नवरात्रि– सत्य की विजय
नवरात्रि– सत्य की विजय
रात के ग्यारह बज गए थे सभी नींद के बोझ तले दबे जा रहे थे। हरिबाबू अभी तक नहीं आए। बार-बार कलावती दरवाजे पर जाती और लौटकर घर में बैठ जाती बेचारी कुसुम वहीं बरामदे में खड़े–खड़े सब देख रही थी, आखिर उसका ससुराल में पहला नवरात्रि था दो चार दिन पहले तो मायके से आई थी वह भी परेशान थी कि बाजार तो आठ बजे बंद हो जाती है तो फिर अभी तक बाबूजी क्यों नहीं आए।
कुछ समय बीतने के पश्चात हरिबाबू घर में दाखिल हुए जो कलावती अभी तक न जाने कितनी बातें बोल रही थी वह पति के आते हीं आवभगत में लग गई। पानी का गिलास कुसुम के हाथ से यूँ छीन ली, मानों अगर कुसुम पानी दे देगी तो वह कोई जंग जीत लेगी। कुसुम बड़ी आश्चर्यचकित थी अपनी सास की व्यवहार से ...
कलावती ने बड़े प्यार से पूछा कुछ खाएंगे हरिबाबू ने कहा– नहीं, हरिबाबू के मुँह खुलते ही अजीब सी बास घर में फैल गई। कलावती ने कुसुम को नाक सिकोड़ते देख लिया, उन्होंने बड़े प्यार से कहा, कुसुम बेटा जाओ, खाना खा लो बाबूजी नहीं खाएंगे।
कुसुम रसोईघर की ओर बढ़ी लेकिन मन हीं मन सोच रही थी माँ जी ने भी तो नहीं खाया है, उनके लिए भी थाली लगा देती हूँ और वह खाना गर्म करने में व्यस्त हो गई। इधर कलावती बोली, देखा आपने इस लड़की की चाल, एक बार भी बोली की माँ जी चलिए वह सिर्फ अपने लिए सोचती है, मैं माँ नही हूँ न, हरिबाबू, ठीक है, ठीक है, बच्ची है, धीरे -धीरे सब सीख जाएगी, मैं सोने जा रहा हूँ। कलावती को अपने बातों में हाँ में हाँ नही मिलने पर उसका गुस्सा का ठिकाना न रहा वह रसोईघर में घुसते हीं खड़ी कुसुम पर बरस पड़ी। अभी तक खड़ी हो बातें सुन रही थी क्या और सुनो कुसुम कल से बाबूजी जब आएं तब तुम बाहर में नहीं रहना और मैं अभी नहीं खाऊँगी तुम खा लो।
कुसुम डर से कुछ भी नही बोली अब तो उसे खाने का मन नहीं कर रहा था लेकिन नहीं खाएगी तब फिर कहीं कुछ सुनना न पड़े, इसी बीच सास एक थाली लेकर दो आदमी का खाना रखकर कुसुम को पकड़ा दी, खाओ अब यह सजा बड़ी भारी पड़ गई थी। वह डर से खाने लगी, पांच मिनट में कलावती आई तो देखा कि कुसुम थाली धो रही थी उन्होंने कहा कल से नवरात्रि शुरू हो रही है पंडित जी सवेरे हीं आ जाएँगे। कलावती को शांत देखकर कुसुम ने कहा माँ जी कोई काम, नहीं नहीं जा सो जा कुसुम के जाते हीं उसने खाना खाया।
रात के बारह बज गए थे, कुसुम मन हीं मन सोच रही थी कि डर के कारण मैं बोल नहीं पाती हूँ, माँ मेरे साथ खाती तो कितना अच्छा होता। सुबह उठते हीं चारों ओर हरश्रृंगार के फूल अपनी मनमोहक खुशबू बिखेर रहा था। धरती पर इस प्रकार बिछे हुए थे कि मानो आज ओस की बूंदों से बचने के लिए धरती ने चादर ओढ़ ली हो फिर कुसुम को अचानक ख्याल आया कल इस जगह को साफ भी नहीं किया गया था। फिर यहाँ से कैसे फूल चुनकर पूजा के लिए दूँ वह जल्दी से घर के अंदर गई और एक चादर ले आई जो पूजा के लिए रखा गया था और उसे बाँध कर पेड़ को हिलाने लगी सास देखते हीं चिल्लाने लगी क्या कर रही हो कुसुम ने धीरे स्वर में कहा माँ जी फूल पूजा के लिए कलावती- ऐसे कोई फूल चुनता है हरिबाबू को आते देखकर फूल की डाली हाथ से लेकर बोली जा तू अंदर जा और कुसुम के जाते हीं फूल चुनने लगी हरिबाबू ने पूछा बच्चे लोग नहीं जगे हैं कलावती- साक्षी बेटी तो बेचारी कब की उठकर स्कूल चली गई सुशांत उठ गया लेकिन ....
