" नौ सौ चूहे खाकर ........."
" नौ सौ चूहे खाकर ........."
आज जैसै ही सुनैना ने घर सें कदम बाहर रखा, आसपास सुगबुगाहट तेज हो गयी थी। रोज जब वो घर से निकलती थी तो ऐसा कुछ नहीं होता था, आज क्या हुआ है वो समझने की कोशिश कर ही रहीं थी कि एक पत्थर सनसनाता हुआ उसके माथे पर आकर लगा। सामने से भोला काका बोले " हम सब तुमकों देवी समझे थे, कैसे तुम गाँव में हर किसी के काम आ जाती थी, बच्चों को पढ़ाती थी और तो और जो हो सकता था वो करके गाँव वालों की मदद करती थी।" " पर मैंने किया क्या है बाबा क्या हो गया ?" उसने हैरानी से सबकी तरह देखते हुये पूछा तभी पीछे से रमली ताई चमकते हुये बोली" हाय राम, यह देखो जरा नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली" तभी सरपंच जी ने हुक्म सुना दिया " मास्टरनी जी हमें आपके बारे में सब पता लग गया है, अब आप इस गाँव में नहीं रह सकती।" शहर से आये भोला को मुस्कुरातें देख वो पल भर में बात की जड़ तक पहुँच गयी और बेबसी से बोली " सरपंच जी, मेरी ज़िंदगी के उस भयानक सपने में मेरा कोई कसूर नहीं था, मैं तो अपने स्कूल जा रही थी, जब कुछ लोगों ने मुझे अगवा करके जहन्नुम में पहुँचा दिया, फिर किसी तरह में वहाँ से भाग निकली पर घर वालों ने साल भर बाद लौटी बेटी को अपनाने से इनकार कर दिया। मैं सारे जाननेवालों से दूर इज्जत की चाह में इस गाँव की पनाह में थी। मुझे ऐसे दरबदर मत किजिये।" उसकी बात सुनकर सरपंच साहब अपनी मूँछों को ताव देते हुये बोले ," जानती हो ना एक गंदी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है। इसलिए आज के आज गाँव से बाहर चली जाओ।" " पर सरपंच साहब मेरी कोई गलती नहीं थी और अब तो मैं दलदल सें बाहर भी आ गयी हूँ। " वो आँखों में उमड़ आये सावन को बरसने से रोकते हुये बोली। "माफ करें हमें मास्टरनी जी, आज रात तक का समय है आपके पास उसके बाद अगर आप गाँव में नज़र आयी तो अच्छा नहीं होगा।" सरपंचजी धमकी देते हुए बोले। सुनैना बेबस सी घर के अंदर आ गयी। उसे लग रहा था की एक बार फिर जिंदगी की लहरों ने उसे तेज तूफान में लाकर छोड़ दिया है।
जैसे तैसे वो अपना बोरिया बिस्तर समेट कर स्टेशन के लिए निकली। रास्ते में ही उसे भोला मिल गया। वो अपनी शेखी झाड़ते हुए बोला " बहुत गुरूर था ना तुम्हें खुद पर, हमको आज भी याद है जब हम शहर में तुम्हारें पास आये थे, तो कैसे तुमने हमारा मुँह नोच लिया था। अब चलों हमारे साथ वो गलियां तुम्हारा इंतज़ार कर रही है।" भोला की बात सुनकर सुनैना गुस्से से दहकती हुई बोली "इस गलतफहमी में मत रहना, की तुमने मुझे गाँव से निकलवा दिया। तो मैं उस नरक में वापस जाउंगी। मेरे रास्ते में मत आना नहीं तो अंजाम अच्छा नहीं होगा।" कहने को तो सुनैना ने कह दिया पर अब उसे सच में समझ नहीं आ रहा था की उसे आगे क्या करना है। उसने खुद को वक्त के धारे के साथ छोड़ दिया और स्टेशन पहुंच कर सामने खड़ी मालगाड़ी में दुबक गयी। ट्रेन के चलते ही वो भी नींद के आगोश में चली गयी। जब सुनैना की आँख खुली तो एक पल तो समझ ही नहीं पायी की वो कहाँ है, पर फिर उसे धीरे धीरे बीता दिन याद आ गया। स्टेशन के बाहर आकर देखा तो लगा, सिर्फ उसकी ही दुनिया बदली है बाकी सब तो वैसे ही जिंदगी की भागदौड़ में लगे हुए है। उस बड़े से शहर में कोई ना कोई ठिकाना उसे भी चाहिए था, वो समंदर की लहरों को देखती और फिर धीरे धीरे बढ़ती शाम को गहराती रात उसे फिर डरा रही थी। वो वापस रेलवे स्टेशन आ गयी, कुछ सुरक्षित महसूस किया उसने खुद को वहाँ इस शहर की एक बात बहुत अच्छी थी यह कभी सोता नहीं था। तभी एक लड़की उसके पास आकर बैठ गयी। वो अपनी लोकल ट्रेन का इंतजार कर रही थी। उसने थोड़ी देर सुनैना को देखा और फिर उसकी तरफ हाथ बढ़ाते हुए बोली " हाय मैं अनन्या, आप मुझे कुछ परेशान सी लग रही है , हो सके तो मुझे बताये, हो सकता है मैं आपकी कुछ मदद कर दूँ।" सुनैना ने एक पल को उस अंजान लड़की को देखा और फिर नहीं में गरदन हिलाते हुए बोली " नहीं मुझे कोई परेशानी नहीं है, मैं भी बस अपनी ट्रेन का इंतजार कर रही हूँ।" यह कहकर मन ही मन खुद से बोली ,"ऐसे कैसे किसी पर भी भरोसा कर लूँ , वैसे भी दूध का जला छाछ भी फूँक फूँक कर पीता है।" सुनैना की बात सुनकर वो लड़की मुस्कुराते हुए अपनी गोल गोल आँखे नचाते हुए बोली " मेरा अंदाज़ा कभी गलत नहीं होता। पता नहीं आज कैसे, कोई नहीं मेरी तो ट्रेन आ गयी बाय।" यह कहते हुए वो भीड़ मे ओझल हो गयी। सुनैना ने एक बार फिर सीट पर सर टिका कर आँखे बंध कर ली। रात बेहद धीरे धीरे गुजर रहीं थी, जाने क्यों सुनैना सूरज की पहली किरण का ऐसे इंतजार कर रही थी जैसे चातक स्वाति नक्षत्र की बारिश के पानी की बूंदों का इंतजार करता है। धीरे धीरे ही सही पर वो रात भी गुजर ही गयी और एक बार फिर अनन्या उसके सामने खड़ी थी " अरे आप अब तक यहीं है आपकी ट्रेन नहीं आयी क्या ? कौन सी ट्रेन से कहाँ जाना है आपको।" इस बार सुनैना अनन्या को सामने देख कर खुद को रोक ना सकी और बोली " मुझे खुद नहीं पता की मेरी ट्रेन कौन सी है।अच्छा सुनों तुम मुझे कोई काम दिलाने मे मेरी मदद कर सकती हो क्या ?" " हाँ हाँ क्यों नहीं, आप मेरे साथ पास के मॉल चलों, वहाँ कल ही एक जगह खाली हुयी थी।" अनन्या चहकते हुए बोली । प्यारी चुलबुली सी अनन्या सुनैना को किसी फरिश्ते से कम नहीं लग रही थी और फिर उसका हाथ थाम कर वो एक नये सफर पर निकल पड़ी। हिचकोले खाते हुए ही सही पर सुनैना की गाड़ी एक बार फिर पटरी पर आने लगी थी। दिन तो काम में और अनन्या की बे सिर पैर की बातों में गुजर जाता पर रात की तन्हाई सुनैना को नागिन की तरह डसती थी, पीछे रह गये अपने उसे बहुत शिद्दत से याद आते थे और वो यादों के समन्दर में डूब जाती थी।
आज रोज की तरह का दिन था, सब अपने अपने काम में लगे हुए थे की तभी मॉल में हडकंप मच गया, मॉल का एक बड़ा हिस्सा आग की चपेट में था। कुछ आतंकवादियों ने हमला कर दिया था, सब अपनी अपनी जान बचाने में लगे थे, पुलिस भी आ गयी थी और सेना भी, पर आज इंसानी जान की कोई कीमत ही नहीं थी। आतंकवादी अपनी मनमर्जी में लगे हुए थे। सेना और पुलिस कोशिश कर रहे थे पर वो आतंकवादियों से लोगों को बचाने में सफल नहीं हो रहे थे। इधर सुनैना आग में घिर चुकी थी, पास ही कुछ मासूम बच्चे भी आग की चपेट में आ गये थे। सुनैना ने अपनी जान की परवाह छोड़ कर सारे बच्चों को सुरक्षित जगह पर पहुंचा दिया इधर आर्मी भी आतंकवादियों को ठिकाने लगाने मे सफल हो गयी। इस सारी जद्दोजहद मे सुनैना बहुत बुरी तरह से झुलस गयी थी। हर न्यूज चैनल अब उसकी बहादुरी की ही बात कर रहा था। अस्पताल में सीरियस हालत में सुनैना एक बार फिर जिंदगी से लड़ाई लड़ रही थी। बेहोशी की हालत में उसे लगा की उसके हाथों पर पानी की बूंद गिरी। उसने धीरे धीरे आँखे खोल कर देखा तो सामने उसकी माँ बैठी थी। माँ को सामने देख वो खुशी से रो पड़ी और उनका हाथ थामते हुए बोली "माँ, मैं बेकसूर थी फिर भी मुझे इतनी सजा क्यों मिली ? मुझे तेरे आँचल में भी पनाह ना मिली।" "मुझे माफ़ कर दे बेटी, मैं दुनियावालों से डर गयी थी पर अब मैं खुद को तुझसे दूर नहीं करूँगी तेरे लिए पूरी दुनिया से लड़ जाऊँगी।" माँ के आँचल तले सुनैना चैन की नींद सो गयी पर एक ऐसी नींद जो कभी नहीं टूटती है।