नवरात्रि - आदि शक्ति
नवरात्रि - आदि शक्ति
नवरात्रि - आदि शक्ति/नारी शक्ति को प्रणाम
नवरात्रियों में देवियों की भक्ति पूजा के विधान की बड़ी मान्यता है। यदि हम भक्ति को वैज्ञानिक तरीके से समझें तो पता चलेगा कि भक्ति में भी अध्यात्म विज्ञान समाया हुआ है। है वह अपने ही तरीके का विज्ञान। योग विज्ञान अलग है। लेकिन भक्ति का विज्ञान और योग विज्ञान आखिर में आकर एक जगह ही मिल जाते हैं। कर्मकांडों के ढंग से भक्ति की वैज्ञानिक समझ पैदा नहीं होती। कर्मकांडों के साथ दिक्कत यह रही है इन कर्मकांडों में जो भी किया जाता रहा है उसकी अपनी मौलिकता लोप हो गई है। कर्मकांडों में कुछ पोएटिक, सिम्बोलिक और डेकोरेटिव रूप से समझाने के प्रयास तो जरूर हुए हैं। लेकिन वह एक परम्परा और रूढ़िवादिता बन कर रह गई। उसका तंत लोप हो गया है।
यदि कोई व्यक्ति अपनी अंतः प्रज्ञा से उन प्रतीकों को भी समझना चाहे तो उनसे बहुत कुछ समझ मिल सकती है। तमाम प्रकार के भक्ति के कर्मकांडों में जो "ध्यान/योग" का मूल तत्व (मन बुद्धि के द्वारा स्वयं के आत्म बिन्दु पर एकाग्र होना) अनिवार्य रूप शामिल था वह प्रायलोप हो गया है। समयांतर में मनुष्य की प्रज्ञा धूमिल होती गई और उन कर्मकांडो के यथार्थ अर्थ सब लोप होते चले गए। दैवी शक्ति/आदि शक्ति/नारी शक्ति (नवरात्रि) की मान्यता (पूजा) के साथ भी यही हुआ है। सिर्फ एक थोथी औपचारिकता सी रह गई है। यदि कोई व्यक्ति यथार्थ विधि से पूरी निष्ठा के साथ नवरात्रि में अपने अन्तर्जगत की ध्यान साधना करे तो अनिवार्य रूपेण उसे अध्यात्म के अद्वितीय अनुभव हो सकते हैं।
ब्रह्माण्ड में एक ही ऊर्जा का प्रवाह है। वही ऊर्जा विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। मनुष्य के जीवन में भी वह अनेक रूपों में प्रकट है। मुख्य रूप से कह सकते हैं कि वही ऊर्जा जब मनुष्य में प्रकट होती है तो वह मुख्यत: मस्क्युलाइन और फेमिनिन के दो रूपों में प्रकट होती है। मनुष्य का व्यक्तित्व भी इन दोनों प्रकार की ऊर्जाओं से बना हुआ है। पुरुष में मस्क्यूलाइन ऊर्जा प्रधान रूप से प्रकट है और फेमिनिन ऊर्जा अप्रकट रूप में होती है। नारी में फेमिनिन ऊर्जा प्रधान रूप से प्रकट है और मस्कुलीन ऊर्जा अप्रकट रूप में रहती है। स्त्री और पुरुष दोनों में दोनों प्रकार की ऊर्जाएं (मस्कुलाइन और फेमिनिन) होती हैं। यानी पुरुष केवल पुरुष ही नहीं है, उसमें स्त्री तत्व (स्त्रैण ऊर्जा) भी अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद है। स्त्री केवल स्त्री ही नहीं है, उसमें पुरुष तत्व (पुरुस्त्व ऊर्जा) भी अप्रत्यक्ष रूप में मौजूद है। जिस तरह की ऊर्जा ज्यादा सक्रिय होती है वह ही सर्फेस पर दृष्टिगोचर होती है, बाकी अप्रत्यक्ष रहती है।
नवरात्रि में जो देवियों की पूजा होती है उसका एक ही उद्देश्य होता है कि हम अपने अन्दर संवेदना शक्ति को बढ़ाएं। नारी संवेदना शक्ति (पॉवर ऑफ सेंसिटिविटी) का प्रतीक है। नारी में पुरुष की तुलना में प्राकृतिक रूप से संवेदना शक्ति ज्यादा होती है। परमात्मा का (आदि शक्ति/दैवी शक्ति) का अनुभव करने के लिए संवेदना की शक्ति का गहरा होना एक अनिवार्य शर्त है। नवरात्रि के समय अपनी संवेदना शक्ति को पुरुष और स्त्री दोनों ही बढ़ाते हैं। संवेदना शक्ति बढ़ती तब है जब नारी ध्यान (योग) के द्वारा अपने अन्दर की अप्रकट मस्कलाइन ऊर्जा को सक्रिय कर ले और नर ध्यान (योग) के द्वारा अपने अन्दर की अप्रकट फेमिनिन ऊर्जा को सक्रिय कर ले। मनुष्य (नर और नारी) की प्रकट और अप्रकट; ये दोनों प्रकार की ऊर्जाएं सक्रिय होकर परस्पर सम्मिलन के द्वारा जब एक वर्तुल बना लेती है तब आदि शक्ति (Divine power) के साथ का दिव्य अनुभव (परमात्म परम मिलन) घटित होता है। इसे ब्रह्मांडीय ऊर्जा के तीन रूपों में समझा जा सकता है। सतो रजो और तमो। रजो गुण आत्मा को दौड़ाए रखता है। तमो गुण निष्क्रिय रखता है। यानि कि ऊर्जा की सक्रियता से निष्क्रियता और निष्क्रियता से सक्रियता के चलते हुए चक्र को सतो अवस्था के गहरे अनुभवों के द्वारा तोड़ना और उस आदि शक्ति (परा शक्ति/परमात्म शक्ति) का अनुभव करना। इस अवस्था में भी आत्म चेतना स्त्री पुरुष की स्मृति से परे हो जाती है। पूरा का पूरा अध्यात्म इस एक ही आखिरी बात पर पूरा हो जाता है। यही योग (राजयोग) विज्ञान का अन्तिम निष्कर्ष है।