हरिबाबू ने कहा लेकिन क्या कलावती- आपकी लाडली बहू, अभी तक छोड़िए, आप कहाँ मेरी बातों को मानते हैं न जाने किस परिवार से उठाकर ले आएँ हैं। हरिबाबू जो आज तक कुसुम के लिए अच्छा बोलते थे वह भी गुस्से में तमतमाए हुए अपने कमरे में चले गए। कुसुम को अपनी सास की व्यवहार पर आश्चर्य हो रहा था कि मैं जगी हुई हूँ तो मुझे सोया हुआ बता दी और जो सोया है उन्हें जगा हुआ। खुद हीं मना भी की हैं कि अगर बाबूजी आएं तो बाहर नहीं निकलना है वह यह बातें सोच रही थी और आँसू निकलने को आतुर हो रहे थे पर अपने–आप को संभाली रही।
आज प्रथम पूजा का दिन है और आँसू से माँ का स्वागत वह कैसे कर सकती है। वह धीरे से अपने कमरे से निकल कर स्नान कर आई। सास से पूछी माँ जी खाना में क्या बनेगा। कलावती ने कहा- कुछ नहीं, तू जा अपने कमरे में, पंडित जी आने वाले हैं। पंडित के आते हीं घर में धूप बत्ती से वातावरण सुगन्धमय हो गया दस दिन के संकल्प के साथ पूजा शुरू हो गई। जब तक पूजा समाप्त होती कलावती ने खाना भी चढ़ा दिया था जो साक्षी अभी–अभी आधे दिन की छुट्टी लेकर घर आई थी उसको भी अपने काम में लगा लिया था।
कुसुम अंदर से झांक रही थी लेकिन सासू माँ की बात याद कर निकल नहीं पा रही थी बस अपने कमरे में घूम रही थी ऐसा कशमकश आज तक उसने महसूस नहीं की थी। पंडित जी ने प्रथम दिन की पूजा समाप्त की और बोले क्या भाभी बहू आ गई घर में, फिर भी रसोई पकड़ी हुई हो।
कलावती ने साक्षी से कहा जा साक्षी आज का प्रसादी ले आओ। पंडित जी को फलाहार देते हुए बोली- सबका भाग्य आपके जैसा नहीं होता है। मेरी बहू वैसी नहीं है, दिन भर घर के अंदर बैठी रहती है, देखे नहीं ऐसा हुआ कि एकबार भी पूजा के बीच में निकलकर माता रानी के आगे शीश झुकाए, न जाने माँ बाप ने क्या संस्कार दिए हैं, माँ बाप के नाम पर अंदर बैठी कुसुम का खून जोर से खोलने लगा लेकिन माँ की समझाई हुई बातों को याद करके अपने आपको रोक ली। न जाने इस समय कहाँ से वह क्रोध आया था।
वह सोचते- सोचते अपनी आने के समय को याद करने लगी जब उसकी माँ ने कहा था देखो बेटा कोई काम नहीं हो सके तो सासू माँ से कहना आखिर वह भी माँ हीं हैं लेकिन जवाब कभी मत देना यहाँ तक की उन्होंने यह भी कहा था कि ननद -देवर को भी बड़े के सामन दर्जा देना। कुसुम का ध्यान तब भंग हुआ जब सास ने प्रसादी एक कटोरा में डाल कर जोर से उसके कमरे में ठेल दिया और पंडित जी को बोली मेरी साक्षी तो दिन भर मेरे साथ लगी रहती है, क्या बताऊँ पंडित जी कम उम्र में बेटे की शादी की, बीमार रहती हूँ, बहू सेवा करेगी यहाँ तो सेवा करना पड़ रहा है।
