नीड़

नीड़

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"रमा, आज तुम मुझसे माफ़ी मांगती हो। रोती-बिलखती हो, कलपती हो लेकिन क्यों और किस लिए ? आज तुम्हारे बच्चे तुम्हारे साथ बुरा सुलूक करते हैं, तुम्हें पग-पग पर बेइज्जत करते हैं, कभी - कभी हाथ उठाने से भी नहीं चूकते, क्या इसलिए ? पर तुमने क्या किया आज तक ? मेरे साथ तुम्हारा व्यवहार उचित था ? माना कि मैं बेकार था लेकिन जब तक सर्विस में अच्छी पोस्ट पर था, नाम-दाम दोनों मिल रहे थे, तब तक तो मैं तुम्हारे लिए सबकुछ था, तुम्हारे बच्चे सॉरी, ग़लती से वे मेरे भी थे।"

"ऐसा क्यों कहते हो ? अब भी तो तुम्हारे हैं "

नहीं , मेरे नहीं, तुमने उन्हें मेरा रहने ही कब दिया ? अब तो वे दुर्भाग्य से तुम्हारे भी नहीं रहे। यह तुम्हारी परवरिश का नतीजा है। तुमने मेरी माँ के साथ भी कभी अच्छा व्यवहार नहीं किया, न उन्हें पेट भर और समय पर खाना दिया, ना ही कभी उनकी इज़्ज़त की। माँ ने कभी शिकायत तो नहीं की पर दबी जबान से एक-दो बार बताने की कोशिश जरूर की लेकिन तुम पर अंधा विश्वास रखने वाला मैं कभी जान ही नहीं पाया और माँ ऐसे ही प्रताड़ित होती-होती ही इस दुनिया को अलविदा कह गई। मैं मूर्ख बना रहा, कभी कुछ जान ही नहीं सका मगर आज भली भांति समझ रहा हूं जब खुद पर गुज़र रही है। तुम ऐसी कैसे बन गई ? अरे, बन क्या गई तुम तो ऐसी ही थी, मैं ही अनजान रहा। ओह... तुम्हारा रिश्ता कभी मुझसे तो था ही नहीं अगर था तो मेरे रुतबे से। मेरे पैसे से। मेरे शरीर से। जानती हो - मेरी बीमारी ने मुझे शरीर से अशक्त बना दिया तुमने मुझे दूर कर दिया इसी तरह तुम्हारी औलाद का भी रिश्ता था तुमसे जो, तभी तो वे तुम्हें भी छोड़ गए। पहले तुम मेरा कितना ख्याल रखती थी तुम्हारे बच्चे भी पापाजी - पापाजी कहते नहीं थकते थे और तुम भी तो मानो मेरी दीवानी थी। फिर ये सब कैसे बदल गया ? अब अच्छी तरह से समझ रहा हूं पर समझने में बहुत देर हो चुकी है, सच ही कहा है - अब पछताये क्या होत जब चिड़िया चुग गई खेत।

