Dr. Neetu Singh Chouhan

Tragedy

3.8  

Dr. Neetu Singh Chouhan

Tragedy

"पलकें"

"पलकें"

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"रतना ओ रतना जल्दी कर वो लोग आते ही होंगे..खाना बन गया है,मैं थोड़ा मीठा बना लूँ...तुम तैयार रहना।" जी माँ, रतना ने मुँह बिगाड़कर कहा!

रतना अभी शादी नही करना चाहती,वो आगे पढ़ना चाहती है...कई बार घर में माँ-बाबूजी से बात भी कर चुकी है, पर वो है के मानने को तैयार ही नही। रतना अपनी तीन बहनों में सबसे छोटी है लेकिन पढ़ने में होशियार है और रुचि भी रखती है। बाकी दो बड़ी बहनों का विवाह हो चुका है एक भाई है, सबसे छोटा इसलिए रतना के माँ-बाबूजी चाहते है कि एक बार रतना का विवाह हो जाये तो वो अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाएंगे....रहा, बेटा तो पढ़ाई पूरी कर ले फिर बहू भी ले आयेंगे।

रतना के बाबूजी जयकिशोर गांव के पूर्व सरपंच रहे। चलती सरपंची में दो बडी बेटियों को ब्याह दिया। अब रहे ज़मीदार तो सब कुछ देख भाल के ही करना होगा। रतना के विवाह के बाद बेटे की पढ़ाई भी है और घर क्या पानी से थोड़ी न चलता है, थोड़ी जमा पूंजी से एक बार बेटी ब्याही जाए फिर एक बार को तो मन शांत हो..!

रतना की माँ काम खत्म करके आते ही , ये क्या "तू अभी तक कपड़े ही देख रही है, मेहमान आने ही वाले है...! जल्दी कर बिटिया...रतना के बाल संवारते हुए सोचती है"

"बेटी का विवाह भी करना ही है, रतना चली जायेगी तो घर सूना हो जाएगा। कैसी रीत है संसार की बेटियों से ही तो चिड़ियों सा चहकता है, घर!"

रतना है भी बड़ी चुलबुली...सारा घर जैसे उसी के हुकुम का गुलाम हो, पर माँ- बाबूजी उससे प्रेम ही इतना करतें है।

अजी सुनती हो, रतना के बाबूजी ने रतना की माँ को पुकारा..! मेहमान आ गए है बैठक में आओ।...उनके आने पर वही साधारण बातचीत के साथ गज़ब की आवभगत और थोड़ी देर में रतना को बुलाया गया। चाय लेकर रतना बैठक में हाज़िर हुई..…आओ बिटिया...आओ, बैठो ! सरपंच जी बिटिया तो बड़ी सुंदर और सुशील है, आपकी!

मुस्कुराकर हाथ जोड़ते हुए...सरपंच जी ने उनकी बात को स्वीकृति दी। अब रतना को अंदर भेज दिया गया। उसे बाद में पता चला कि रिश्ता पक्का हो गया है। एक अच्छी बात यह थी कि रतना के होने वाले पति सरकारी नोकरी में है,अब कुछ ही दिनों बाद घर में शादी की तैयारियां होने लगी। घर की स्थिति को देखते हुए और माँ के समझाने पर रतना भी राजी हो गयी। शादी के दिन नज़दीक आ रहे थे, पर रतना ना तो ख़ुश थी और ना ही उदास...बस सबकी सहमति के साथ चल रही थी।

आज विवाह का दिन है, सभी लोग फूले नहीं समा रहे और रतना शादी के जोड़े में चुपचाप सभी रस्मों को निभाये जा रही है..!

