Sheetal Raghav

Classics Inspirational

4.5  

Sheetal Raghav

Classics Inspirational

नई राह

नई राह

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विनीता आज अपने घर की छत की मुंडेर पर बैठी गांव की उन महिलाओं के बारे में सोच रहीे हैं, 

जो दिन भर अपना सारा वक्त घर में बिताती हैं।

कितना अजीबो गरीब गांव है।

जहां ऊपर वाले ने बनाते समय यहां की औरतों में कितना हुनर भर दिया है ?

परंतु यहां की औरतों को चूल्हा चौका और गृहस्थी की चारदीवारी से निकलकर कुछ भी करने का मन नहीं करता। 

क्यों इन्हें इनके हुनर का आभास नहीं है ?

अपने आपको अपने अपने पतियों के हाथ की कठपुतली और उनके पैर की जूती समझती हैं।

सुबह उठ कर नहा धोकर और पूजा पाठ करके अपने अपने पतियों और बच्चों की सेवा चाकरी, नौकरी में लग जाती है। 

चाहे उनका पति उनको जूता ही फेंक कर क्यों ना मारे ? 

अगले ही पल सब कुछ भूल कर फिर काम में लग जाती हैं। 

बाद मे घर के आदमियों के घर से बाहर निकलने के बाद बाकी रही सही कसर उनकी सास ननंद और देवरानी जेठानी पूरी कर देती हैं।

तब भी भगवान का मन ना भरे तो आस पड़ोस की लुगाई आ जाती है। कान में मंत्र फुकने।

क्यूरी कल तू घर की देहरी पर खड़े खड़े कंहा और किससे दीद मटक्का कर रही थी। 

मैंने सब कुछ देखा कल्लू की मैया !

रा अपनी बहू की लगाम कस के रखा कर कल्लू की मैया !

चाहे वह औरतें खुद घूम घूम कर पूरे दिन सारे रास्तों की बैंड क्यों ना बजा देती हों।

मगर दूसरे की देहरी पर आकर उसकी बहू की चुगली करना नहीं भूलती।

फिर घर में अपनी अपनी सासों का वही ताना सुनकर सारा कीमती वक्त जाया कर देती है। 

शाम ढले जब घर के पुरुष घर में लौटते हैं तब, वह पानी तो बाद में पीते हैं, पहले मोहल्ले की औरतें किसकी क्या बुराई कर गई, उस में रुचि रखते हैं।

घर के आदमियों को पता चल जाए कि आज खुद की ही बीवी की बात सामने आई है, 

तो .......एक मर्द की मर्दानगी जाग जाती है। मार खाकर भी या औरतें अपने स्वाभिमान को मार कर और ताक पर रखकर फिर गृहस्थी की काम में लग जाती है और पुरुषों की सेवा चाकरी करती हैं। 

क्या इनका कोई स्वाभिमान नहीं है ?

हम्म........

बड़ी विडंबना है।

खाने और चूल्हा चौके से निकलकर अपने-अपने पतियों की शरीर की भूख भी तो मिटानी पड़ती है। 

मजाल है ! 

एक भी दिन की नागा हो जाए। सो घर के सारे काम निपटा कर नहा धोकर सज धज कर अपने आप को उनके सामने प्रस्तुत करती हैं या फिर मैं यूं कहूं कि परोस देती हैं।

अरे .....!

थाली में नहीं ,

उनके बिस्तर पर। जो सजने में थोड़ी कमी रह जाए, उस पर भी ताने,

दिन भर के गए थके मांदे घर में आते हैं, तो जरा सलीके से बन ठन कर खुद को महका कर हमारे पास आया करो।

मूड खराब मत किया करो।

जाओ जरा खुशबू - वुशबू उड़ेल कर हमारे पास आओ। 

जाओ .............।।

ठीक से सज सवँर के आओ।

तब तक मैं अपना मूड बना लेता हूं। 

पति एक बार भी नहीं सोचता कि, दिन भर के काम से ये औरतें भी थक जाती है। 

कभी-कभी शरीर भी उसका साथ नहीं देता। 

परंतु औरतों की मजबूरी कि वह औरत है।

तो फिर सज धज कर आ जाती है। लजाती सकुचाती पलंग तक पहुंच जाती है।

औरतें फिर सज धज कर और अपने आपको व्यवस्थित कर शर्माती हुई सकुचाती हुई पलंग तक पहुंच जाती हैं। 

जानती है वह...........

