निन्यानवे का फेर
निन्यानवे का फेर
कल से चित्राधारित लघुकथा के विषय के बारे में सोच सोचकर परेशान हो रही थी। आखिर यह मेरी सौंवी कहानी जो बननी थी। वैसे भी यह निन्यानवे का फेर बहुत अद्भुत है। इंसान यहां आकर रूक सा जाता है एक बार तो, आखिर सौ का अंक एक क्रेज़ लिए होता खुद में। पर दिमाग की बत्ती ही गुल हो जाती कई बार।
"दादी, दादी, चलो न, आप यहां बैठे हो अपनी किताबें लेकर और वहां मम्मी पापा लड़े जा रहे।" मेरी प्यारी पोती रिया ने जब मेरे कान के पास चिल्ला कर कहा, तो तंद्रा भंग हुई मेरी। दरवाजे पर पहुंच कदम रूक से गए। अंदर रोहन चिल्ला रहा था निशा पर," जब एक बार बोल दिया नहीं तो नहीं। मैं रिया को शहर से बाहर पढ़ने के लिए नहीं भेज सकता। जमाना कितना खराब है, आए दिन सुनती हो न टीवी पर, क्या क्या हो रहा ?"
ओह तो यह बात है। रिया कुछ दिन पहले बता तो रही थी कि वह अब बारहवीं के बाद होमसाइंस में बी एस सी करने के लिए चंडीगढ़ में दाखिला लेना चाहती है, पर मैंने ज्यादा त्वज्जो नहीं दी थी उसकी बात पर।
"देखो, अब समय बदल गया है। बेटियों को बाँध कर नहीं रख सकते हम।" यह निशा थी।
" मुझे बहस नहीं करनी। वैसे माँ भी नहीं मानेगी इस बात को।" रोहन को मेरे अड़ियल स्वभाव का पता था।
" दादी, आप इजाजत नहीं दोगी, तो मैं आगे कैसे बढ़ूँगी। आप ही तो कल लिख रही थी न पंक्तियाँ..
"रोकोगे उड़ान तो बिखर बिखर जाएंगी बेटियां
अवसर देने पर खुद को साबित कर पाएंगी बेटियां।"
निशब्द थी मैं, पर दिमाग की बत्तियां जल चुकी थी अंधकार का हरण करते हुए।