-फूट कर रोने लगती है….!"
आँसू पोछकर फिर से रोटियाँ सेकते हुए वह बार-बार तस्वीर की तरफ देखती है....मानों फन्ने भी मुस्कुराकर उसे ही देख रहा हों..!
उधर मुझे बेटा होने की खुशी में वह फूली नहीं समाती और बच्चे के नाम का कुर्ता सिलवाकर मुझे देते हुए….”मैं भी तो दादी बनी हूँ, बबुआ को पहनाना जरूर, बिटिया"..जी आंटी जी, “बाबू जरूर पहनेगा” मैंने कहा। फिर कभी बाबू को देखती कभी मुझे…! “तुम बस बाबू का और अपना ध्यान रखो। काम की चिंता ना करो, जो भी चाहिए मुझे बताओ, ठंड बहुत है बेकाम पानी में हाथ न देना बच्चें को ठंड लग जायेगी।“ फन्ने की बहू ने कहा।
सच में निःस्वार्थ प्रेम के भाव चेहरे पर अलग ही दिखते हैं….."ऐसी है हमारी फन्ने की बहू……!" आज सालों बाद मेरे पहनाये हुए नए कपड़ों और कंगनों को अपने हाथों में देखकर उसकी चंचलता रह-रह के खुशी के संग घर में बिखर रही है….! कल बाबू का नामकरण उत्सव है, सारे मेहमान घर में आये हुए हैं सब अपनी बातों में मग्न अपने-अपने ढंग से व्यस्त हैं, उधर मुझे पल-पल संभालते हुए घर को भी संवारती और मेरे तैयार होते ही मुझे और बाबू को काला टीका लगाती…..माँ जैसी फन्ने की बहू…!
**** समाप्त ****
( कहानी सत्य घटना पर आधारित है, काल्पनिक नहीं।)