औरत की उसकी हिम्मत हो ना हो, वह फिर बिस्तर पर रौंदी और पुरुष द्वारा कुचली जाएंगी उनकी देह के नीचे।

इन औरतों का स्वाभिमान बिस्तर पर आकर दम तोड़ देता है। 

एक पुरुष उसका हर तरह से शोषण करता है। 

जब मन भर जाए तब अब क्या यही पड़ी रहोगी कहकर अपमानित कर चैन की नींद सो जाता है।

औरतों के जिस्म से मसालों की गंध आती है तो वे नहा धोकर सज धज कर और खुशबू उड़ेल कर आए। 

परंतु खुद पुरुष पूरा दिन कहीं भी जाए। किसी और का हमबिस्तर हो कर घर लौटे तो, कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वह तो पुरुष है ना ?

औरतें चाह कर भी कुछ बोल नहीं सकती कि आप मे से भी बदबू आ रही है। 

जाओ, 

आप नहा कर आओ, 

मजाल है !

पता नहीं इन गांव की औरतों का स्वाभिमान कब जागेगा ?

कभी ये अपने अपने हुनर को पहचान दे पाएंगी ?

क्या कभी ऐसा होगा ?

वह सोच ही रही थी कि रवि ने आकर उसके ख्यालों पर ब्रेक लगाया। 

विनीता क्या हुआ ? 

आज फिर गांव वालो और उनकी औरतों के बारे में अपने दिल में चर्चा कर रही हो ?

विनीता हां में जवाब देती है।

रवि मैं इन गांव की औरतों के लिए कुछ करना चाहती हूं। 

मैं सच में इनके लिए दिल से कुछ करना चाहती हूं,।

इन औरतो मैं इतना हुनर है, कि जिसका इन्हें आभास ही नहीं है। यह उसका अगर इस्तेमाल करें तो काफी कुछ कर सकती है। 

यह अपनी आजीविका का पर्याय खुद बन सकती है , और स्वाभिमान के साथ सर उठाकर जी सकती हैं।

इन औरतों को किसी के भी पैरों के नीचे नहीं दबना पड़ेगा। 

यह खुद के अरमानों को कुचलकर पुरुष के पैरों की जूती बन जाती हैं। 

अगर यह खुद से स्वाभिमान के साथ जीना चाहें तो अपना काम शुरू कर सकती हैं, और ना ही इन्हें कन्या के जन्म पर पछताना पड़ेगा। 

इन औरतों को अपने ही सामने अपनी दुधमुँही कन्याओं का दम घुटते नहीं देखना पड़ेगा। और न ही अपने सामने आपने मर्द को किसी और का बनते देखना पड़ेगा

रवि !

रवि ! मुझे कुछ रास्ता सुझाओ। 

मैं इनके लिए सच में कुछ करना चाहती हूं। 

तुम इस विषय में बाऊजी से बात करो ना,

प्लीज 

रवी !

हां हां, विनीता जरूर करूंगा। 

तुम इतनी चिंता मत किया करो।

पहले तुम अंदर चलो।

तुम अंदर चलो विनीता ! 

माँं बुला रही हैं। 

रात को खाने की टेबल पर सब खाना खाने बैठते हैं। परंतु विनीता फिर उन्हीं ग्रामीण स्त्रियों की सोच में लग जाती है। 

क्या हुआ विनीता बेटा ! बाऊजी विनीता से पूछते हैं। 

कुछ नहीं बाऊजी कह कर विनीता चुप हो जाती है। 

बाऊजी विनीता गांव की औरतों के विषय में सोच सोच कर परेशान हो रही है। 

इसका सोचना है कि गांव की औरतों के हाथ में बहुत हुनर है, तो वह इस हुनर को आगे ले जाना चाहती है। 

उन्हें काम देना चाहती है। उनका आत्म स्वाभिमान जगाना चाहती है।

बाबू जी 

हां 

रवि को हां में जवाब देते। 

उसके पहले ही कमला जी रवि की मां उनको ना में जवाब दे देती है। 

इसलिए नहीं कि वह नहीं चाहती कि विनीता इस राह में आगे बढ़े बल्कि इसलिए मना कर देती है क्योंकि गांव वाले बहुत ही अड़ियल स्वभाव के और पुराने खयालातों वाले हैं। वह लोग नहीं मानेंगे और विनीता को कुछ परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।

और वह कभी भी नहीं चाहती कि विनीता किसी भी प्रकार की किसी परेशानी का सामना करना पडे।

रवि मां को बताता है। मां कोई परेशानी नहीं होगी। 

वह और बाऊूजी बिनीता के साथ रहेंगे हमेशा।

और आप भी तो विनीता के हर फैसले में उसका साथ देती है, ना ,

फिर आज क्यों मना कर रही हैं ?