पंडित जी जाते - जाते हुए बोले घोर कलयुग है, भाभी घोर कलयुग। उधर कुसुम ने इस प्रसादी का अनादर देखकर तुरंत कटोरा उठाकर माथे से लगा ली लेकिन बिना माँ के दर्शन किए हुए वह प्रसादी ग्रहण नहीं कर सकती थी। वह पंडित जी के जाने का इंतजार कर रही थी। पंडित जी के जाते हीं वह पूजा घर गई इधर कलावती की आवाज सुनकर वह बाहर निकली तो वह अवाक रह गई। हरिबाबू बोले क्या हुआ कला.. कलावती –देखिए अपनी लाडली बहू को मैं कितने प्यार से प्रसादी दे आई और इसे लगता है कि शायद मैंने इसमें कुछ मिला दिया है। साक्षी बोली, क्यों भाभी एक तो तुम्हारे आने से मुझ पर काम का बोझ बढ़ गया है और यह क्या है हमलोगों को चैन से जीने नहीं दोगी।
हरिबाबू माथे पर हाथ रखकर बोले- मैं तो फँस गया बर्बाद हो गया मेरा बेटा।
कुसुम इस तरह की वातावरण में कभी नहीं रही थी, वह कमरे में जाते हीं फपक –फपक के रोने लगी, अपने पर्स में रखी हुई माता रानी की फोटो को निकाल कर उस फोटो को अपनी छाती में इस प्रकार चिपका ली की मानो अब माँ साक्षात् उसके सामने बैठी हों और वह उनकी छाती से लगकर अपने आँसू से माँ का दामन भर देना चाहती हो वह बेसुध सी हो गई थी। शाम की आरती में कुसुम की भजन ने पूरे घर को मानो पवित्र कर दिया हो जिसको सुनकर हरिबाबू प्रसन्न हो उठे और बोले देखो मेरी बहू के भजन ने घर आँगन पवित्र कर दिया उसी समय श्रीकान्त आ गया उसको देखकर मानो न जाने सभी के मुँह क्यों बन गए हरिबाबू ने कहा क्यों छुट्टी हो गई। श्रीकांत नहीं बाबूजी, फिर क्या आवश्यकता थी छुट्टी लेने की।
श्रीकांत ने सबके लिए कुछ न कुछ उपहार लाए थे फिर माँ ने अपने कमरे में ले जाकर कहा, देखो बेटा थक गई हूँ मानती हूँ हमलोग उसके जैसा सुंदर नहीं है लेकिन हमलोग उसके माता –पिता सामान हैं क्या बताऊँ, साक्षी को तो नौकरानी बना दी है। कुसुम पति के आने से दिन भर के दर्द को भूल कर चाय बना रही थी कि श्रीकांत उधर से गुस्साए हुए कहा कुसुम इधर आना, कुसुम– जी आई श्रीकांत- जल्दी आओ चाय लेकर जैसे पहुंची श्रीकांत– यह क्या हो रहा है कुसुम।
कुसुम– क्या,
श्रीकांत- इतनी नादान मत बनो माना मेरा परिवार तुम्हारे मायके के जैसा नहीं है लेकिन अब यही तुम्हारा घर है।
कुसुम– मैंने किया क्या है, यहाँ मेरे साथ जो हो रहा है।
श्रीकांत– चुप रहो, मैं एक शब्द अपने परिवार के खिलाफ नहीं सुन सकता हूँ।
कुसुम– मैं किससे कहूँ कौन सुनेगा मेरी।
दूसरे पूजा के दिन अब तो पंडित जी के साथ पूजा खत्म होते हीं कलावती और अगल –बगल की औरतें भी शामिल हो गई और रोज कोई न कोई बहाना से श्रीकांत को कहीं भेज दिया जाता था। पांचवे पूजा के दिन शिकायत मंडली चल रही थी कि श्रीकांत आ गया सभी को देखकर उसे आश्चर्य हुआ।
कुसुम से कहा- जाओ चाय बनाओ।
कुसुम– माँ ने मना किया है, कोई बाहर का या बाबूजी भी रहें तो बाहर नही जाना है।
श्रीकांत– मैं कह रहा हूँ।
