Savita Negi

Inspirational

4.0  

Savita Negi

Inspirational

पैराडाइस लॉस्ट

पैराडाइस लॉस्ट

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"तुम लोग क्या झुंड लगाकर पेड़ के नीचे खड़े हो , उधर देखो "पैराडाइस लॉस्ट " हम सबका सर्च वॉरंट लेकर घूम रही है।"

"ओ हत तेरी की.....भागो ये तो इधर ही आ रही हैं।"


"रुको यार!! देख लिया उन्होंने ।"


सरोज मैम, उम्र पचपन के आस -पास रही होगी। कद पांच फुट को भी नहीं छू पाया था । स्त्री का प्रकृति प्रदत्त शौक "साज़ श्रृंगार" भी नदारत था । सैंडल के दर्शन कराती हुई ऊँची बंधी हल्के रंग की कॉटन की साड़ी वो भी बेतरतीबी से लपेटी हुई रहती। पल्लू लगाने में भी मेहनत नहीं दिखती थी बस हाथों से पल्लू को दबा कर कंधों के भरोसे छोड़ा हुआ रहता। उम्र के इस पड़ाव में बालों की खासी दुश्मनी हो जाती है सर से ,उनके भी आधे से ज़्यादा बाल अपनी जड़ों को त्याग कर जा चुके थे। बचे हुए बालों ने भी सफ़ेदी का आवरण ओढ़ लिया था।

चौड़ी पाटी में भरा हुआ सुर्ख लाल सिंदूर और ललाट पे बड़ी सी लाल बिंदी उन्हें एक भारतीय नारी के रूप में दर्शाती थी।


चश्में के अंदर से दो घूरती हुई आँखें सीधा प्रज्ञा पर जा टिकी। " तुम लोगों को लाइब्रेरी जाने के लिए फ्री किया गया था न कि पेड़ की ओट में गप्पे लड़ाने के लिए। तुम लोंगो की फालतू की बातें खत्म नहीं होतीं क्या ? कीमती समय यूँ बर्बाद न करो , प्रज्ञा सुन रही हो!! इतनी सारी किताबें हैं कोर्स में कैसे कम्पलीट करोगे ? ये फाइनल ईयर है तुम लोगों का समझी।".....कहते हुए सरोज मैम स्टाफ रूम की तरफ चली गयी।


" चार महीने से एक ही किताब "पैराडाइस लॉस्ट" को पढ़ा पढ़ा कर पका दिया, पहले खुद तो आगे बढे।"

उस वक़्त हम सभी मन में यही सोच रहे थे।


सरोज मैम, अंग्रेजी साहित्य की हेड ऑफ द डिपार्टमेंट थी।

कुल मिलाकर दस लड़कियाँ ही थी अंग्रेजी साहित्य में एम ए करने वाली । उनमें से एक मैं भी थी और प्रज्ञा मेरी बेस्ट फ्रेंड । कम थे इसलिए सरोज मैम एक- एक लड़की को बहुत अच्छे से जानती थी। कैंपस के किसी भी कोने में बैठे हों सरोज मैम की आँखें वहाँ तक पहुँच ही जाती थी। न चाहते हुए भी सभी को क्लास अटेंड करनी पड़ती थी। प्रज्ञा सबसे किनारे वाली सीट लेती थी ताकि मैम की घूरती आँखों से सीधा संपर्क न हो सके।


कॉलेज की कैंटीन से आती समोसों की खुशबू अक्सर प्रज्ञा और हम सभी को क्लास बंक करने पर मजबूर कर देती थी। दूसरी तरफ सरोज मैम कम नहीं थी हमको खोजते हुए वो भी कैंटीन तक पहुँच जाती थी।


"हमें तो समोसों की खुशबू यहाँ खींच लाती है और मैम को हमारी खुशबू।"... प्रज्ञा ने कहा तो हम सब जल्दी से समोसा मुँह में ठूसने लगते।


"चलो पैराडाइस लॉस्ट पढ़ने ,इसको पढ़ -पढ़ कर दिमाग ही लॉस्ट हो गया।"


और सरोज मैम एक बार फ़िर ,शुरू से शुरू करती और पोएट्री पढ़ाने में खो जाती। बिना किताब में नज़र डालें ही सभी को किताब रट गयी थी।

पढ़ाते- पढ़ाते मैम की नज़र अक्सर प्रज्ञा के ऊपर जा टिकती। मजबूरी में प्रज्ञा को ऐसे हाव -भाव बनाने पढ़ते जैसे उसे पढ़ने में बहुत आनंद आ रहा हो लेकिन प्रज्ञा सीख गई थी खुली आँखों से सोना और जैसे ही मैम पूछती "बताओ प्रज्ञा कहाँ पर हूँ मैं?"