रवि बाबू जी से पूछता है बाऊजी क्या आप विनीता के इस नेक काम में उसकी मदद कर सकते हैं ?

जिसमें यह औरतों का आत्म स्वाभिमान जगा कर उनको नेकी की राह पर आगे ले जाना चाहती है। 

बाऊजी कहिए ना!

हाँ, मै जरूर मदद करूगाँ 

इस नेक काम मे।

क्यो रवी की माँ !

कमला जी............

वह मैं .............!

अरे कमला जी आप मान क्यों नहीं जाती ? 

बाऊजी ने कहा।

ठीक है, 

पर मेरी बहू को कोई परेशानी नहीं होना चाहिए। 

मैं कहे देती हूं। 

रवि के बाबूजी और सब लोग खाना खाकर अपने अपने कमरे में चले जाते हैं। 

विनीता अब तो तुम खुश हो ना।

रवि ने पीछे से आवाज लगाई और कमरे में आता हुआ दिखाई दिया। 

हाँ रवि !

आज मैं बहुत खुश हूँ

पता है रवी जब हम इस गांव में, बाऊजी के साथ रहने आए थे। तब मुझे लग रहा था कि मैं इंन जाहिलो के बीच कैसे रह पाऊंगी। 

यहां स्त्री पुरुष में बहुत अंतर है,

रवि ! 

परंतु इन गांव की भोली-भाली औरतों को देखकर इनके लिए कुछ करने का मन करता है।

रवि इन्हें इनकी जंजीरों से, गुलामी की जंजीरों से आजादी दिलाने का मन करता है। 

रवि !

सब लोग बाऊजी की बात मान तो जाएंगे ना ! रवि।

कोई उनकी बातों का उल्लंघन तो नहीं करेगा। 

विनीता रवि से कहती है। 

रवि विनीता से कहता है, 

मेरे बाबूजी कोई छोटे-मोटे इंसान तो है , नहीं विनीता ,

जो कोई उनकी बातों का उल्लंघन कर पाए। 

मेरे बाबूजी एक बहुत बड़े फॉरेस्ट ऑफीसर है, तो किसी की क्या मजाल ! 

जो मेरे पिताजी की बात का उल्लंघन कर सके ?

रवि विनीता को हंसाने का बहुत प्रयास करता है। 

अंततः 

आओ हम भी सो जाते हैं। विनीता बहुत देर हो चुकी है। 

कभी-कभी गांव की औरतों को छोड़कर और इन गांव वालों को एक तरफ रख कर हमारे लिए भी वक्त निकालकर कुछ सोच लिया करो, 

मेरी जान !

रवि विनीता से कहता है।

विनीता और रवि एक दूसरे से बातें करते-करते कब एक दूसरे की बाहों में सो जाते हैं, 

उन्हें पता ही नहीं चलता। 

आज विनीता बहुत सुकून से सो रही हैं। 

रवि उठकर सोचता है,और कमरे के बाहर निकल जाता है। थोड़ी देर बाद हाथ में चाय के दो कप लेकर वापस लौटता है। 

जानेमन उठ जाओ,

सुबह हो गई। 

गुड मॉर्निंग !

कह कर रवि विनीता को जगाता है।

चलो यह लो चाय और बताओ कैसी बनी है, आज मैंने खुद तुम्हारे लिए अपने हाथों से बनाई है।

रवि वह गांव की औरतें ............

हाँँ पता है......।...

मुझे पता है, 

तुम उन्हीं गांव की औरतों के विषय में सोच रही हो। विनीता 

विनीता !

बाबू जी ने हां कह दिया है। 

विनीता आज बाऊजी सरपंच जी से बात करने वाले हैं। तुम्हारे लिए।

चलो अब तुम भी तैयार हो जाओ। 

हमें भी कहीं जाना है। घर में बैठे-बैठे तो काम नहीं होने वाला है ना !

