पहली रेलयात्रा
पहली रेलयात्रा
अभी कुछ दिनों पूर्व मुझे रेलयात्रा का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तत्काल में तुरंत टिकट कन्फर्म हो गया। शयनयान में सीटें अच्छी थीं। पंखे भी चल रहे थे। लाइट भी जल रही थी। टॉयलेट में पानी भी आ रहा था और सबसे बड़ी बात कि वह सड़ांध भी नहीं मार रहा था। गाड़ी भी सही समय पर आ गयी थी। सीढियां चढने की आवश्यकता ही नहीं थी प्लेटफार्म पर। एस्केलेटर लगा हुआ था। प्लेटफार्म पर लगी हुई स्टॉल्स पर खाने पीने का सामान भी अच्छी गुणवत्ता का था। गाड़ी में कोई भीड़भाड़ भी नहीं थी। बल्कि आधी गाड़ी खाली थी।
मुझे अपनी पहली रेलयात्रा याद आ गयी। सन् 1972 की बात है जब मैं तीसरी चौथी कक्षा में पढ़ता था। हमें पास के ही शहर में जाना था। बरसात के दिन थे। सड़क मार्ग से बस से जाने पर रास्ते में बाणगंगा नदी पड़ती थी। उसमें पानी खूब बह रहा था। नदी पर पुल नहीं था केवल रपटा था। रपटे पर तीन चार फुट पानी था इसलिए बसें नहीं चल रही थी। हमारे गांव में रेलवे स्टेशन नहीं था। दूसरे गांव में था। हम लोग यानी कि मेरे बड़े भाईसाहब, भाभीजी, मैं और मेरी छोटी बहन पहले बस से मंडावर स्टेशन पहुंचे। सुबह सुबह का समय था। प्लेटफार्म पर गजब की भीड़ थी। भाईसाहब ने मेरा और भाभीजी ने बहन का हाथ कसकर पकड़ रखा था। रेल टिकट के लिए खिडक़ी पर भारी भीड़ थी। लंबी लाइन थी। महिलाओं की लाइन बहुत छोटी थी। भाईसाहब ने भाभी को महिलाओं की लाइन में लगने को कहा तो उन्होंने मना कर दिया। तब लंबा लंबा घूंघट रखती थीं औरतें। वे ज्यादा पढ़ी लिखी भी नहीं थीं इसलिए थोड़ी झिझकती भी थीं।
भाईसाहब ने कहा कि बस तुम लाइन में खड़े रहना बाकी हम कर लेंगे। वे मान गयीं और लाइन में खड़ी हो गयीं। जल्दी ही नंबर आ गया और भाईसाहब ने ढ़ाई टिकट ले लिया।
टिकट लेकर हम लोग वापस प्लेटफार्म पर आ गये। गंदगी का अंबार लगा था। पटरियों पर मल पड़ा हुआ था। बदबू के मारे बुरा हाल था। हम कुछ सोचते इससे पहले ही छुक छुक करती रेल आ गयी।
लोग टूट पड़े रेल पर। डब्बे में से यात्रियों के उतरने से पहले ही कुछ लोग डब्बे में चढ़ गये। बड़ी हालत खराब हो गई। अब ना कोई उतर सकता था और ना चढ़ सकता था। भाईसाहब दूसरे डिब्बे की ओर दौड़े। रेल के रुकने का टाइम केवल दो मिनट था। दूसरे डिब्बे में भी दरवाजे पर भीड़ थी। उन्होंने आव देखा ना ताव और मुझे उठाकर खिड़की खोलकर खिडक़ी में से सीट पर बैठा दिया। छोटी बहन को भी ऐसे ही अंदर पार्सल कर दिया। सूटकेस और थैला भी खिडक़ी में से ही अंदर कर दिया। उन दिनों खिड़की में लोहे की बार नहीं होती थी इसलिए हम बच्चों को खिडक़ी के रास्ते चढ़ाया और उतारा जा सकता था। खिड़की के सहारे ही सीट पर रूमाल रखकर रिजर्वेशन कर दिया गया।
गाड़ी ने सीटी दे दी। भाईसाहब ने भाभीजी को चढ़ाया और खुद भी चढ़ गये। जब तक वे हमारे सामने नहीं आये हम दोनों भाई बहन रोते रहे। उन्हें देखकर शांत हुए।