अपने बचपन को आँखों में समेटे रतना अपने घर से विदा लेती है, कुछ घंटों का सफ़र तय कर वह ससुराल पहुँचती है, और देखती है कि उसी की तरह ससुराल का घर भी दुल्हन की तरह सजा हुआ है...! शाम ढलने के साथ ही उसका मन घबराया सा जा रहा है। खाना खाने के बाद बड़ी भाभियाँ उसे अपने कमरे तक छोड़ने आती है साथ ही दबी-दबी सी बातों के साथ मुस्कुराते हुए कमरे से बाहर निकल जाती है। कमरे में अकेली बैठी रतना का मन बैठा सा जा रहा है की अचानक थोड़ी सी आहट से दरवाज़ा खुलता है...रतना समझ गयी थी कि कमरे में पति का प्रवेश हो चुका है। तुम ठीक हो ना....पति ने पूछा..? कमरे में फैले सन्नाटे के साथ वह अपने में सिमटते हुए उसने "हाँ" में उत्तर दिया। रतना तुम मुझे सुरजीत बुला सकती हो....समझ में नही आ रहा कि क्या बात करूं, तुम कुछ बोलो ना रतना...मैं तुम्हें बहुत खुश रखूंगा। रतना काफी देर तक कुछ न बोली! अपने हाथ पर किसी के हाथ का अनुभव उसे अलग दुनिया सा एहसास लगा जो इससे पहले उसने महसूस नही किया था। कोई शिकायत हो तो वो भी कर सकती हो रतना," पति ने कहा।" मुझे कोई शिकायत नही आपसे, बस मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ..! "कहते हुए रतना गर्दन नीचे कर लेती है हाँ, मैं पढ़ाऊंगा न तुम्हें, तुम चिंता मत करो.... सुनते ही रतना...सच में...आप मुझे रोकेंगे नही!"

रतना के चेहरे पर और निखार आ जाता है और वह स्वयं सुरजीत के प्रति आत्मा से समर्पित हो जाती है।

अगली सुबह सुरजीत शहर जाने की तैयारी कर रहा है। मैं शाम वाली ट्रैन से जा रहा हूँ,रतना....सप्ताह के अंत में आया रहूंगा तुम चिंता मत करना तुम्हारी आगे की पढ़ाई के लिए मैं शहर में ही इंतजाम करता हूँ, ठीक है! "सुरजीत ने कहा"। बस तुम खुश रहो...!

रतना ख़ुशी-ख़ुशी घर में काम करती और खाली समय में पढ़ाई करती। शुक्रवार का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करती..! सुरजीत जो शुक्रवार की शाम घर आता था। इस बार सुरजीत रतना को अपने साथ शहर ले जाकर उसका एडमिशन बी.ए. प्रथम वर्ष कॉलेज में करवा देता है। आज रतना बहुत खुश है। वह सुरजीत से कहती है-"मैं बड़ी भाग्यशाली हूँ, की मुझे पति रूप में आप मिले है"। अब रतना कॉलेज जाती और मन लगाकर पढ़ती! जीवन के तीन साल खुशी से निकले रतना ने ग्रेजुएशन पूरा कर लिया है। और वह एम.ए. की तैयारी कर रही है। इसी वर्ष वह पुत्र को जन्म देती है। सुरजीत और रतना के साथ सारा परिवार खुशियाँ मना रहा है। उम्मीद की इस किरण संग रतना आगे बढ़ती ही जाती है और स्नाकोत्तर पूरा कर वह पुनः माँ बनने का सुख प्राप्त करती है। बच्चा छोटा होने के कारण अभी वह अपने पैतृक गांव में है आज शुक्रवार है यानी सुरजीत के आने का दिन, रतना उत्सुकता से विशेष भोजन बनाने में लगी है कि उसे घर के बाहर बड़ा शोर-गुल सुनाई देता है। गांव की औरतों का एक झुंड रतना के कमरे की ओर आता हुआ दिखाई देता है...और जब गांव की औरतें उसे गले मिलकर बड़ी-बड़ी चीखों के साथ रोने लगी तो उसे लगा कि कहीं सुरजीत ...नहीं..नहीं...हे ईश्वर! ये मैं क्या सोचे जा रहीं हूँ। तभी बड़ी भाभी द्वारा माथे का सिंदूर पोछें जाने पर जैसे रतना के प्राण निकाल लिए हो। वह बेहोश हो जाती है, कई देर तक हाथ-पैर मलने पर वह आँखें खोलती है और गला फाड़ के रोने लगती है, कपड़े सहेजती हुई माँ को देखती है तो माँ..माँ..माँ कहते हुए.... पर माँ तो स्वयं सुध-बुध सी खो बैठी है तभी उसके कानों में छोटे बेटे के रोने का स्वर पड़ता है और वह भाग कर उसे गोद मे उठाती है, उसे चक्कर सा आ रहा है...सुरजीत...सुरजीत कहते हुए वह अचेतावस्था में चली जाती है।

सुबह पूरे परिवार के साथ वह सुरजीत को अंतिम विदाई देती है..! थोड़ा संभलते हुए वह माँ को गले से लगाकर सारा घर सम्हालने की कोशिश करती है। वक़्त बीतने के साथ वह शहर जाकर नोकरी करना चाहती है परंतु गांव का घर, जमीन का ख़्याल उसे रोकता है,अगर वह चली भी गयी तो कई ऐसे रिश्तेदार है जो उसकी जमीन पर नज़र जमाये बैठे है साथ ही माँ भी तो है, वह घर को छोड़कर कभी नही जाएंगी। इस घर में सुरजीत की बचपन की यादें है..!

