नजर
नजर
मौसम बहुत खुशगवार है, बारिश की बूँदें मन को ठंडक पहुँचा रहीं हैं। नजारे का आनन्द लेने के लिए कमरे से निकल बालकनी में कुर्सी डाल कर बैठ जाती हूँ। बस सामने आसमान से छमकती बूँदों के धरती पर बरसने की आतुरता को उसके वेग का जायजा ले रही हूँ। लगा की मन को सुकून मिलेगा, नजर बादलों की तरफ जाती है, सब कुछ ढँक दिया है इसने अभी अपने दीवानेपन में, सूरज की तपिश को भी मात दे दी है।
हवा ठंडी बह रही है पर अचानक से दिल में कुछ खौलने सा लगा है, क्या खुद को भी नहीं पता! होंठों की गुनगुनाहट खामोश हो गयी। भींगे मौसम के साथ आँखें बिना बताए धीरे - धीरे अपने आप भीगने लगी हैं।
'ये ' भी कुछ ढूँढते हुए बालकनी में आते हैं, दो मिनट स्थिति का जायजा लेने के बाद पूछते हैं कि, क्या हुआ? ये अपनी याददाश्त पर जोर डाल रहे हैं कि कहीं हमारा कोई झगड़ा तो नहीं हुआ! या कुछ तेज आवाज में मैंने इसे कुछ बोल तो नहीं दिया। आसमान से बरसती बूँदों को सहारा देने के लिए जमीन अपनी बाहें फैला कर उसे समेट रही हैं, मेरी आँखों की बारिश भी अब कोई सहारा देने वाली जमीन ढूँढ रही है।
ये, पूछते हैं तबीयत ठीक नहीं तो डॉ से बात करूँ?
मैं सिर हिला कर ना में जवाब देती हूँ।
फिर पूछते हैं, "बोलो तो हुआ क्या है?"
मैं जवाब देती हूँ, पता नहीं!
फिर बोलते हैं, अच्छा आज चाय मैं बना देता हूँ।
मैं हाँ में सिर हिला देती हूँ।
अब फिर मैं अकेली खड़ी सामने देख रही हूँ और खुद से सवाल कर रही हूँ कि क्यों इतना बेचैन हूँ? समझ नहीं आ रहा मुझे।
मोबाइल घनघनाने लगता है, स्क्रीन पे "माँ" फ्लैश हो रहा है।
अब आँखों की बारिश सैलाब का रूप धरना चाहती है, पर खुद को समेट कर आँखों पर बाँध बना फोन उठाती हूँ।
वहां से आवाज आती है, और बेटा कैसी हो?
मैं जवाब देती हूँ "ठीक हूँ ।"
वहाँ से तीर की तरह प्रश्न आता है, क्या हुआ है बेटा?
मैं फिर जवाब देती हूँ "कुछ नहीं मम्मी"।
वहाँ से फिर जवाब आता है "नहीं कुछ तो हुआ है, तुम्हारी आवाज न खनक रही है न चहक रही है।
मैं खामोश रहती हूँ।
वहां से कहा जाता है कि दामाद जी को फोन दो।
मैं इन्हें अंदर आकर मोबाइल पकड़ाती हूँ।
फोन स्पीकर पर है अब।
हाँ बेटा, ये शुरू से सबकी बहुत लाडली और नाजुक रही है न, आप एक काम कीजिएगा आज रात में पाँच मिर्ची और थोड़ी सी राई लेकर इसे ओइंच कर आग में जला दीजियेगा, या फिर ये न कर सके तो मुट्ठी भर नमक लेकर इस पर घुमाकर पानी में बहा दीजियेगा। इसे नजर बहुत जल्दी लगती है।
ये जी मम्मी - जी मम्मी, करते हुए मुझे देख कर मन्द - मन्द मुस्करा रहे हैं, मेरी आँखों की नमी भी अब होंठों पर धीरे - धीरे मुस्कान बन कर फैलने लगी है। बादल छंटने लगे हैं, सूरज फिर से निकलने लगा है। मन धीरे - धीरे शांत हो रहा है पर एक सवाल फिर कर रहा है "ये माँ को हर बात पता कैसे चल जाती है,? और अपने तरीके से हर बात का उपाय भी होता है इनके पास!
दिल से आवाज आती है" "माँ, माँ होती है न, इनसे हमारा सम्बन्ध बाकी लोगों से 9 महीने ज्यादा का होता है। शायद इसीलिए!"