प्रज्ञा का दिल ज़ोर से धडकने लग जाता और किताब में नज़र गड़ा कर खोजने लगती की क्या बताऊँ क्या पढ़ा रही थी।

" ध्यान नहीं था तुम्हारा क्या बताओगी? पिछले दस मिनट से तुमने पेज ही नहीं पलटा।.......कब गंभीरता से लोगी तुम पढ़ाई को!! बहुत चंचल हो अभी भी और ये जो तुम रोज आँखों के ऊपर काली लाइन (आई लाइनर) खिंचती हो और यूनिफार्म की मैचिंग की नीली बिंदी माथे पर चिपकाती हो ,इससे जिंदगी नहीं बनेगी , पढ़ाई से बनेगी समझी।"


कहीं न कहीं मैम की टोका टाकी , घूरती आँखें प्रज्ञा को खटकती थी। क्लास के अलावा भी प्रज्ञा को सरोज मैम कहीं दिख जाये तो प्रज्ञा नजरें चुरा कर चुपचाप निकल जाती थी।

"खडूस कहीं की , खुद तो शायद कभी मेकअप किया हो हमारे मेकअप से भी चिढ़ती हैं। हमेशा गुस्से में दिखती है कभी हँसती भी होगी?..अक्सर प्रज्ञा अपने मन की भड़ास ऐसे ही निकालती थी ।

समय बिता और फाइनल एग्जाम का समय आ गया। उस साल वायवा भी होना था, जिसको लेकर प्रज्ञा समेत हम सभी डरे हुए थे । बाहर से आएगी मैम, न जानें क्या पूछेगी? इतनी सारी बुक्स है सिलेबस में । सुना है बहुत सख्त हैं जो वायवा लेने आ रही है।" इस तरह की चर्चा चलती रहती थी।


प्रज्ञा के मन में अगल ही भय था कि कहीं सरोज मैम चिड़ के मारे उसे फेल न करा दे ।


वायवा के दिन मूसलाधार बारिश थी। प्रज्ञा को छोड़कर हम सभी लड़कियां कॉलेज पहुँच चुकी थी। तभी सरोज मैम आई और पूछने लगी....


"प्रज्ञा कहाँ है?...उफ़्फ़ !!!ये लापरवाह लड़की ... आई क्यों नहीं अभी तक? किसी को पता हो तो बताओ । उस दौर में फ़ोन नहीं थे। किसी तक तुरंत संदेश पहुँचाना बहुत ही मुश्किल काम था।

किसी को नहीं पता था। सभी खुसुर -फुसुर करने लग गए कि अब प्रज्ञा का क्या होगा?


उधर प्रज्ञा घर में पूजा करने बैठी थी और जोर- जोर से घण्टी बजा रही थी, विशेष पूजा भी थी उस दिन..वायवा में पास कराने का अब ये ही सहारा था।


तभी तेज बारिश में कोई लड़का गेट को जोर -जोर से पीटने लगा और प्रज्ञा प्रज्ञा चिल्लाने लगा।

वो भीगा हुआ, हाँफता हुआ बोलने लगा...


"तुम्हारा वायवा शुरू हो गया , जल्दी कॉलेज पहुँचो।"


ये सुनते ही उसके घर मे दहशत फैल गयी।


"क्या घण्टी बजा रही है, उधर तेरा वायवा शुरू हो गया। तुझे पता नहीं था क्या?"... प्रज्ञा की माँ ने कहा।


प्रज्ञा ने घबराहट में घण्टी एक तरफ फेंकी और वायवा का समय देखने भागी। उसे तब याद आया दो दिन पहले ही मैम ने समय बदलवाया था। पहले दिन की शिफ्ट में था बाद में सुबह की शिफ्ट में हो गया था।

उसका गला सूख गया था। आवाज़ नहीं निकल रही थी। पाँच, छ किलोमीटर दूर कॉलेज था। कोई उसके कपड़े प्रेस कर रहा था तो कोई उसका बैग लगा रहा था। पापा उसके पीछे -पीछे भागकर समझा रहे थे डरना मत , चुप मत रहना जो आएगा बोल देना। "


रोते हुए प्रज्ञा...

