नाला नाला जिन्दगी
नाला नाला जिन्दगी


नाला नाला जिंदगी "देख री दिदिया।कैसी दौड़ लगात हूँ मैं " "रुक जा रे भोला।तेरी नयी बुस्सर्ट कीच में सन जाएगी" उमस भरी तेज गर्म दोपहर में अपने छोटे भाई भोला को पकड़ने भागती ललिया बिन बरखा में भीगे अपने शरीर से बहते पसीने से सिक्त थी। अपनी नई फ्रॉक और भोला की नई बुश शर्ट बचाने को वह उसको पकड़ कर घर ले जाना चाहती थी कि अचानक घिर आए बादल बरसने लगे। यह क्या आसमान से तो काला पानी टपक रहा था। उसकी उजली फ्रॉक काली हुए जा रही थी और बेतहाशा भागता भोला कीचड़ के गड्ढे में गिर गया। "बच भोला", चीखती ललिया झटके से उठ बैठी। उमस भरी रात में उसका चेहरा पसीने से पूरा भीग चुका था। उसकी मड़ैया की छत के तिरपाल को हवा का तेज झोंका तेजी से हिला मानो मड़ैया को छत विहीन करने को प्रतिबद्ध था। लगता था कुछ ही देर में तेज बारिश की बूंदे भी अपना दर्शन करा जाएंगी। जहां भोला को लिए अम्मा चारपाई पर सो रही थी वही अकारण नींद खुल आई ललिया नीचे दरी पर करवटें बदलने लगी।
फ्रॉक का स्मरण आते ही उसने अपने बदन को टटोला फ़िर निराशाजनक उच्छवास लेकर करवट लेकर लेट गई। कहां नयी फ्रॉक। वह तो फटा कुर्ता ही पहनी थी। और भोला वह तो पुरानी फटी बनियान में ही पड़ा था। कितने दिनों से वह अम्मा को कह रही थी। एक नया कुर्ता लेने को। अम्मा तो नहीं समझती थी लेकिन वह बखूबी समझती थी ।लोगों की उसके उघड़े बदन को देखती निगाहों को। अम्मा भी क्या समझे। जहां दो जून की रोटी के लिए ही उसे और अम्मा को दिन भर खटना पड़ता है, वहां नई कुर्ते और शर्ट की कहां जगह थी। और फिर वह अपने लिए एक नई कुर्ता ले भी आए तो भला भोला को शर्ट ना लाएगी। बिना उसे नई कमीज पहनाए उसके तन पर नया कुर्ता कैसे टिकेगा। बेचैनी में वह मड़ैया के दरवाजे पर टिकी अस्थाई लकड़ी की किवाड़ को हटाकर धीरे से बाहर आ गई।
उसके शुष्क जीवन की तरह शुष्क और नीरस लगने वाली उसकी मड़ैया अब शुरू हो चली बरखा की बूंदे पड़ने से चांदनी सी चमक रही थी। मानो चंद्र किरणें उस पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो। दिनभर की तपन व अशांति लिए हवा भी अब बादलों के रूप में बरस वातावरण में खोने को तैयार थी। वह मुंह ऊपर उठाएं आंखें बंद कर उन बूंदों को अपने अशान्त और उद्वेगमय शरीर पर आत्मसात करना चाहती थी कि तभी उसे याद आया फटा तिरपाल तो मड़ैया में पानी भर देगा। उसे खीज सी होने लगी। कितना सोचा था कि चौमासा आने से पहले नया तिरपाल छत पर बांध देंगे। पर जहां सुबह का खाना खाने के बाद यह नहीं पता कि रात को रोटी का इंतजाम हो पाएगा या नहीं। ऐसे में तिरपाल कैसे आता। बारिश तेज हो चुकी थी। अम्मा की तेज आवाज सुन चेतना शून्य वह जैसे तंद्रा से जागी। घर के अंदर पहुंची तो देखा छत टपक रही थी और अम्मा सोते भोला को खाट समेत कोने में खिसका रही थी। उसे देखते ही चिल्लाई, "आ री ललिया! हाथ बटा ।भैया की खाट को किनारे कर नहीं तो भीग कर उठ जाएगो। इत्ती रात में जा टैम तू बाहर का कर रही थी।" "कुछ ना अम्मा बाहर देखन गई थी बदरी कित्ती काली है" कहती हुई वह सोते भोला की खाट खिसकाने लगी। तभी एक सिसकी उसके होठों से निकल गई। " क्या हुआ री ललिया।
