निर्भय

निर्भय

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खत्म हो चुका था उसका सब्र। उसका रक्त उबाल मार रहा था। उसका मन चिल्ला कर पूछ रहा था कि आखिर क्यों हुआ यह सब ? मैंने तुम्हारे बनाये गए नियमों की जंजीरों को खुशी-खुशी अपने गले में बांध लिया।

मैंने कभी ऊँचे कपड़े नहीं पहने। सिर से लेकर पैर तक कपड़े के थान में लिपटी हुई मेरी देह को चीरती हुई नजरें क्यों नहीं झुकी ?

इज्जत बचाने के लिए वक्त से पहले मैं अपने ही घर में कैद थी। उस चारदीवारी के अंदर पल रहे मेरे रक्षक मेरे ही भक्षक क्यों बने ?

इस संसार की कुंठित मानसिकता से हमेशा निर्भया ही क्यो जन्म लेती है निर्भय क्यों नहीं ?


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