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Kedar Nath Shabd Masiha

Abstract

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Kedar Nath Shabd Masiha

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पागल हेड क्लर्क

पागल हेड क्लर्क

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उन दिनों गाँव भर में इस बात से हड्कंप मच गया था कि होती राम हेडक्लर्क पागल हो गया है रिटायर होने के बाद। और होता भी क्यों नहीं , बात ही पागलपन की कर रहा था।

न जाने कौन नामुराद उसे कोई किताब दे गया था। उसे पढ़ने के बाद अकेला ही जुट गया था साठ साल का पट्ठा नींव खोदने के लिए। वैसे गाँव के मुखिया के पास भी गया था अपनी फरियाद ले के। होती राम ने कहा था - "मुखिया जी! शासन की मदद का इंतज़ार बहुत कर लिया। मेरी मदद करो। मैं पैसा लगा के स्कूल बनाऊँगा ...बस कुछ लोग मेरे साथ कर दो।"

तिस पर मुखिया ने उसकी खिल्ली उड़ाई थी ,"

ये देखो ससुर ...हेडक्लर्क का बन गए हेड ही फिर गया है। खुद को सरकार से बड़ा समझते हैं ...सामाजिक काम करेंगे ...भैया इनको प्रणाम करो और विदा करो। खाल खींचनेवाले अब स्कूल बनाएँगे। "

सब लोग खूब हँसे थे होतीराम के ऊपर और होतीराम का गुस्सा उतरा जमीन पर। लेकर कुदाल और फावड़ा भिड़ गया था कठोर जमीन से। जब तक नौकरी की , उसने जमीन की सुध न ली थी।

नौकरी से पालन पोषण हो जाता था घर का।

मगर जब रिटायरमेंट के पैसे भी घर में बेटों को देने से माना कर दिया तब तो ऐसा बवाल कटा कि बेटे ही बाप के दुश्मन हो गए। पागलपन में चालीस साल तक साथ रही पत्नी ने भी बेटे का दामन थाम लिया। अकेला रह गया होतीराम। मगर हार नहीं मानी। कहता था कि ज़िंदा ताजमहल बना के जाऊंगा।

न जाने कहाँ से तीन चार बेलदार पकड़ लाया था। अपनी झोंपड़ी के बगल में उनका ठिकाना कर दिया था। खुद काम भी करता और उनके लिए खाना भी बनाता। ये चार बेलदार अब उसका परिवार बन गए थे।

जो लोग अभी तक होतीलाल को पागल समझ रहे थे , अब वे स्कूल की ऊंची होती दीवार से छोटे होते जा रहे थे। कर तो कुछ सकते नहीं थे। जमीन होतीलाल की थी और पैसा भी होतीलाल का था। सबसे ज्यादा परेशान था कोई तो मुखिया था। उसने स्कूल के लिए अर्जी लगाकर दो बार चुनाव जीता था और उसका ये मुद्दा भी पागल ने हथिया लिया था।

शहर के कालेज से कुछ लड़कों को न जाने कैसे फुसलाकर होतीलाल ले आया था छत डलने के समय। कोई ताऊ कहता था, कोई अंकल तो कोई चाचा। सरिये काट-काट के जाल बनाए गए। पाइपें लाई गईं। हर सुविधा के हिसाब से लड़कों ने अपनी सारी इंजीनीयरिंग जैसे यहीं घुसेड़ दी थी। शहर से बड़ी गाड़ी बुलाई गई मिक्सर मसाले की और लेंटर वाला स्कूल बन गया। लड़कों ने तो ऐसे समझाया था कि जैसे वो ही यहाँ के सब कुछ हों। दो हफ्ते तक होतीराम का स्कूल और झोंपड़ी ठहाकों से गूँजते रहे। बच्चे अपने कालेज वापिस चले गए।

शनिवार -इतवार को कुछ बच्चे फिर आ धमके और तोड़ने लगे दीवारें ताकि बिजली की फिटिंग हो सके। इस बार मुखिया खुश था। उसे लग रहा था कि बिजली क्नेकशन के लिए तो मुझसे से ही सही कराने आयेगा होतीराम। मगर लड़के क्या थे पूरे शैतान के बाप थे। दो काले-काले पैनल ले आए थे और दो तीन बैटरियाँ। सुसरों ने पूरे स्कूल को जगमगा दिया था अमावस की रात में। कहते थे कि कभी बत्ती गुल नहीं होगी स्कूल की। सूरज की रौशनी से बिजलीबनाने का जुगाड़ कर दिया था। मुखिया के सीने पर तो साँप नहीं अजगर लोट गए थे।

पलस्तर हुआ फिर रंग रोगन हुआ और चारदीवारी तक बन गई। पुताई भी खुद कर ली पट्ठों ने। हर कमरे में पंखा , ट्यूब लाइट और अनाप-शनाप से कलेंडर भी लटका दिये गए। होतीराम ने अपने लिए बस एक कुटिया बराबर घर बनाया था। कहता था कि सोने को ही तो जगह चाहिए। इतना सनकी हो गया था कि दीवार के बगल में पेड़ों के पौधे भी रोप दिये थे और क्यारियाँ बनाकर फूल लगा दिये थे। दूर से ही सुंदर लगने लगा था ये नया स्कूल।

