फाँसी

फाँसी

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पिछले सात वर्षों से मैं कारावास में हूँ। यहाँ, आरंभ में मेरे द्वारा किये घृणास्पद अपराध की स्वीकारोक्ति के लिए मुझे मानसिक तथा शारीरिक रूप से अत्यंत प्रताड़ित किया गया था। मैं इसकी शिकायत नहीं करना चाहता क्योंकि मुझे याद है कि, किस तरह की निर्ममता, मैंने बेचारी, उस लड़की के साथ की थी। उसका स्मरण करते हुए अपने पर प्रताड़ना (torture) मुझे बहुत कम लगती थअपराध के स्वीकार कर लेने के बाद, यूँ तो ऐसे उत्पीड़नों का क्रम समाप्त हो गया था, मगर न्यायालयीन प्रक्रियाओं के लिए मुझे कई बार, अदालत ले जाया गया था।वहाँ उपलब्ध भीड़ की आँखों एवं भावभँगिमा में, मेरे प्रति जो घृणा और धिक्कार दिखाई देता था, उसे अनुभव कर मैं धरती में गड़ जाना चाहता था। किंतु ईश्वर से, मेरे विनती करने के बाद भी, धरती के फटने एवं उसमें मेरे समा जाने जैसा कोई चमत्कार नहीं हुआ था।

सात लंबे वर्षों से अपराधियों के बीच, कारावास में रहते हुए, मुझे उन अपराधियों के आँखों में भी तिरस्कार दिखाई देता था। क्यूँ न हो!, उनके किये अपराध न तो मेरे जितने निर्मम और घिनौने थे, न ही उन्होंने, जैसा मैंने किया, किसी के आगामी लंबे, शेष जीवन का यूँ अंत किया था।

मुझसे घृणा की अभिव्यक्ति में वे (अन्य कैदी), आते-जाते, सामने या पास आने पर तब-जब, मुझे थपड़या देते थे। उनकी ऐसी हरकतों को, मैं अपना अपमान नहीं कहूँगा। मुझे अपने मान का विचार होता तो मैं ऐसा नृशंस कृत्य, उस छोटी सी जान, लड़की के साथ नहीं करता मेरी तरह ही किसी की संतान, वह लड़की, मेरे समक्ष, अपने पर, जबर्दस्ती न करने के लिए एवं शारीरिक यातना नहीं देने के लिए, कितना ही नहीं गिड़गिड़ाई थी, तब, मुझ हैवान ने, उसकी कहाँ सुनी थी!, उसके साथ, मैं अपनी घृणित मनमानी पूरी करने के बाद ही तो रुका था। उस दुष्टता के बाद, पश्चाताप औचित्य विहीन ही थउस समय कामान्धता में नहीं समझ सका पर अब मुझे समझ आता था, मैंने कोई खिलौना तो तोड़ा नहीं था। किसी माँ-पिता की गोद उजाड़ दी थी। वह लड़की जीवित रहती तो, अपने जीवन में, नोबल पुरस्कार तक, हासिल करने योग्य कार्य भी कर सकती थी। मैं, अमानुस ने, अपनी कुछ मिनट की, कामवासना के दुष्प्रभाव में, ऐसी सारी संभावनाओं एवं उसके दीर्घ शेष जीवन का बेदर्दी से अंत कर दिया थपिछले सात वर्षों की अवधि में, जब-तब मुझ पर न्याय बोध हावी होता था, तब मैं अपने पर, निर्धारित फाँसी की सजा को न्यायोचित मानता था। इस के समानांतर मगर जीवन ललक, बड़ी विचित्र तरह से काम करती रही थी।यूँ तो यहाँ कारावास में ना तो भोजन ठीक था, ना ही रहने को कोई ढंग की सुविधा थी, साथ ही उपरोक्त में उल्लेख अनुसार, मुझ पर अपमान और तिरस्कार के परिवेश में मेरी तनिक भी ख़ुशी की परिस्थितियां नहीं थी, अर्थात जीवन के आकर्षण कुछ भी नहीं था, तब भी, अपनी मौत की कल्पना, मुझे भयाक्रांत कर देती थी, मैं मरने से डरने लगता था।

मुझे, फाँसी के वक़्त गर्दन की हड्डी कैसे टूटती है, उसका विचार डराया करता था। मैं सिहर जाता था, तब मुझे स्मरण हो जाता कि, मैंने किस हैवानियत से उस लड़की पर अत्याचार किये थे, चाकू से, उसकी अँतड़िया तक बाहर कर दी थमेरे प्राण तो फाँसी के फंदे पर झूलने से, एक झटके में निकल जायेंगे। जबकि मेरे द्वारा बुरी तरह से घायल की गई, उस लड़की ने कितने ही दिन, मौत से संघर्ष में भीषण विषम वेदना भोगी थी। उसके प्राण निश्चित ही किसी फाँसी की अपेक्षा, बहुत ज्यादा पीड़ा के बाद निकले थेमुझे तब, निष्पक्ष ख्याल यह आता कि, मुझे मिलने वाली फाँसी, मेरे अपराध अनुरूप, सख्त सजा नहीं है।

तब मुझे न्यायोचित यह लगता कि

"मैं किसी चौराहे पर किसी खंबे में बाँध दिया जाऊं, मेरे किये दुष्कृत्य का वहाँ उल्लेख स्पीकर द्वारा किया जाए और लोगों को अनुमति रहे कि वे जैसे चाहे वैसे मुझे मारें। मैं गिड़गिड़ाता रहूँ अपने दर्द से तड़फता रहूँ, तब भी कोई दया नहीं करे। लोग मुझे तब भी लातें-जूते मारें जबकि मेरे प्राण निकल चुके हों।अब तक, मेरे घिनौने अपराध से शर्मसार हुए मेरे पिता, माँ एवं पत्नी, मुझसे मिलने आ सकने का साहस नहीं जुटा सके थे। वे, अपराध के लगभग छह वर्ष पश्चात, मुझे मिलने वाली फाँसी की सजा की तिथि नियत हो जाने पर, मेरे प्रति उनके दुलार-प्यार एवं आसक्ति वश, अपनी शर्मींदगी को अलग रख, कारावास में मुझसे मिलने आये थे।