मेरे वालेंटरी रिटायरमेंट के बाद अपना प्रोवीडेंड फंड और बाकी सारी जमा-पूंजी बड़ा मकान बनवाने में लगा दी और शेष बची रकम भी दोनों बेटों में बांट दी, बेटे शादीशुदा थे और तीनों बेटियाँ ससुराल में खुश थी। मैं भी तो तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के साथ खुश था लेकिन यह तो कुछ दिनों का सुनहरा सपना था जो एक तरह से सब्जजाल ही था जिसमें मैं उलझा हुआ था। बस कुछ समय में ही सुनहरा सपना टूटने लगा और मैं बिखरने लगा...बेटे तो बेटे, तुम भी बदलने लगी, उनकी बोली बोलने लगी। सरकारी नौकरी तो थी नहीं जो पेंशन मिलती, यहां तो अब पर्सनल जेबखर्च के लिए तुम्हारे व तुम्हारे बेटों के आगे हाथ फैलाना पड़ता। शुरू - शुरू में तो कुछ महसूस नहीं हुआ हां , धीरे-धीरे तुम लोगों की तल्खी, विरक्ति समझ में आने लगी। चलो, बेटों की बात छोड़ो , तुम तो मेरी जीवनसाथी थी, पैंतालीस सालों का साथ, क्या यूं ही था ? तू मेरी कभी थी ही नहीं ? सिर्फ अपने बच्चों की थी ? ओह, अब तो तुम अपने बेटों की भी नहीं रही। उन्होंने ही तुम्हें दर किनार कर दिया, आज तुम कहीं की नहीं रही, रही तो बस बर्बादी के कगार पर खड़ी एक लुटी-पिटी औरत। जहां कोई भी अपना न था, तुमने बेटियों को भी प्रताड़ित करने में कसर नहीं छोड़ी थी, वे बेचारियाँ तो खुद ही दूध की जली थी इसलिए दूध से घबराती थी कि यह दूध उनके अपने रिश्तों को ही न जला दे इसलिए छास से भी दूर रहने की कोशिश करती थी। सच कहूं तो तुम बेटों के अलावा बेटियों की माँ कभी बनी ही नहीं मेरे बार - बार समझाने के बाद भी बस, बेटों के मोह में इस कदर अंधी थी, डूबी थी कि मैं भी कभी नजर नहीं आया फिर भला बेचारी बेटियों की क्या बिसात। अब मैं नये सिरे से ज़िन्दगी जीने की कोशिश करने लगा, एक जाने-माने माल में स्टाॅक चेकिंग का काम मिल गया फिर बस, अपना गुजारा तो हो जाता और थोड़ी बचत भी, अपना घर था इसलिए बाहर सब ठीक-ठाक था अब तक ? यह भी तो तुम्हारे बेटों ने रहने नहीं दिया। चुपचाप मकान बेच दिया, धोखे से मुझसे साइन भी ले लिये और मैं कुछ भी जान ही न पाया लेकिन जब जब जाना तो बहुत देर हो चुकी थी, नया मकान मालिक आया तब जाकर यह राज खुला कि मकान बिक चुका है, फिर तो कुछ कहने-सुनने को ही नहीं रहा। उन पैसों से दोनों ने कांदिवली में अपने लिए अलग-अलग फ्लेट ले लिये। मुझे कह दिया - पापाजी, आप लोग अपना कहीं देख लीजिए साथ रहने से प्राइवेसी नहीं रहती इसलिए अब हम लोग सब अलग-अलग रहेंगे, वैसे आपके लिए हमने भाड़े का मकान देखा है वो म्हाड़ा की बिल्डिंग में ग्राउंड फ्लोर पर वन रूम किचिन है, अच्छा है, वैसे काफी है आप दोनों के लिए। और सबसे बड़ी बात यह मकान बिकवाने में तुम भी तो शामिल थी, तुम्हें भी तो लिफ्ट वाली बिल्डिंग में रहने का शौक था ना, तो अब रह ली ?

"सच में मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई है यह मैं अब खूब समझ रही हूं, मुझे माफ़ कर दीजिए । आप भी दुत्कार देंगे तो मैं कहां जाऊंगी ? आपके सिवा मेरा है ही कौन ? "

"क्यों ? तुम्हारे बेटे हैं ना। मुझ फक्कड़ के पास क्या है अब ? अगर दो जून की रोटी मिल जाए वही बहुत है। जो था वो तो तुमने.. !"

 "जानती हूं सब, मैं पहले से ही बहुत शर्मिन्दा हूं, और शर्मिन्दा मत कीजिए प्लीज़, इस बार माफ़ कर दीजिए अपनी रमा को। "

  "अपनी रमा । कबसे ?"

"ऐसा मत कहिए , अब आप ही का सहारा है, ऐसे हालात में अब कहां जाऊं ? मैंने जो किया वो माफ़ी काबिल तो बिल्कुल नहीं फिर भी आपसे माफ़ी की उम्मीद ज़रूर करती हूं। मैं बेटों के प्यार और गुरूर में सब भूल गई थी - आपको, बच्चियों को, याद रहे तो केवल बेटे, उन्होंने ही हर तरह से अपमानित किया, भुला दिया, मैं आपकी गुनहगार हूं, प्लीज माफ़ कर दीजिए इस गुनहगार को !