सीट तीन आदमियों के लिए होती है। मगर एक एक सीट पर पांच छ: लोग बैठे थे। ऊपर लगेज रखने के लिए जो बर्थ होती थी उस पर भी लोग चढ़ गये थे। हमें डर लगने लगा कि कहीं वह टूटकर नीचे ना आ पड़े। लेकिन ईश्वर का लाख लाख शुक्रिया कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। पंखे चल नहीं रहे थे। भाईसाहब ने पैन से जोर से पंखुड़ी घुमाई तब चलने लगा। एक बल्ब जल रहा था एक बंद था।
रेल चल पड़ी। कोयले से चलने वाली रेल थी वह। मीटर गेज लाइन थी। स्पीड बहुत कम थी। पैसेंजर ट्रेन थी। हर स्टेशन पर रुकती थी। जैसे ही स्पीड बढ़ती अगला स्टेशन आ जाता। कुछ लोग चैन पुलिंग कर गाड़ी रोक भी रहे थे।
लोग पकोड़े, जलेबी, चने , बिस्किट सब कुछ खा रहे थे और सारी गंदगी उसी डिब्बे में कर रहे थे जैसे कि वह डिब्बा कोई कचरा पात्र हो। मूंगफली के छिलकों से अट गया था डिब्बा। तंबाकू, गुटखा खाकर वहीं पर थूक भी रहे थे लोग।
टी टी आया। टिकट चैक करने लगा। कई लोगों ने टिकट नहीं लिया था। मेरा आधा टिकट लिया था। बहन का नहीं। टी टी कहने लगा कि मेरा पूरा लगेगा और बहन का आधा। चूंकि टिकट लिया नहीं इसलिए अब पैनल्टी लगेगी। भाईसाहब ने मोर्चा संभाला और अच्छी खासी बहस की। डिब्बे के सभी लोग हमारी तरफ हो गए थे। कहने लगे कि "छोटे बच्चों को क्यों परेशान कर रहे हो ? बहुत सारे लोगों ने टिकट नहीं लिया है। अगर दम है तो उन्हें पकडकर उनसे पैनल्टी वसूल करो"। जनता का मूड देखकर टी टी शांत हो गया।
हम दोनों भाई बहन सहमे हुये से चुपचाप बैठे रहे। इस डर से कि पता नहीं हमारा क्या होगा ? कुछ जगह सीट को लेकर झगड़ा भी हो रहा था। मुझे वाशरूम जाना था मगर मालूम चला कि वाशरूम में तो लोग ठुंसे पड़े हैं और वहां तक जाना बहुत कठिन काम है।
भाईसाहब ने मेरा हाफ पैंट नीचे किया और खिड़की पर खड़ा करके कह दिया कि अब कर ले। मैं शर्म के मारे कर ही नहीं पाया तब सब लोग हंस पड़े। मुझे हाफ पैंट वापस पहना दिया। इतने में हमारा स्टेशन आ गया। हमको खिड़की से ही बाहर भेज दिया गया। भाईसाहब और भाभीजी दरवाजे से उतरे।
पहली रेलयात्रा अविस्मरणीय थी जो आज तक जेहन में कैद है। इसके बाद और भी बहुत सी रेलयात्रा कीं। कुछ तो गेट पर लटक कर कीं और कुछ भीड़ में खड़े होकर। हर बार एक नया अनुभव होता था। बाद में जब हम कॉलेज में पढने लगे तब ताश की गड्डी साथ रखते थे। दूसरे यात्रियों के साथ खेलते थे। खाने पीने के सामान को अन्य यात्रियों के साथ शेयर करते थे। मगर बाद में लूटपाट की घटनाएं होने लगीं। जहरखुरानी के मामले होने लगे तब यह सामान शेयरिंग वाला किस्सा खत्म हो गया।
अब सोचता हूँ कि कितनी बदल गई है यह रेलयात्रा। अब कितनी सुखद हो गई जबकि पहले कितनी दुखद हुआ करती थी। कुलियों में गजब की लड़ाई देखने को मिलती थी। अब वो बात कहाँ। दो दो तीन तीन घंटे देर से चला करती थी ट्रेन। प्रचलन में कहने लगे थे "रेल टाइम" यानी कम से कम आधा घंटा लेट। मीटर गेज ब्रॉड गेज बन गए। इलैक्ट्रिक इंजन आ गए। प्लेटफार्म भी आधुनिक हो गए। डिब्बे भी सुविधाजनक हो गए। अब सब कुछ है मगर छुक छुक वाला आनंद नहीं है।