रवि विनीता से कहता है।

रवि वह गांव की औरतें।

चलो अब तुम भी तैयार हो जाओ। 

विनीता हमें भी कहीं जाना है। 

विनीता तैयार होकर रवि के साथ चल देती है। 

रवि विनीता को गांव से थोड़ी दूर एक बड़े से हॉल को दिखाने के लिए आता है। 

विनीता ने वहां आकर रवि से पूछा, 

मुझे यहां क्यों लाए हो ? 

रवि तुम!

 रवि ने कहा जगह कैसी लगी ?

यह और इतनी जगह तुम्हारे और तुम्हारी सेना का काम के लिए ठीक रहेगी। 

विनीता समझ नहीं पाती है।

यह जगह तुम्हारे और गांव की औरतों के लिए कैसी रहेगी ? 

रवि ने विनीता से पूछा, 

विनीता की आंख में आंसू छलक आए।

 रवि यह इतना आसान नहीं है जितना हम इसे समझ रहे हैं, 

सभी को पूछना और मनाना होगा। 

बहुत पुरानी गुलामी की जंजीरें है। यह इतनी आसानी से इन औरतों का पीछा नहीं छोड़ेंगीं। बहुत कुछ करना और सहना होगा। 

हम लोगों को लोगों के तीखे स्वर और आक्रोश को भी बर्दाश्त करना होगा।

त त......तो क्या तुम ? 

क्या !

विनीता तुम इस मार्ग इस राह को यहीं पर बंद कर दोगी। 

इस राह पर आगे नहीं चलना चाहोगी।

जो तुम्हारे मन के अंदर है। उस कार्य को करने के लिए आगे बढ़ो विनीता ! 

मैं तुम्हारे साथ हूं। 

तुम किसी प्रकार की चिंता मत करो। 

मैं हर घड़ी हर पल हर अच्छे बुरे में तुम्हारे साथ हूं। 

तुमने अच्छाई और सच्चाई का मार्ग चुना है। विनीता यह राह कठिन जरूर है, पर नामुमकिन नहीं है।।

सच्चाई की राह थोड़ी सी मुश्किल जरूर होती है। 

विनीता मगर इसका रिजल्ट जब भी मिलता है, तो इसका फल बहुत सुखदाई होता है। 

अब तुम किसी भी प्रकार की चिंता मत करो और अपनी राह पर आगे बढ़ो। 

रवि कहता है।"आई हेट टियर " विनीता 

और विनीता खिलखिला कर हंस पड़ती है।

सच्चाई की राह थोड़ी सी मुश्किल जरूर होती है किसी भी प्रकार की चिंता मत करो और अपनी राह पर आगे बढ़ो। रवि कहता है 

अब यहां से विनीता का नया सफर शुरू होता है।

जिसके लिए विनीता पूरी तरह से तैयार है। 

विनीता घर - घर जाकर औरतों को मनाने का प्रयास करती है। 

कुछ तो विनीता को देखकर अपने घर के दरवाजे बंद कर लेती हैं और कुछ पतियों के डर से घर के बाहर ही नहीं निकलती है। 

जाओ, जीजी जाओ !

हमें नहीं करनो कछु भी काम।

हमें घर में ही रहने देओ , तुम्हाऐ काम के चक्कर में इन्होंने घर से निकाल दियो तो हम कहां जांंगे। 

जीजी हमसे ना हो पाएगो। कुछ भी,

जीजी जाओ। 

तुम अपने घरें जाओ।

तुम अपने घर जाओ। जीजी

हमें चैन से झई रहने दो।

जाओ जीजी जाओ,

हम तुम्हारी बातों में नहीं आएगीं हमें कोई काम वाम नहीं करनो।

हमें यही घर में चैन से रहने दो।

विनीता ने हार नहीं मानी। वह लगातार प्रयास करती रही। गांव की औरतों को मनाने के लिए 

गांव के पुरुष सभी और विनीता और रवी का तरह तरह से मजाक बनाया करते थे।

और उन पर ताने कसते कुछ ना कुछ उनके लिए उटपटांग कहते थे। 

जैसे यह दोनों गली गली मोहल्ले मोहल्ले सड़क नापते घूमे हैं। ठीक वैसे ही चाहे हैं कि हमारी घर की औरतें और छोकरिया भी मुँँह उघाडे घूम घूम कर हमाओ नाम रोशन करें। 

रवि और विनीता चुपचाप बातों को अनसुना कर अपने अपने काम में लग जाते। 

अंततः 

रवि और विनीता सरपंच साहब के घर पहुंचते हैं। 

सरपंच साहब विनीता को इसका बात की मंजूरी तो पहले ही दे चुके थे, कि विनीता अपना काम गाँव में शुरू कर सकती है। पर घरों की जेल से औरतों रूपी कैदियों को कैसे निकाला जाए। यह सरपंच साहब का काम नहीं होगा। 