अंततोगत्वा देवियों की पूजा भक्ति करने का एक ही उद्देश्य होता है कि हम आदि शक्ति (परमात्म शक्ति) का अनुभव करें। इस अनुभव के समक्ष शेष सभी कामनाओं की पूर्ति की बातें गौण है। उस आदि शक्ति (परमात्म शक्ति) के साथ संबंधित होकर स्वयं को रिचार्ज करें। ऐसा अनुभव करें जैसे कि हम उसके साथ एक (combined) हैं। एक अद्वितीय दिव्य ऊर्जा का अनुभव करें। वैसे तो प्रभु मिलन या परमात्म मिलन की आकांक्षा आत्माओं को सुदूर अतीत से ही रही है। मनुष्य इसके लिए निरन्तर पुरुषार्थ करते भी आए हैं। लेकिन फिर भी यह भक्ति का पुरुषार्थ नवरात्रि के दिनों में ही क्यों की जाता है? इसके पीछे भी वैज्ञानिक (तात्विक/भौगोलिक) कारण हैं। नवरात्रि के दिनों में ब्रह्मांडीय परिस्थिति (कॉस्मिक सिचुएशन) कुछ अलग प्रकार की होती है। उन दिनों में पूरे ब्रह्माण्ड (प्रथ्वी सहित) में ऊर्जा का प्रवाह भिन्न प्रकार का होता है। वह ऐसा प्रवाह होता है जिससे वे आत्माएं जो उस आदि शक्ति (दैवी शक्ति) के साथ अपनी बुद्धि का तारतम्य जोड़ने की लगन में होती हैं, उन्हें बहुत सहज ही वैसा अनुभव होता है/हो सकता है। इन दिनों में प्रकृति की ऊर्जा भी साधकों (भक्तों) को परमात्मा का अनुभव कराने में मदद करती है।
शेष और जो भी बातें नवरात्रि से जोड़ दी गईं हैं वे सहयोगी तो जरूर हैं पर वे सब बातें गौण (सैकेंडरी/अन इम्पोर्टेंट) बातें ही हैं। जैसे नवरात्रि में उपवास का महत्व बताया गया है। यह इसलिए क्योंकि उपवास से शरीर (पांच तत्वों) की प्राण ऊर्जा के सभी अवरोध हट जाते हैं और प्राण उर्जा बढ़ती है। प्राण ऊर्जा के बढ़ने से तात्पर्य है तत्वों की ऊर्जा पवित्र होती है। शारीरिक तत्वों की पवित्रता की स्थिति से संवेदना शक्ति बढ़ती है। यह संवेदना दिव्य शक्ति दैवी शक्ति (परमात्म शक्ति) को अनुभव करने में सहयोगी होती है। लेकिन यदि इसे दूसरी तरफ समझें तो पता चलेगा... जो व्यक्ति अपने अन्तर्जगत के साथ एकाकी रमन करता हो, अर्थात जो आदि शक्ति/दैवी शक्ति/परमात्म शक्ति के साथ का अनुभव करने लगता है तब तो उसका उपवास तो खुदबखुद घटित हो जाता है। उसे भोजन की बहुत अल्प आवश्यकता रह जाती है। व्यक्ति की ऐसी अवस्था में यदि आहार की आवश्यकता नहीं भी रह जाती हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
निष्कर्ष यह है कि भक्ति की कार्य विधि जो भी हो। नवरात्रि की कार्य विधि जो भी हो। लेकिन इन सबके पीछे केवल एक ही रहस्य काम कर रहा होता है। वह है "आप ही पूज्य और आप ही पुजारी"। भक्तजन काल्पनिक मूर्तियों के माध्यम से पूजा अर्चना करने की या काल्पनिक आकाश की उड़ानें भरने की जो भी कार्य विधि करते हों। पर भक्ति की कार्यविधि के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक अथवा आध्यात्मिक प्रक्रिया घटती है। वह व्यक्ति (भक्तों) के स्वयं के अंतः करण में ही घटती है। इस विधिवत प्रक्रिया की घटना में उसका आखिरी परिणाम यही होता है कि व्यक्ति की अंतरात्मा पवित्र बन जाती है। पूर्ण एकाग्र हो जाती है। ऊर्जा की अल्केमी में परिवर्तन यह होता है कि पुरुष तत्व और स्त्री तत्व एकाग्र हो उनकी आपस की आन्तरिक दूरी मिट जाती है। इसे ही आध्यात्मिक भाषा में पूर्ण पवित्रता कहते हैं। पूर्ण पवित्र स्थिति बनते ही और पूर्ण एकाग्र स्थिति होते ही आत्मा की अपनी आन्तरिक शक्तियां ही दैवी शक्तियों के रूप में प्रकट हो जाती हैं। फिर ना पूजा की जरूरत रहती है और ना ही पुजारी की जरूरत रहती है। इन दैवी शक्तियों के प्रत्यक्ष होने से आत्मा स्वयं को परमात्म शक्ति के साथ संबद्ध हुआ अनुभव करती है। उसे आत्म साक्षात्कार (सेल्फ एनलाइटेन) या परमात्म साक्षात्कार(गॉड एनलाइटन) हो जाता है। नवरात्रि में देवियों की पूजा का यही आध्यात्मिक रहस्य है।