तब रो रो पड़ते हुए, तीनों मुझसे कहते थे - तुम्हारे बाद, हमारे जीवन में क्या बचा रह जाएगा! उनके रुदन से मुझे पिछले 7 वर्षों में उनकी भोगी, मानसिक यातनाओं का आभास मिला था।

"मैं अपनी माँ से हर जिद मनवा लिया करता, किसी से न कर सकूँ मगर उनसे हर शिकायत करता रहा था। आज मैं उनसे शिकायत करना चाहता था कि माँ मात्र पैदा करना तुम्हारा काम नहीं था। तुम्हारा कर्तव्य यह भी था कि शिक्षा-सँस्कार के अदृश्य बंधन से तुमने मुझे ऐसे बाँध दिया होता कि मेरे कर्म किसी की गरिमा या जीवन को क्षति करने वाले न होते।"

मगर उनके रुदन को देख यह नहीं कर सका था। मैं उन्हें और वेदना नहीं देना चाहता था।

मुझे लगा था -

"मैं फिर कायर के तरह सोच रहा हूँ। अपराध के समय मेरी उम्र 24 हो चुकी थी, तब मैं अबोध नहीं रहा था। मुझे प्राप्त विवेक बुध्दि में उचित-अनुचित का भेद स्वयं होना चाहिए था, मुझे किसी माँ-पिता के लाड़-दुलारी पर यों नृशंसता नहीं करने से स्वयं को रोकना चाहिए था। अपने बुरे काम का आरोप माँ-पिता पर रख देना मेरी कायरता ही होगी।"

मेरे इस विचार ने भी मुझे रोका था।

मुझे तब बोध भी हुआ था कि

"मेरे किये हुये घिनौने नृशंस अपराध का दंड, मुझसे ज्यादा मेरे माँ-पिता और पत्नी भुगत रहे थे। अधमरे से हुए ये तीनों, इनका जीना, मर जाने से, कोई ज्यादा अच्छा नहीं था। फिर भी इन्हें जीना था, जबकि आशंकित फाँसी, मुझे मानसिक यातनाओं से निजात दिला देने वाली थी।"

उनके रुदन ने मुझे, कानूनी पैतरों वाले कागजात पर, हस्ताक्षर करने को बाध्य किया था, जिसमें मुझे फाँसी नहीं दिए जाने लिए कई तर्क उल्लेखित थे। फिर वे चले गए थे।

उनके जाने के बाद, एकांत में, उस अपराध पीड़िता, लड़की के माँ-पिता और भाई आदि की मानसिक यंत्रणाओं का भी मुझे अनुभव हुआ था, जिनकी लाड़ दुलारी,सलोनी वह बेटी, मेरी निर्ममता से अकाल चली गई थी। मैं रीअलाइज़ कर सका कि"मुझ अपराधी बेटे की मौत की आशंका ही जब मेरे माँ-पिता को भीषण दुःखदाई है, तब उनकी क्या हालत है जिनकी निर्दोष मासूम बेटी पर पहले मैंने दुराचार किया था और फिर अत्यंत वेदनादाई मौत को विवश किया था। "

# क्या, वे मेरे परिजनों से कम बुरी हालत में होंगे!

# मुझे दया आई थी, अपनी माँ पर, जिसकी कोख से जन्म लेकर, मैंने उसे कलंकित किया था।

#मुझे दया आई थी, उस ममता पर, जो स्वयं अधमरी/लाचार होकर भी मेरे जैसे अयोग्य बेटे के (भले ही कारावास में हो) जीवन की कामना करती थी।

फिर मेरी फाँसी की तिथि तय हो गई थी।

और आज, मैं फाँसी पर लटकाया जा रहा था।

"मेरे सिर पर पहनाया कपड़ा और फंदा उसी भाँति था, जिसे हमारे स्वतंत्रता के दीवाने, शहीद भगतसिंग ने पहना था।"अंतर बस इतना था कि -उनके ,ऐसे फंदे पर झूल जाने पर, पूरा देश और मानवता, फफक फफक के रोये थे।

और मेरे लटकने पर देश में खुशियों की तरंग बहने वाली थी। मानवता पुष्ट होने वाली थी।

मैं रो रहा था, फिर भी मुझे, अपने किये की सजा कम लग रही थी। फिर मुझे याद नहीं रहा था।

माटी में मिलकर भी माटी पर लगाया मेरा कलंक शायद कई काल तक बने रहने वाला था।

लेखक ने अंत में लिखा था- "हर किसी को जीवन जीने का प्रकृति प्रदत्त अधिकार है, किसी के द्वारा किसी भी कारण या तर्क से वह अधिकार छीनना भीषण दुखदाई है। हमारी मानव सभ्यता को अभी उस मंजिल तक पहुँचना है, जहाँ हरेक मनुष्य प्रकृति का आदर करते हुए किसी के जीवन के हक में अपना कोई हस्तक्षेप नहीं करता हो। जहाँ जीवन प्रवाह किसी भी अंधविश्वास या कानूनी नियंत्रण से अस्तित्व नहीं बनाये रखता, अपितु प्रत्येक मनुष्य की विवेक-बुध्दि ही उसके स्वयं के प्रयत्नों से अन्य को जीवन सुलभ करने में सहायक होती है।"


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