पापा मेरी ज़िम्मेदारी
पापा मेरी ज़िम्मेदारी
कब तक पापा के कंधो पर चढ़ी रहोगी पापा थक गए होंगे चलो चल कर पढ़ाई करो। मम्मी की ज़ोर से आवाज़ आयी मैं जहाँ थी वही की वही रुक गई।
पापा पलटे और मम्मी को धीरे से डांट लगाते हुए बोले
"क्या करती हो मेरी बेटी को डरा दिया चली जाएगी पढ़ने अभी तो मेरे पास आयी है।"
पापा मम्मी मुझे बहुत प्यार करते थे मैं उनकी इकलौती संतान थी, सबने कहा बेटा होना चाहिए पर पापा ने चुप रह कर ही सबको समझा दिया की जो कुछ भी है वो यही है दादी तो बहुत नाराज़ हुई पर पापा ने एक ने मानी फिर धीरे धीरे वो भी चुप हो गई।
मैं सब के सिर चढ़ी सब काम अपनी मर्ज़ी के करती थी पापा की बस एक ही हिदायत थी पढ़ाई में कोई लापरवाही नहीं वो मैं मन लगा कर करती थी बारहवीं में बहुत अच्छे नंबरों से पास हुई। सब बहुत खुश थे मैंने इंजिनियर बनने के फरमान जाहिर कर दिया दादी, चाचा, चाची फिर शुरू "क्या करना है इतनी महँगी पढ़ाई कराने की क्या जरूरत है के कल को शादी के लिये भी तो पैसा चाहिए जब पैसा कमाने के लायक होंगी तो ससुराल चली जाएगी कौन से यहाँ के लिये कुछ करेगी।"
पापा खड़े हुए और बोले इस को जो करना है ये वो करेगी मैं इस के साथ हूँ _जब मैं अपनी बेटी को इस लायक बनाऊंगा की वो दस लोगो को पाल सके तो मुझे कोई जरूरत नहीं है उसकी शादी में किसी को पैसे भर के देने की। मैं अपनी पढ़ाई करने बाहर चली गई घर से काफ़ी दूर थी, घर आना कम ही होता था। फ़ोन पर रोज़ बात हो जाया करती थी, पढ़ाई पूरी कर के अच्छी नौकरी लग गई और मैं उसमे ही बिजी रहने लगी थी। साथ में नौकरी करने वाले सुमित ने एक दिन मुझे शादी के लिए पूछा माँ और पिताजी की रजामंदी से हमने शादी कर ली।
फिर कुछ समय बाद रात को दो बजे माँ का फ़ोन आया वो लगातार रोये जा रही थी पिताजी को हार्ट अटैक आया था वो हॉस्पिटल में थे, मैं फटाफट फ्लाइट लेके वहाँ पहुंची और माँ को संभाला। धीरे धीरे पापा ठीक होने लगे मुझे महीना भर हो गया था यहाँ आये, सुमित बार बार मुझे वापिस आने के लिए कहते थे पर पापा की हालत अभी ठीक नही थी, फिर माँ भी अकेली थी। पैसे की भी पेरशानी थी पापा ने अपने बुढ़ापे के लिये कुछ बचाया ही नहीं था सब मेरी पढ़ाई और परवरिश पर लगा दिया था। मैं उनको इस हाल में छोड़ कर जाने की सोच भी नहीं सकती थी। इतनी छुट्टी होने के कारण मेरी नौकरी छूट गई सुमित बहुत नाराज़ हुए पर मुझे उसका कोई अफ़सोस नहीं वो अभी भी मुझसे बार बार वापिस आने के लिये ही कहे जा रहे थे, मैं उनको सारी परिस्थिति बता चुकी थी फिर भी वो एक ही बात पर अड़े हुए थे।
माँ हमारी ये नोक झोंक देख कर बड़ी परेशान थी बार बार मुझे कहती चली जायो मैं हूँ यहाँ पापा की सेवा करने के लिए, सेवा तो वो कर लगी पर इतना ख़र्चा जो हो रहा है वो कहाँ से आएगा। मैं वापिस सुमित के पास आ गई पर मेरा दिल वही अटका हुए था नौकरी मिलना मेरे लिये कोई मुश्किल नहीं था पर बात तो पापा की थी मैंने सुमित को कहा की, माँ पापा को यहाँ ले आते है पर उसने साफ मना कर दिया उन्होंने मुझे दिया ही क्या है शादी में जो तुम पागलों की तरह उनपर पैसा ख़र्च कर रही हो। मैं सारा दिन रोती रही अगर मेरे पापा अपना सब कुछ मेरे ऊपर ख़र्च कर सकते है तो क्या मैं उनके लिये आज कुछ भी नहीं कर सकती। तभी मुझे अपने पापा की वो बात याद आयी की "मैं अपनी बेटी को इस लायक बनाऊंगा की वो दस लोगो को पाल सकेगी।"
मुझे जो करना था वो मुझे समझ आ चुका था, मैंने सुमित के वापिस आने के इंतजार करना भी ज़रुरी नहीं समझा फटाफट फ्लाइट पकड़ी और पापा के पास आ गई। माँ मेरा चेहरा देख कर ही समझ गई की कुछ तो हुआ है।
सुमित के फोन आते रहे की "तुम ये सही नहीं कर रही हो, पर मैंने उसको कह दिया मेरे लिए सबसे पहले मेरे माँ बाप है जब मेरे पापा ने मेरी ख़ुशी के आगे किसकी नहीं सुनी तो आज मैं उनके सामने किसी को नहीं देखूँगी, मैं वोही करुँगी जो मुझे आज करना चाहिए।