मैं तो माफ़ कर दूँगा लेकिन क्या तुम खुद को माफ़ कर पाओगी ? तुम ऐसा कैसे कर पाई ? तुम्हें मेरे प्रति कभी प्यार या अपनापन लगा ही नहीं ? खैर अब इन सवालों का फायदा भी क्या ? तुम रह सकती हो मेरे साथ, मगर तुम्हारे बेटों के द्वारा किराये पर लिये हुए मकान में नहीं, उनका यह एहसान भी नहीं चाहिए, उन लोगों ने डिपोजिट और एक महीने का भाड़ा तो दिया है फिर आगे से खुद ही देना है तो शुरुआत से ही क्यों नहीं, किसलिए ? हां तुम उस मकान में रहना चाहो तो रह सकती हो, मुझे कोई आपत्ति नहीं। एक बात बताओ रमा - तुम ऐसा कैसे कर पाई ? मैं तो पूरी तरह से तुम को और तुम्हारे बच्चों को समर्पित था, अपने बारे में कभी कुछ नहीं सोचा और तुम? तुमने तो हद ही कर दी। बेटों के गुरूत्वाकर्षण में अपनी कोख जाई बेटियों के साथ भी न्याय नहीं कर पाई, याद है तुम्हें - तुमने बच्चियों के साथ क्या किया ? अपने बेटों की जूठन देती थी, बेचारी नासमझ, मासूम खा लेती थी भाइयों के प्यार में पगी। जब बड़ी होने पर भी वही जूठन, मुझे तो कभी पता ही चलता अगर शीलू नहीं बताती, बहुओं के आने के बाद भी तुम्हारा यही रवैया रहा इसलिए शीलू बर्दाश्त नहीं कर सकी और कह दिया अपनी शादी के एक महीना पहले, इसीलिए तो नीलू दीदी शादी के बाद एक दिन से अधिक कभी नहीं रही, मुझसे अक्सर कहती - "मैं तो हिम्मत नहीं जुटा पाई पर तुम पापा को ज़रुर बताना, पापा आप अपना खयाल रखना।" यह जानकार मुझे दुख तो बहुत हुआ पर चुप रहा कि घर में शांति बनी रहे, फिर बच्चे अपने ही तो है, जूठन भी हुई तो क्या हुआ, सोचकर मन को तसल्ली देता लेकिन क्यों ? मैं और बच्चियाँ तुम्हारे लिए क्यों कोई मायने नहीं रखते ? जो तुम्हारे लिए सबकुछ थे मगर तुम उनके लिए कुछ नहीं थी तभी तो तुम्हें भी यूं ही मंझधार में छोड़ गए। ओह कमबख्तों ने मकान भी बेच दिया, खुद के लिए फ्लेट और हमारे लिए ऐसे ही चाॅल में एक छोटा सा मकान भाड़े पर...ओह बेचा तो बेचा, अपने साथ न ले जाकर यूं ही चाॅल में। जिनके लिए अपनी सारी पूंजी स्वाहा कर दी वे ही बदगुमाँ निकले। क्यों रोते हैं लोग बेटों के लिए ? तुम भी तो बेटों की दीवानी हमें उनकी जूठन खिलाने से भी नहीं चुकी । काश...

"अजी , अब और शर्मिंदा मत कीजिए", रमा फफक-फफक कर रो पड़ी, काफी देर बाद सयंत होकर बोली - "इस बात का मुझे बहुत ही पछतावा है ,काश कि बता सकती।" कहते-कहते फिर रो पड़ी। देखकर गोपालजी को रमा पर तरस आ गया - "अच्छा , ठीक है , ठीक है चली चलना हमारे साथ। अब पहले वाला तो मैं हूं नहीं, मात्र गुजारे लायक ही कमा पाता हूं, कर पाओगी गुजारा ?"


"मैंने माफ़ी मांगते हुए बार-बार विनती की है और कर रही हूं मुझे शर्मिंदा मत कीजिए, यकीन कीजिए , मैं बहुत ही शर्मिंदा हूं, कैसे माफ़ी मांगू ? वाकई मैंने बहुत-बहुत ही ग़लत किया है पर अब किया हुआ न वापस लौटा सकती हूं और न ही सुधार सकती हूं, बस सिवा पछताने, माफ़ी मांगने के कुछ नहीं कर सकती। अब आपको कैसे समझाऊं ?"

कोई जरूरत नहीं है समझाने की, बल्कि समझने की जरूरत तुम्हें है, इतने सालों ने बहुत कुछ समझा दिया है मुझे अब कुछ भी बाकी नहीं है समझने के लिए। तुम मेरे साथ आ सकती हो, हां.. अब हम पति-पत्नी तो नहीं रहेंगे एक साथ रहकर भी। इंसानियत के नाते तुम्हारा ख्याल भी रखूंगा, ख़र्चा भी दूँगा पर अपना-अपना खाना हम खुद बनायेंगे। अब हमारा रिश्ता उन दो दिशाओं की तरह है जो सामने तो रहती है लेकिन मिलती नहीं !"

"आप ऐसा..."

अब कुछ मत कहो, चलो अपनी नई दुनिया में जहां जिन्दगी की दूसरी पारी खेलेंगे !

सच में अब रमा कुछ नहीं बोली, बस फफकती हुई गोपालजी के साथ-साथ चलने लगी, गोपालजी उसकी पीड़ा को महसूस कर रहे थे मगर बोले कुछ भी नहीं, भरे गले और भारी मन लिए बोझिल कदमों से चल पड़े। बड़ी हसरत से आखिरी बार अपने घर को एक नज़र देखा, मानो सांसें रुक गई कदम थम गये पल भर को। वाकई पल ही में उनका नीड़ उनसे छिन गया था। 

      


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