इसलिए रतना गांव में ही रहने और घर को संभालने का फ़ैसला करती है।

"20 वर्ष हो गए सुरजीत की यादों से वह अब भी निकल नही पाई है, कभी बैठे-बैठे अनायास ही आँखों से निकलते आँसू उसकी गवाही देते।"

रतना के बड़े बेटे रणजीत की नोकरी लगने की खुशी में वह सारे गांव में लड्डू बटवाती है। अब घर में बहू आ जाये तो भी फुरसत में रहे। एक दिन गांव के स्कूल में प्रिंसिपल के घर से रिश्ता आता है। रतना पढ़ी-लिखी स्त्री है, बेटे रणजीत से कहती है-" बेटा जीवन बड़ा कीमती है, मैं चाहती हूँ कि ये फ़ैसला तुम स्वयं करो..अच्छे घर से रिश्ता आया है पर फ़ैसला सिर्फ तुम्हारा होगा"।

एक दिन रतना बेटे रणजीत संग मंदिर जाती है, सीढ़ियों से उतरते वक़्त उनकी मुलाकात प्रिंसिपल जी और उनकी बेटी सुमन से होती है...! सुमन का सरल स्वभाव रणजीत को आकर्षित करता है, और रणजीत माँ को सुमन के लिए बात करने को कहता है। एक दिन प्रिंसिपल जी के बुलावे पर रतना अपने बेटे रणजीत के साथ रिश्ते की बात करने जाती हैं।

रतना कहती है कि दोनों बच्चें अगर आपस में बात कर ले तो अच्छा है। प्रिंसिपल जी रतना के आधुनिक विचारों को सुनकर बड़े खुश व गर्वित हुए।

थोड़ी ही देर में सुमन व रणजीत आये और अपनी रजामंदी दी। दोनों परिवारो ने खुशी खुशी मुँह मीठा किया और विवाह की तैयारियों में जुट गए....रतना ने विवाह में सारी चीजें अपनी बहू सुमन की पसंद से बनवाई! सुमन भी बहुत खुश थी कि वो ऐसे परिवार में जा रही है जहां हर काम में उसकी रजामंदी को अग्रिम महत्वता दी जा रही है।

विवाह से कुछ दिन पहले रतना प्रिंसिपल जी से कहती हैं कि " आपने हमें अपनी बेटी देकर बहुत बड़ा उपकार किया है, मुझे और कुछ नही चाहिए।"

विवाह की लगभग सारी तैयारियां रतना द्वारा करवाई जाती है। विवाह सकुशल सम्पन्न होता है...रतना बड़ी धूम-धाम से घर में सुमन का स्वागत करती है, सुमन से कहती है-" ये घर तुम्हारा है, बेटा...….तुम मेरी बेटी हो और सुमन को गले से लगा लेती है!"

अब घर में पहले की तरह खुशियां लौट आयी थी। कुछ दिनों के लिए सुमन अपने घर माँ-पापा से मिलने आती है और वहां अपनी सास रतना की इतनी तारीफ़ करती है जिससे प्रिंसिपल जी भी बड़े खुश होते है। और जल्दी ही हँसती-मुस्कुराती सुमन ससुराल लौट आती है । रतना से कहती है-"माँ आपके बिना कहीं मन ही नही लगता मेरा!"

रतना कहते हुए- अच्छा! मेरे बिना या रणजीत के बिना...सुमन हँसने लगती है तभी रतना सुमन को दो टिकट्स देती है...ये क्या है, "माँ"? पूछती है...."ये केरल में सप्ताह भर के बुकिंग है, बेटा...जाओ जाकर घूम कर आओ! सुमन खुश होकर रतना के गले लग जाती है..!"

सुमन और रणजीत हफ़्तेभर के लिए घूमने जाते है। वहां जाकर सुमन एक अलग दुनिया देखती हैं और रणजीत के प्रेम में और जकड़ जाती है। कुछ दिनों बाद दोनों वापस लौटते हैं...घर में खुशियों की दीपावली सी लगी है...!