वह डरती हुई रसोईघर गई चाय बनाते देखकर सभी औरतें बोली- देखो –देखो श्रीकांत को दिखा रही है। बहू, सास की इसी प्रकार मदद किया करो, वह मुस्कुराती हुई सभी को चाय दी और अपने पति को भी दे आई। चाय पीकर सभी ने बड़ाई की तब तो कलावती की तनी भौएं हीं नहीं रही, दिल तक आग लग गई। उसे बहू की बड़ाई बर्दाश्त नहीं हो रही थी। श्रीकांत के कारण थोड़ी हिम्मत आई वह खाना भी बनाई अब तो घर में कुसुम हीं कुसुम की खुशबू फैल रही थी जो कलावती को बर्दाश्त नहीं हो रहा था।
नवमी का दिन आया, सभी ने नए कपड़े पहने अगल–बगल की औरतें भी आई कलावती को फिर अपना वर्चस्व स्थापित करना था, उसने कुसुम को फिर आँख दिखाते हुए अंदर जाने का इशारा किया। कुसुम डरी हुई आवाज में बोली- माँ मैं ......कलावती हाँ –हाँ जा बेटा मैं प्रसादी उतार दूँगी, यह कहकर दोनों अपनी अपनी दिशा की ओर बढ़े, अभी कुसुम साड़ी पहन रही थी कि कलावती की चिल्लाने की आवाज आई- बच गई रे बच गई।
इस बहू ने मारने का सारा व्यवस्था कर लिया था। कुसुम भी जिस अवस्था में थी दौड़ी आई अब सबने उसको कहना शुरू कर दिया कैसी हो कुसुम, सासू माँ जैसी होती है उसी को मारने चली, चूल्हा से पाइप निकाल कर श्रृंगार करने चली गई। दूसरी औरत –सोचा होगा मर जाएगी बुढ़िया तो राज होगा। कुसुम सब से कहती रही, नहीं, ऐसा नहीं है लेकिन सभी उसे चील की तरह नोचकर खा जाना चाहते थे।
अचानक कुसुम की आवाज से पूरा वातावरण शांत हो गया।
चुप हो जाइए, मैं कहती हूँ न मैं जब निकली वहाँ से तब आपका बेटा अगरबत्ती जलाने वहाँ गए थे अगर मैं पाइप निकाल कर आती तब क्या वे अगरबत्ती जला पाते। इस दुनिया में अगर कोई औरत दुखी होती है उसका एक कारण है औरत, पुरुष वर्ग के सामने, समाज में अपने आपको अच्छा, बड़ा दिखाने की लालसा में स्वयं को इस तरह गिरा दिया है जिसका कोई वर्णन नहीं है। एक औरत के दुःख का कारण एक औरत हीं है।
आज कुसुम का यह रूप देखकर सभी हाथ जोड़ लिए थे लाल साड़ी में लिपटी हुई लम्बे –लम्बे बाल खुले हुए मांग में लाल सिंदूर दमकता हुआ। हवन के लपटों के सामने धधकती हुई ज्वाला को शांत करने वाला कोई वहाँ नहीं था।
कुसुम फिर हुंकार मारते हुए बोली- यहाँ पूजा नहीं, बहू पाठ होता है, क्या यही है दशहरा। कुसुम क्रोध से थरथरा रही थी और आज साक्षात माँ को देखकर सभी गलती हो गई माँ की गुहार लगा रहे थे।
कलावती भयभीत होकर माफ़ी मांगने लगी। माफ कर दो बहू, भूल हो गई, आज तक मैं गलत थी। वहाँ उपस्थित सभी औरतों ने उस हवन कुंड को छू कर माफ़ी मांगते हुए कहा- आज के बाद हमलोग किसी की शिकायत नही करेंगे। श्रीकांत अपनी माँ की बात को सुनते हुए आ रहा था उसने अचेत हो चुकी कुसुम को हिलाया और कहा देखो, आज नवरात्रि के दिन फिर असत्य पर सत्य की विजय हुई।
दानवता की सोच पर मानवता ने विजय पा ली है और आने वाली नव रात्रि तुम्हारी सत्यता का उद्घोष कर रहा है और अगले दिन दशहरा में परिवार के साथ पूजा सम्पन्न होने के पश्चात राम [श्रीकांत] अपनी सीता [कुसुम ] को लेकर चला गया।