अपितु या पूरी तरह से विनीता की जिम्मेदारी होगी। 

सरपंच साहब, आप ही हमें कुछ रास्ता सुझाये।

हम बहुत आशा के साथ आपके सामने आऐ हैं। 

विनीता बेटा मैं औरतों के काम करने के खिलाफ नहीं हूं। 

पर गांव की औरतों के घर में जो उनकी जेलर सासे हैं, उनके चंगुल से बहू को निकालना बहुत मुश्किल काम है,

और वह नहीं निकलने देंगे।

पर देखो विनीता !

सरपंच साहब ने विनीता से कहा, 

विनीता सरपंच साहब से कहती है। 

मना मत कीजिए। सरपंच साहब बड़ी उम्मीद लेकर मैं आपके पास आई हूं। 

वैसे भी दिन में औरतें और लडकियां इधर उधर बैठकर वक्त गुजारती हैं, जो वह समय कुछ करने में लगा देते। इसमें हर्ज ही क्या है ?

विनीता ने कहा, 

यह सब बात एक तरफ खड़ी सरपंच जी की पत्नी सुन रही थी। 

एकाएक बोली बेटा मैं तेरे साथ हूं और मेरी दोनों बहुएं भी तेरे साथ चलेंगे। बता देना कब और कहां जाना है ?

सरपंच साहब ने अपनी पत्नी को आंखें दिखाई और दूसरी तरफ मुंह कर लिया। 

हां काकि हम चार मिलकर शुरुआत करेंगी तो बाद में बाकी सब धीरे-धीरे आ जाएंगी। 

हम अगले सोमवार से अपना काम शुरू करेंगे। 

अभी मैं चलती हूं, और सोमवार को आप सब को लेने आ जाऊंगी। 

नमस्ते सरपंच साहब 

रवि और विनीता वापसी के लिए निकल पड़ते हैं। 

क्या ज़रूरत थी तुम्हें बीच में बोलने की ?

भाग्यवान मैं संभाल रहा था।

तुम्हें बीच में बोलने की क्या जरूरत थी।

 मैं सब कुछ संभाल रहा था ना !

 देखो जी आप सरपंच हो गांव के।

गांव की औरतों का भला होवेगौ तो 

इस गांव के सरपंच को नाम हो जायेगौ ।

तुम कतई कोई चिंता ना करो। 

सरपंच जी

नहीं समझ में आयेगो तो घर तो कहीं नहीं गयों है। 

कहकर सरपंच की पत्नी भीतर चली जाती है।

उधर विनीता गांव के बाहर के हॉल में जाकर कुछ तैयारियां कर लेती है। थोड़ा-थोड़ा हॉल को सजा और सवांंर देती है। 

रविवार की शाम वह रवि से कहती हैं कि 

गांव की औरतें आ तो जाएंगी ना रवि !

रवि उसको तसल्ली देकर सोने के लिए कहता है। 

सोमवार की दोपहर विनीता तैयार होकर सरपंच साहब के घर पहुंच जाती है और काकी और उनकी बहुओं के साथ अपने हॉल में वापस आती है 

जहां वह काफी और उनकी दोनों बहुओं से उनकी पसंद का काम पूछती है।

काकी को हाथ के पंखे बनाने आते थे और उनकी दोनों बहुओं को पुराने कपड़ों की कतरन और चिंदीयो से चटाई और दरी बनाना अच्छा लगता था। 

सो विनीता उनसे संबंधित सामान की सूची बनाकर और थोड़ा काम के विषय में बता कर उनको घर छोड़ देती है। 

अगली दोपहर को काकी और उनकी बहू की पसंद का सामान आ जाता है और विनीता का काम शुरू हो जाता है।

काकी की दोनों बहुओं को पुराने कपड़ों की कतरनओं से चटाई और दरी बनाना शुरू कर देतीं है। 

एक हफ्ता बीता है और दो और गांव की औरतें शामिल हो जाती हैं। 

धीरे-धीरे काम तो शुरू हो जाता है और दिन में 4 घंटे काम करती है और चली जाती हैं। 

उनमें आत्म सम्मान जागने लगता है कि वह कुछ करने के लायक तो है।

2 महीने के बाद गांव की और औरतें भी उनके साथ जुड़ने लगती हैं। 

किसी को अचार पापड़ और बढ़ियांं बनाना पसंद था, तो कुछ सिलाई बुनाई और कढ़ाई में माहिर थी। 