" क्या बोलूंगी , पहले ही कुछ नही आता था अब घबराहट में जो याद था वो भी भूल गयी।"


सब ने मिलकर उसे तैयार कर दिया । उसके साथ पूरा परिवार भी डरा हुआ था। सब उसको पोर्च तक लाये जैसे उसे जंग में भेज रहे हो।


बड़े भाई ने बहुत ही फुर्ती से कार का दरवाजा खोला और गाड़ी स्टार्ट की। कॉलेज पहुँचते ही प्रज्ञा वायवा रूम की तरफ दौड़ रही थी। सुनसान कॉरिडोर में उसकी सैंडल की थपड- थपड और तेज साँसों की आवाज़ ही गूँज रही थी।


प्रज्ञा अचानक सरोज मैम को कॉरिडोर में टेंशन में टहलते देख ठिठक गयी।


"ओह्ह! आ गई तुम .....चलो जल्दी..कहते हुए सरोज मैम प्रज्ञा का हाथ पकड़ कर उसके साथ दौड़ने लगी। उम्र भी थी, सांस भी फूल रही थी फिर भी प्रज्ञा के वायवा की चिंता उनके चेहरे में स्पष्ट झलक रही थी।

बीच मे रुक- रुक कर अपने हाथों से प्रज्ञा के बिखरे बालों को ठीक किया ,अपने पल्लू से उसके चेहरे में पड़ी बारिश की बूंदों को पोंछते हुए कहने लगी..


"थोड़ा बाल सही करो, दुपट्टा सही करो और चेहरे में कॉन्फिडेंस लाओ।"


"मैम , कुछ नहीं आता "


"सब हो जाएगा डरो नहीं।"


सरोज मैम के अंदर जाते ही प्रज्ञा को बुला लिया गया।

उस वक़्त उसे ऐसा लग रहा था मानो आई ए एस का इंटरव्यू दे रही हो। दिल की धड़कन बेकाबू थी माथे पे पसीना ।

"रिलैक्स! " वायवा लेने आई मैम ने कहा।

"टेल मी अबाउट योर फ़ेवरिट बुक एंड व्हाट इम्प्रेस्सेड यू मोस्ट इन दिस बुक?.....पहला प्रश्न, जिसे सुनकर प्रज्ञा की नजरें सीधा सरोज मैम पर पड़ी जिनके चेहरे में उस वक़्त संतुष्टि के भाव मुस्कान के रूप में उभर रहे थे।


" पैराडाइस लॉस्ट"...प्रज्ञा का जवाब। फिर मैम उसी बुक से सब कुछ पूछने लगी।

और प्रज्ञा भी रुकी नहीं। बोल उसकी जुबान रही थी परंतु इसका ज्ञान सरोज मैम के द्वारा ही मिला था ।


" वेल डन"

ये शब्द सुनकर प्रज्ञा को यकीन नहीं हो रहा था की उसका वायवा इतना अच्छा हुआ और वो खुशी से रोते हुए वायवा रूम से बाहर निकली।


वायवा समाप्त होने के पश्चात प्रज्ञा दीवार की ओट से सरोज मैम के निकलने का इंतजार करने लगी। जिस मैम से वो हमेशा नजरें चुराती थी, उनको खडूस बोलती थी आज उनका मातृत्व से भरा चिंतित रूप भी देखा था । घर मे बुलाने के लिए जो लड़का आया था वो कैंटीन में काम करता था उसको भी सरोज मैम ने ऑटो के पैसे देकर जल्दी से प्रज्ञा के घर भेजा था।


एक तरफ अभिभावक तो दूसरी तरफ शिक्षक , इन दो मज़बूत स्तंभों के बीच में गढ़ता है बच्चे का भविष्य।


उनके आते ही प्रज्ञा ने उनका हाथ पकड़ लिया बाकी सब कुछ आँखों से गिरते आँसुओं ने कह दिया। प्रज्ञा के जीवन का ये वो लम्हा था जिसमें अपार खुशियों के साथ उपयोगी सीख छुपी थी न सिर्फ़ उसके लिए बल्कि हम सब के लिए। 


समय का सदुपयोग, किसी की अच्छी बात को ध्यान से सुनना, किसी भी काम में लापरवाही नहीं ..ये सब सीख उनसे लेकर प्रज्ञा जीवन पथ पर आगे बढ़ती चली गई । आज प्रज्ञा स्वयं अंग्रेजी साहित्य की व्याख्याता है। और अब पैराडाइस लॉस्ट न सिर्फ उसकी बल्कि हम सब की पसंदीदा किताबों में से एक है जिसमें समाहित है सरोज मैम की खूबसूरत यादों के वो खूबसूरत पल।


धन्यवाद।



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