अचानक एक दिन रसोई घर में काम करते-करते सुमन को चक्कर से आने लगे और यह जमीन पर बैठ गयी। रतना ने सुमन को संभालते हुए जल्दी ही डॉक्टर को बुलाया इतने में रणजीत भी वहाँ आ गया। डॉक्टर ने चेकप के बाद कहा चिंता की कोई बात नही....घर में नन्हा मेहमान आने वाला है.....आप दादी बनने वाली हो...माँ सा! बधाई हो....बहुरानी और रणजीत आपको भी बधाई पापा बनने जा रहे हो...! रतना ने अपने दोनों बच्चों को गले से लगाकर चूमा....और सुमन से कहने लगी- बेटा आज से कुछ काम ना कर, बस अपना ध्यान रख और जो तेरा मन करें मुझे बताना मैं चाहती हूँ बस तू खुश रह, मेरी लाड़ो..!

पूरे नौ महीने रतना ने सुमन का बहुत ध्यान रखा एक दिन भोर के समय सुमन बोली- माँ मेरा जी घबरा रहा है, रतना ने जल्दी ही रणजीत को बुलाया और वे सुमन को लेकर अस्पताल गए। जब तक सुमन अंदर रही तब तक रतना भगवान से प्रार्थना करती रही और कुछ ही देर में नर्स ने आकर कहा- " मुबारक़ आपको जुड़वा बच्चें हुए है एक बेटा और एक बेटी ! रतना और रणजीत फूले नही समा रहे थे। दोनों बच्चों को देखकर रतना बड़े प्यार से सुमन के सर पर हाथ रखकर कहने लगी -" तुम ठीक हो न बेटा!" इतने में रणजीत ने आकर कहा- छुट्टी मिल गयी है, माँ डॉक्टर ने कहा कि अब घर जा सकते है।

रतना अपने परिवार के साथ घर आती है और एक माँ की तरह सुमन की देखभाल भी करती है...हालांकि प्रिंसिपल जी एक दिन सुमन से मिलने घर आये और सुमन की देखरेख को देखकर बड़े खुश हुए रतना से कहने लगे-" रतना जी बड़े उपकार आपके...सुमन को इतना खुश तो कभी मैं भी नही रख पाया, आप तो देवी है।" रतना ने कहा- "प्रिंसिपल जी सुमन मेरी बेटी है, बहू नही मेरे लिए तो रणजीत और सुमन दोनों ही बराबर है!" प्रिंसिपल जी खुशी- खुशी अपने घर लौट आये...रतना ने बहुत सारी मिठाई और तोहफ़े प्रिंसिपल जी के साथ भिजवाए...जब प्रिंसिपल जी घर पहुँचे तो आस-पास के लोग बड़े आश्चर्य से देखने लगे पर प्रिंसिपल जी बड़े खुश थे कि उनकी बेटी को वास्तव में घर मिला है, ससुराल नही!

एक दिन शुभ मुहूर्त देखकर बच्चों के नामकरण समारोह पर उनका नाम राहुल और दीप्ति रखा गया। आज दोनों बच्चें एक महीने के हो गए है। दो दिन बाद रणजीत भी नोकरी के लिए शहर जाएगा। रतना सारी तैयारियाँ करती है। रणजीत के जाने के बाद घर पर रतना अपनी बहू और बच्चों के साथ खुशी की जिंदगी जी रही है।

