पहली होली
पहली होली
“ ये सब कैसे ? इस महीने घरखर्च के लिए मैंने तुम्हें पैसे भी नहीं दिए ! फिर ,इतने इंतजामात कहाँ से ?” जिज्ञासावश मैंने राधा (पत्नी) से पूछा।
“हूँ...अच्छा, पहले आप इसे चखकर बताइए, कैसा बना है ?” राधा ने हलुए, पकौड़े और चटनी से भरा प्लेट मेरे आगे बढाते हुए कहा।
आखिर इतनी सारी सामग्री राधा कहाँ से लायी ? मिल में हड़ताल होने के चलते मुझे दो माह से तनख्वाह भी नहीं मिला है। ओफ्फ.. हड़ताल को भी अभी होली में ही होना था, सोचा था राधा को एक नई साड़ी लाकर दूंगा ! कहाँ से मजदूरों को बोनस मिलता, तनख्वाह भी नदारद !! मजदूरी करना, गुलामी करने से कम थोड़े ही है...! अंग्रेज चले गये, पर, गुलामी करवाना सीखा कर गये।
“अरेऽऽऽ..मिस्टर, कहाँ खो गये ? कुछ बताया नहीं।” मैं समझ गई, जरुर कुछ गडबड बना है।
“नही..नहीं..बहुत स्वादिष्ट है। पहले ये बताओ, तुम्हारे पास तो पैसे नहीं थे, आखिर तुम इतना सारा सामन कहाँ से लायी ?”
“अच्छा..तो अब हिसाब देना पड़ेगा।” सुनिए, “दादी ने मुझे बचपन में एक कहानी सुनाई थी, उसका सार था। ‘खुश रहने के लिए कभी भी पैसों को राह का रोड़ा न बनाने दें।’ मैंने वही किया, पिछवाड़े, अपने बारी से एक कद्दू तोड़कर लायी और उसी का हलुआ बना डाला, साथ में प्याज साग के पकौड़े और घर में पड़े खटाई की चटनी भी। थोड़े बचे हुए मैदे में पीसी हल्दी मिलाकर गुलाल बना ली।
आप परेशान क्यूँ हैं..आज न कल तनख्वाह तो मिलेगी ही। अपनी शादी की पहली होली है..क्यूँ फीका होने दूँ !! कहते हुए राधा ने कटोरे का सारा गुलाल मेरे ऊपर उड़ेल दिया।