कछु चुभ गया का हथेली में" अम्मा चौंक उठी थी। इतने में उठ बैठा भोला बोला," दिदिया के सिगरे हाथ जरे पड़े हैं।" "जल गई ।कैसी जल गई री ललिया" ललिया के लाल जख्मी हाथ को अपने हाथ में लेकर उसकी मां मुनरी गुस्सा करते हुए बोली। "अम्मा सबको तो गरमा गरम चाय और खानो चाइऐ वह भी जल्द से जल्द", नीचे मुंह दिए अम्मा से आंखें बचाती हुई ललिया बोली। दोनों भाई बहन को खाट पर सुला अब मुनरी नीचे दरी पर टपकते पानी से खुद को बचा करवटें बदल रही थी। उसकी आंखें ज्यादा नीर बहा रही थी या यह बदरी ।दोनों में मानो प्रतिस्पर्धा लगी हुई थी। जीवन के किस मोड़ पर रामकिशन उसका साथ छोड़ गया था। कैसे वह इन मासूमों के साथ अपनी गृहस्थी चलाएं। दैनिक मजदूर रामकिशन जब निर्माणाधीन भवन की छत से गिरकर दम तोड़ गया तब उस पर तरस खा या यूं कहो उसकी जवानी पर लार टपकाते ठेकेदार ने उसे रामकिशन की जगह रख लिया था। मुनरी की बेरुखी से अपने मंसूबे कामयाब ना होते देख ठेकेदार अब उसे नित्य तंग करता था और आए दिन उसकी दैनिक मजदूरी में से रुपए काटकर ही उसे पकड़ाता।
गांव में गिरवी रखी जमीन फसल के डूब जाने से हाथ से जाती रही। अपने परिवार के पेट भरने हेतु रामकिशन को गांव से शहर का रुख करना ही पड़ा। लेकिन यहां उसका संघर्ष घटने की बजाय और बढ़ गया । पांच साल में जहां वह केवल एक छोटी सी मड़ैया का इंतजाम कर पाया था वही दमा और सांस की बीमारी ने उसे आ जकड़ा था यह बीमारी तब जानलेवा बनी जब एक बार बुरी तरह से खांस रहा वह बारिश से चिकनी हो चली मिट्टी पर अपना नियंत्रण खोकर निर्माणाधीन भवन की ऊपरी मंजिल से नीचे आ गिरा। कितना रोका था उस दिन मुनरी ने रामकिशन को। लेकिन वह कहां माना। खांसते दम निकला जा रहा था और वह था कि काम पर जाने को तैयार हो गया था। "काहे जा रहे हो काम पर। इत्ती सांस फूल रही है। कुछ दिनों की छुट्टी काहे ना ले लेते" अरी अभी छुट्टी लै लुंगो तो चौमासे में कौन काम देगो। ठेकेदार तो वैसे ही मुझे निकालन को कब से तैयार है। मेरे बैठत ही नयी भर्ती कर लेगो। और फिर बारिस सुरू है चली है। छत को भी तो इंतजाम करनो है। कुछ इंतजाम है जाए तो पटिया से छत मड़ दुंगो। कब तक तिरपाल से काम चलैगो। देखो आज ही ठेकेदार से कुछ एडवानस मांगत हूं।" तिरपाल का इंतजाम कर रामकिशन तो नहीं लौटा। साथ के चार छह मजदूर उसके मृत शरीर को जरूर मुनरी को सौंप गए थे। मुनरी और दोनों बालकों के रुदन के आगे गड़गड़ाते मेघ भी परास्त हो गए थे। संघर्षों से अब मुनरी का चोली दामन का साथ हो गया।
दिनभर बुरी तरह से थकने के बाद हाथ आए पैसे दो बखत की रोटी के लिए कम होते देख बराबर की मड़ैया के बिरजू काका के कहने पर उसने ललिया को सड़क किनारे बने ढाबे पर काम के लिए लगा दिया था। किशोरावस्था में प्रवेश करती ललिया अपने भाई भोला को लेकर ढाबे पर मुंह अंधेरे ही पहुंच जाती। झाड़ू बुहार कर जल्दी चाय चढ़ा देना उसका नित्य कार्य था। लोगों को खाना खिलाती वह कब की स्वयं ढाबा मालिक का निवाला बन गई होती अगर वहां बर्तन मांजते बिरजू काका के मालिक को चेताते आग्नेय नेत्रों ने उसको उसकी हद में ना बांधे रखा होता। अपने मंसूबे पूरे ना हो पाने का गुस्सा ढाबा मालिक भोला को अक्सर पीटकर निकालता। उसको बचाते बचाते ललिया भी अक्सर पिट जाती। कुछ शारीरिक थकान और पिटाई से और लोगों से खुद को बचाने में हुई मानसिक थकान ललिया को शाम तक तोड़ कर रख देती। ढाबा मालिक की ललचाती निगाहों से तंग आकर वह कब का ढाबा छोड़ चुकी होती गर नन्हे भोला को दोपहर में पेट भर कर खाता देखकर उसकी निगाहें संतृप्त ना होती । दोपहर को काम के एवज में मिली एक थाली में वह पहले जी भरकर भोला को खाने देती फिर जो भी कुछ बचता वह उसे खाकर बहुत प्रसन्न होती ।आखिर उसके प्यारे भाई का पेट जो भर गया होता। एक दिन अपनी कमर की तरफ घूरते मालिक को देखकर जब उसका हाथ अपनी कमर पर गया तो वहां से फटा कुर्ता उसे अंदर तक ग्लानि दे गया। अपनी रेशमी चुन्नी से बमुश्किल कमर को छुपाती वह जब चाय बनाने लगी तो मालिक ने आकर दांत दिखाते हुए उससे कहा, "इस भोला को घर छोड़कर शाम को ढाबे पर आ जा तुझे बाजार से नया सूट दिलवा लाउंगा।