मुखिया को लगता था कि स्कूल का उदघाटन तो करेगा। उसका मान बढ़ जाएगा। मगर ये क्या ...... इस होतीराम शातिर ने तो शिक्षा अधिकारी को बुला भेजा था उदघाटन के लिए। स्कूल को झंडियों से सजाया गया था। मगर बच्चे कम थे और उनकी जगह यहाँ तो औरतें बैठी थीं। न जाने मूरख आसपास के सब गांवों की औरतों को कैसे बहला के घेर लाया था।

शिक्षा अधिकारी ने फीता काट के उदघाटन कर दिया था। माइक हाथ में पकड़े हुए वे बोले -

"भाइयो और बहिनो ! शुरू में मैं भी श्री होतीराम जी को पागल ही समझ बैठा था। मुझे नहीं लगता था कि कोई अकेला आदमी अपना पैसा लगा के स्कूल भी खोल सकता है। मगर इन्होने मुझे गलत साबित कर दिया है। शासन में इस गाँव के लिए स्कूल की फाइल कई साल से लंबित थी , पैसा ही नहीं मिलता था। मगर मैं नमन करता हूँ इनकी पागलपंती को और इनके जज्बे को।इन्होने न सिर्फ ये स्कूल बनाया बल्कि शहर के पढे-लिखे नौजवानों को बहुत कम मेहनताने पर अपने स्कूल का मास्टर भी चुना है। वैसे तो बहुत कुछ बताया है इन्होने मगर मैं चाहता हूँ कि होतीलाल अपने विचार खुद प्रकट करें। "

सब लोगों ने जोरदार तालियों से स्वागत किया होतीलाल का। वह अपनी जगह से उठा और माइक पकड़ के बोला -

"सबको नमस्ते ! हम तो पागल हेडक्लर्क हैं बस। न हमको हमारे बच्चे समझे और न चालीस साल साथ रही बीबी। साठ के हो गए थे और जब रिटायर हो रहे थे तब एक सज्जन से हमारी बात हुई शिक्षा की जरूरत को लेकर। हमारा बाप खाल निकालने का काम करता था। हम कैसे भी कर के वो दस पैसा वाले स्कूल में पढे। फिर दसवीं पास की और जूनियर क्लर्क भर्ती हो गए सरकारी कोटे से। ज़िंदगी गुजार दी घर बनाने, बच्चे पालने में , पर जब रिटायर होने लगे तब अहसास हुआ कि हमने क्या दिया ? और तब इस किताब ने हमारी ज़िंदगी बदल दिया। हम ज़िंदा ताजमहल बनाना चाहते थे ताकि गरीबी , अशिक्षा , भेदभाव और मजबूरी की कब्र बना सकें। ताजमहल सिर्फ खूबसूरत नहीं है , प्यार की निशानी है और ये स्कूल ज़िंदगी से प्यार की निशानी है। हम हिसाब के बहुत पक्के हैं , सरकार का बजट साठ लाख का था स्कूल बनाने का। हमने ये काम सिर्फ बीस लाख में किया है। कंप्यूटर भी लाये हैं। नए तरीके से पढ़ाने का इंतजाम किया है। बच्चों के लिए स्कूल के दरवाजे खोल रहे हैं मगर शर्त यही है कि हर बच्चे की माँ भी पढ़ेगी साथ में। एक माँ पढ़ेगी तो बच्चे पीछे नहीं रह सकते, एक बच्ची पढ़ेगी तो भविष्य की माँ बनेगी पढ़ी-लिखी। आदमी नहीं ...औरत घर की कीली होती है। सब कुछ वो ही सम्हालती है। इसलिए मैंने ये फैसला लिया है। मुझे सरकारी मदद का इंतज़ार करते हुए मरना नहीं था बल्कि समाज को लौटाना था। मेरी जगह यहाँ के चौकीदार की है ...मैं मालिक नहीं हूँ और मेरे जैसा एक पागल और भी आने वाला है .... आप भले मानस अगर ये पागलपन पहले से कर लेते तो ये गाँव आज लाचार नहीं होता। आप सदियों से मंदिरों को दान देते रहे , ये सोच के कि परलोक सुधर जाएगा, मगर याद रखो ...ये लोक नहीं सुधरा तो परलोक किसने देखा है। भगवान के पागलपन से दिल भर गया हो तो शिक्षा के पागलपन में कूद पड़ो। मंदिरों ने दुनिया खूबसूरत नहीं बनाई .... मगर स्कूल ताजमहल से ज्यादा खूबसूरत ज़िंदा इंसान बनाएँगे ...फैसला आपके हाथ है। मैं तो पागल हेड क्लर्क हूँ।"

होतीराम की इस बात पर लोग खड़े होकर तालियाँ बजाने लगे। शिक्षा अधिकारी ने उन्हें गले लगा लिया। मुखिया ने होतीराम पागल को हाथ जोड़कर अभिवादन किया।


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