समय किताबी पन्नों की तरह पलटकर गुजर गया आज रणजीत अपने बेटे राहुल को हॉस्टल में छोड़ने जा रहा है, राहुल केंद्रीय विद्यालय का छात्र है...राहुल हॉस्टल में रहकर ही अपनी पढ़ाई कर रहा है, जाने की सारी तैयाईयाँ हो चुकी है....सुमन राहुल को दही चीनी खिलाती है, राहुल अपनी दादी और माँ का आशीर्वाद लेते हुए पिता रणजीत के साथ गाड़ी में बैठकर रवाना होता है..... काफ़ी दूर आने के बाद रणजीत और राहुल चाय पीने के लिए रूकते है, चाय पीकर फिर से अपने सफ़र की ओर चल पड़ते है....राहुल को छोड़कर रणजीत को वापस भी आना है। अब हॉस्टल कुछ ही दूर रह गया है, अचानक रणजीत को लगा कि उसका बेलेंस डगमगा रहा है और उसके दिमाग में बैचेनी और आँखों के आगे अँधेरा सा छाने लगा। इससे पहले की वो संभल पाए उसके अनियंत्रित होते आव-भाव से बाइक धड़ाम से जा गिरी! पिता- पुत्र दोनों को सामान्य चोट आई परन्तु राहुल ने बड़ी बहादुरी से पिता को संभालते हुए एम्बुलेंस को फ़ोन किया और एम्बुलेंस के आते ही पिता को लेकर अस्पताल में एडमिट कराया। रतना और सुमन भी वहां पहुँच चुके थे। सारी जांच होने पर पता चला कि रणजीत को ब्रेनहेमरेज हुआ है, हालत ज़्यादा ख़राब है...सारा परिवार सदमें में आ गया। जैसे-तैसे रात निकाली अगली सुबह होते ही डॉक्टरों की अफरा-तफ़री से रतना और सुमन का दिल बैठा सा जा रहा था। पर उनके पास इतंज़ार करने के सिवा कोई उपाय था ही नही....तभी डॉक्टर ने राहुल और सुमन को बुलाकर बताया कि रणजीत अब नही रहे...! सुमन का तो जैसे कलेजा सा निकल गया और वह जहां खड़ी थी, ठहर सी गयी....दिल पत्थर सा लग रहा था कुछ देर बाद कमरे से बाहर आयी तो देखा रतना इतंज़ार में खड़ी है," क्या हुआ बेटा सब ठीक है, ना रणजीत कैसा है और डॉक्टर ने क्या कहा" रतना सवाल पर सवाल कर रही थी सुमन ने बड़े ही धीरज से कहा- सब ठीक है, "माँ घर चलते है अब खतरे की कोई बात नही! तो फिर.... मतलब जब ठीक है तो रणजीत को अकेले कैसे छोड़ सकते है, रतना ने पूछा? उनको भी लेकर आ रहे है, माँ...जब तक हम सामान चेक कर ले और पेमेंट भी तो करना है ना "सुमन ने कहा!"

जल्दी-जल्दी में सारी तैयारियां की गई और सारा परिवार गांव के लिए रवाना हुआ। रास्ते में सुमन जैसे ही रतना के गले लगी रतना ने कहा- "हिम्मत से काम ले बेटी आगे पहाड़ सी जिंदगी है, तुझे अब बड़ा मज़बूत बनना होगा।"

सुमन दहाड़े मार के रोने लगी उसकी सिसकियां लगतार बढ़ रही थी। अचानक उसे याद आया कि माँ को कैसे पता और उसने रतना के मुँह की तरफ देखा वह एक टक खिड़की के बाहर देखते हुए सुमन के सर पर हाथ फेर रही थी। ये सब देखकर सुमन रतना के सीने से हटकर अपने आँसू पोछते हुए सीधी हुई और रास्ते भर माँ का हाथ पकड़कर बैठी रही। घर पहुँचते सारा गांव मानों सदमें में था। रस्मों- रिवाजों के साथ रणजीत का अंतिम संस्कार किया गया। रतना को अपने दिन याद आने लगे सुरजीत के जाने के बाद बड़ी हिम्म्मत से उसने स्वयं को संभाला था पर जवान बेटे का इस तरह जाना उसे अंदर तक तोड़ गया कई दिनों तक सुमन और रतना एक अलग दुनिया में चुप सी रही मानों कुछ कहने-सुनने को बाकी ही नही है। गुजरते वक़्त के साथ सुमन ने अब फिर से घर संभाल लिया है पर रतना एक मूर्ति से बैठी रहती है ना हँसती है, ना रोती है और ना ही कुछ बोलती है, आँखें बिल्कुल पत्थर सी हो गयी है..!

अब पोते राहुल की नोकरी लगी है। अच्छा है, घर थोड़ा संभल जाएगा। आज पहला दिन है माँ से आशीर्वाद लेकर वह दादी रतना का आशीर्वाद लेते हुए दरवाज़े की ओर बढ़ता है...राहुल को बाहर जाते देख अचानक रतना का हाथ ऊपर उठता है और सालों से पत्थर हुई आँखों से आँसू छलक जाते जाते है, मानों भीगी पलकों से कुछ कहना चाहती हो...!

   



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