निशा के गीत
निशा के गीत
शाम की लटों को होले से सुलझाते हुए निशा ने गर्दन झुका कर उसे देखा। मयंक व्यस्त था या व्यस्त होने का दिखावा कर रहा था। कुछ देर तक निशा उसे देखती रही फिर झुंझला कर उसने अपनी सितारों वाली ओढ़नी ओढ़ी और पैरों में अपनी पसंदीदा चांदनी सी जगमगाती पायल पहनकर आंगन में टहलने लगी।
अनमनी सी निशा का मन कोई गीत गुनगुनाना चाहता था लेकिन गीत की उदास तरन्नुम उसे पसंद नहीं थी। उसने तो रोज रजनीगंधा सी महकती सरगम को गीतों में सजाना चाहा था फिर....फिर ये टूटते तारों का शोर उसके स्वर में क्यों शामिल होने लगी थी। नहीं..... वह नहीं गायेगी।
" मगर क्यों ?", पास ही मोगरे की टहनी पर बैठे जुगनू से बिना पूछे रहा नहीं गया।
"स्वर तो स्वर होते हैं निशा, तुम तो साधिका हो न ! छेड़ो न कोई सप्तक।"
"तुम्हारी व्याकुलता की उच्छवास हमें भी वाष्पित कर देती है निशा, आज स्वर दो तुम अपने अंतर्मन के कोलाहल को, अपनी संवेदनाओं को स्वाभिमान की तान के साथ आलाप लेकर गाओ। लय की बिलम्बित- मध्यम - द्रुत गति पर ध्यान मत दो, बस गाओ।", तुहिन बिंदुओं ने और आद्र होते हुए कहा।
निशा निःशब्द खड़ी अपलक उन सभी को देख रही थी। गीत के शब्द होठों पर आकर चंचल हो रहे थे। निशा के सितारों भरे आँचल से मयंक अब भी वैसे ही बेपरवाह बैठा दिख रहा था।
न जाने क्यों, इस बार निशा ने उसे देखकर आंखे फेर ली, "कब तक तुम्हारे झूठे दम्भ को सहलाती रहूं। सिर्फ तुम्हारा ही नहीं, अस्तित्व मेरा भी है। रिश्ता एक दूसरे की भावनाओ के मान से पल्लवित होता है, अपमान से नहीं।" निशा के इन शब्दों को एक ही पल में रागनी ने सुर में बांध लिया और दिग दिगंत तक पवन के सुखद - शीतल झोंकों के साथ बहती स्वर लहरियों ने पूरे वातावरण को मखमली कोमलता के संग निश्चिंतता के आवरण में ढक लिया।