कुछ दुपट्टे पर कशीदाकारी करती थी, तो कुछ साड़ी पर।

इनमें से कुछ तो ऐसी थी जो जुट और लकड़ी के खिलौने बनाने का हुनर भी रखती थी। 

विनीता ने उन महिलाओं की मदद से सूखे मसाले का काम शुरू किया। 

धीरे-धीरे कारवां और बढ़ता गया। 

अब तक विनीता अपने काम को लेकर गांव-गांव बहुत मशहूर हो गई थी।

अब बारी आई संस्था का नाम रखने की तो सर्वसम्मति से "स्वाभिमान" संस्था नाम तय पाया गया। और अब तक सैकड़ों और 23 गांव की और आसपास के गांव की "स्वाभिमान" में जुड़ती गई। 

गांव के पुरुषों ने भी अपनी अपनी औरतों को सहयोग देना शुरू कर दिया था। 

देखते ही देखते उस गांव से "स्वाभिमान" में बना सामान शहरों तक जाने लगा। 

शहरों से निकलकर एग्जिबिशन में बड़ी-बड़ी दुकानों पर बुटीक में और इंटरनेशनल प्लेटफार्म पर भी "स्वाभिमान"  का सामान को जगह मिल गई।

कई सौंदर्य प्रसाधन इंटरनेशनल मार्केट में पसंद किए जाने लगे।

जिससे कि संस्था का काम काफी बढ़ गया था और उसको बड़े पैमाने पर काम मिलने लगा।

और संस्था की आमदनी भी बढ़ गई जिससे कि सामान को खरीदने का पैसा निकालने के बाद सभी को मासिक वेतन भी दिया जाने लगा।

 गांव की औरतें "स्वाभिमान" में आकर स्वाबलंबी और कर्मठ कार्यकर्ता बन गई थी।

जिससे कि उनके घर के पुरुषों के दिमाग में पनपने वाले दिमागी कीड़े झड़ गए थे।

अब गांव के पुरुष अपनी-अपनी पत्नियों पर नाज करने लगे थे। 

अब शाम को घर में आते पुरुषों की जूतियां की चर्र - चर्र से डर नहीं लगता था। 

अब औरतें उनके हाथ की कठपुतली भी नहीं थी। 

अब गांव की औरतें पुरुष के बराबरी में बैठकर घर के फैसलों में भी उनका सहयोग किया करती थी।

जो भी कुछ था, आपसी प्यार और सहमति से था। 

आज विनीता उसी छत की मुंडेर पर वापस बैठी बहुत खुश थी। 

आज आसमान भी साफ था और पक्षियों का कलरव भी साफ-साफ सुनाई दे रहा था।

ठीक वैसे ही जैसे गांव की औरतें स्वाभिमान के आसमान तले स्वच्छंद और खुले पंखों से अपने भविष्य के सपनों के साथ उड़ रही थी। 

आज वह आजाद की अपने सपनों की दुनिया में।

आज विनीता को तो "नई राह" मिली ही साथ ही साथ गांव की औरतों और पुरुषों का नजरिया भी स्वाभिमान को लेकर साफ हो गया था। आज सभी गांव वाले और आसपास के गांव वालों के लिए प्रगति की "नई राह" मिल गई थी।

कुछ समय रवि के पिता जी का तबादला दूसरे गांव में हो जाता है और वह सब वहां जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। 

तब विनीता अपने सारे स्संथा के काम की और "स्वाभिमान" की जिम्मेदारी सरपंच जी की पत्नी (काकी) को और उनकी दोनों बहुओं के सुपुर्द कर के रवी के पिताजी और अपने परिवार के साथ दूसरे गांव में रहने चली जाती है। 

यहां फिर वह औरतों को फिर एक "नई राह" पर ले जाने का प्रण करती है।और एक नये "स्वाभिमान" बनाने की राह में वह आगे बढ़ती है, 

ताकि उस गांव के लोगों को और वहां की औरतौ मे भी आत्म सुरक्षा और उनमे भी एक नर्ई चेतना का संचार कर सके। 

और बढ जाती है, फिर एक बार अपने जीवन के लिए और गांव वालो के लिये स्वाभिमान के लिए "नई राह" पर।


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