निस्वार्थ वात्सल्य
निस्वार्थ वात्सल्य
अलादीन पिछले दस वर्षों से जिलाधीष महोदय को सारे श्राद्धों में पंडितों को खाना खिलाते तथा दान करते देखता आ रहा था। श्राद्धों के खत्म होते ही नवरात्र में वह माँ शक्ति की जोत जला कर अपनी सभी माँओं के लिए भगवान से उनकी योनि से मुक्ति तथा स्वर्ग की कामना करते थे। इस राज से अंजान, एक दिन वो साहस करके पूछ बैठा "साहब, सभी श्राद्ध पितरों की शांति के लिए केवल अपने माता-पिता दादा-दादी के लिए करते हैं, लेकिन आप हमेशा सारे श्राद्ध अपनी अनेक माँओं --- के लिए करते हो।" जिलाधीष महोदय गहन पीड़ा और अवसाद में डूब गए।
वह शायद आठ-नौ महीने के रहे होंगे जब एक सड़क हादसा उनके पूरे परिवार को लील गया। वह ना जाने कैसे जाको राखे साइयाँ मार सके ना कोई की युक्ति को साकार्थ करते हुए गाड़ी से उछल कर दूर कच्चे में झाड़ियों के बीच आ पड़े। झाड़ियों ने उन्हें अपने आगोश में पनाह देकर बचा लिया। तभी वहाँ गुजरते किन्नरों की नज़र मुझ पर पड़ गई। उनके वात्सल्य तथा दवा दारू की मदद से जब मैं होश में आया तो स्वयं को उनकी गोदी में अठखेलियाँ करते पाया। करीबी रिश्तेदारों द्वारा मनहूस कह अपनाने से मना करने पर, किन्नरों ने कानूनी लड़ाई लड़ कर मुझे गोद ले लिया। नूरी हीरा मोती----- इत्यादि इत्यादि उस दिन से न जाने कितनी ही मेरी माँए बन गई। एक गोदी से उतारती, दूसरी दुलारती, तीसरी निहारती नजर ना लग जाए लल्ला को, चौथी खिलाती, पाँचवी स्कूल भेजती। आज भी उस मार के निशान मेरे गालों में दर्द तथा गर्व पैदा करते है, जब मैं उनकी तरह ठुमके लगा-लगा कर खुश हो रहा था कि नूरी माँ ने तीन-चार तमाचें मेरी गालों पर जड़ दिए " ना लल्ला तुम तुम इन सब के लिए नहीं पैदा हुए। तुम तो पढ़ लिखकर बहुत बड़े बाबू बनने के लिए पैदा हुए हो। तुम्हारा काम स
िर्फ स्कूल जाना, पढ़ाई करना तथा मस्ती करना है। उन्होंने मेरे लिए उच्च शिक्षा तथा सभी सुख सुविधाओं का इंतजाम मेरे कहे बिना अपनी मेहनत मजदूरी से किया।" उनके द्वारा दी गई उच्च शिक्षा की बदौलत ही आज मैं इस पद पर आसीन हो पाया। जब मैंने उन्हें अपनी पहली कमाई देनी चाही तो वह भावुक हो गई, रख लल्ला आड़े वक्त में काम आएगी, हमारे पास कोई पैसों की कमी थोड़ी ना हैं। कर्ज तो तुम्हारा उसी दिन चुकता हो गया था जब तुमने हमें माँ कहना शुरू किया था। उनकी निस्वार्थ सेवा और वातसल्य के आगे मैं निरुत्तर था। सरकारी बंगला मिलने पर मैं उन सबको अपने साथ रखने की बहुत कोशिश की लेकिन बेटे को समाज में कभी एक शब्द का तंज भी ना सहना पड़े, यह सोचकर उन्होंने मेरे साथ रहने को मना कर दिया। रजनी से शादी करने पर वह वैसे ही बधाई देने आई जैसे आमजन के यहाँ जाया करती थी। बाल बच्चेदार हो गया, जब कभी भी उनसे मिलने गया तो उन्होंने बड़े साहब की भांति पलकों पर बैठाया। कभी अहसास भी नहीं होने दिया कि मेरी जिंदगी उनके अहसानों की कर्जदार है। धीरे-धीरे सभी माँए संसार से विदा हो गई। लेकिन भले ही मैंने उनकी कोख से जन्म नहीं लिया, मेरा रोम-रोम उनके वात्सल्य के आगे नतमस्तक है। जीते जी तो उन्होंने मुझे अपने वात्सल्य एवं अहसान के कर्ज से मुक्त नहीं होने दिया, कम से कम उनके मरने के पश्चात तो उनकी इस योनि से मुक्ति एवं स्वर्ग के लिए भगवान से प्रार्थना कर सकता हूँ कहते- कहते जिलाधीष महोदय भावुक हो गए।