तेरे भाई को भी नई शर्ट पहना दूंगा" अपनी तरफ बढ़ते मालिक से डरी ललिया हिम्मत करके कुछ कहने वाली थी उससे पहले बिरजू काका ने बीच में आते हुए कहा, "अपने काम से काम रख तू लाला। कपड़े पहनाने को अभी इसकी मां जिंदा है" दांत पीसते हुए ढाबा मालिक वहां से चला गया। ललिया को सिर झुकाए खड़ा देखकर बिरजू ने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "ललिया इस बार के साप्ताहिक बाजार से कुछ नए कपड़े खरीद लाएंगे" बेबस बिरजू काका आंखों में आंसू लिए वहां से हट गए थे। अपनी बिस्तर पर पड़ी पत्नी और अपाहिज बेटे का बोझ उठाते बिरजू काका पहले से ही इलाज के लिए साहूकार के कर्जे में डूबे हुए थे। ऐसे में भला ललिया के आश्रय दाता कैसे बनते ।वह तो बस उसे मानसिक संबल ही दे पाते। अब रोज सी बारिश हो रही थी।
फटे तिरपाल से आता बारिश का पानी पूरी मड़ैया को दलदल कर जाता । वह तीनों भी सोते हुए प्राय ही भीग जाते थे। घर के ठीक बाहर की जमीन भी बेहद दलदली हो गई थी। मुनरी अपनी झोली में चाहे कितनी भी मिट्टी भर कर ला वहां डालती। अगली बारिश में वह जमीन फिर दलदल हो जाती। तीनों बड़ी मुश्किल से उस जगह को पार कर पाते। अब बारिश में वह कैसे तिरपाल का इंतजाम करे। और कैसे घर के बाहर की जमीन को पक्की करवाएं यही चिंता उसे खाए जा रही थी। अचानक एक दिन ललिया को एक अवसर मिला। सुबह अपनी तबीयत थोड़ी खराब बताता भोला उसके साथ ढाबे पर आने को मना कर रहा था। उसका माथा गर्म हो चला था ऐसे में आज मुनरी ने काम से छुट्टी ले ली थी। आज ढाबे पर विद्यार्थियों से भरी एक टूर बस आकर रुकी। नन्ही ललिया को दौड़ दौड़ कर खाना सर्व करते देख सभी ने जी खोलकर ललिया को टिप दी। बारिश के बीच में पकौड़े खाते और गरमा गरम चाय पीते हुए वे सभी नौजवान विद्यार्थी जहां बारिश के मौसम की तारीफ कर रहे थे वही ललिया को यह मौसम कितना कष्टकारी था यह उसकी आत्मा ही जानती थी। ललिया के पास अच्छी खासी रकम जमा हो गई थी। जहां उसके हाथ नोटों को पकड़े कंपकंपा रहे थे वही उसकी चमकती आंखें अश्रुपूरित थीं। ढाबे का मालिक ललिया से रुपए छीनने ही वाला था कि बिरजू काका ने मालिक को ऐसा करने पर काम छोड़ने की चेतावनी दे दी थी। सालों से वफादार बिरजू काका को खोने के डर से मालिक ने ललिया से वह रुपए नहीं लिए। उत्साह में भरी ललिया जल्दी से जल्दी घर पहुंचकर मां के साथ नया तिरपाल लाना चाहती थी।
लेकिन मड़ैया में कोई नहीं था। वह बेचैनी से अम्मा और भोला का इंतजार करने लगी। थोड़ी देर में मुनरी भोला को गोदी में लेकर आती दिखाई दी। तेज बुखार से भोला का बदन तप्त अग्नि सा दहक रहा था। तिरपाल के इंतजाम को किए पैसे अब भोला की बीमारी में काम आ गए थे। लेकिन भोला का बुखार था कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। आज सुबह से भोला अचेत सा था। "इसकी तबीयत तो बिगड़त जा रही है। अम्मा तू इसे बढ़िया जगह भर्ती करा दे" "ले तो जाऊं री ललिया पर हाथ में एक पैसा ना है" गोदी में अचेत भोला को लिए मुनरी अब रोने को हो आई थी। "तू चिंता ना कर। ले जाने के लिए पोटली बांध। मैं रुपये का इंतजाम करके आत हूँ " टिप के सारे पैसे ललिया के द्वारा रखे जाने से ढाबा मालिक पहले से ही ललिया से चिढ़ा हुआ था। वह किसी भी कीमत पर उसे एडवांस ₹10 भी देने को तैयार नहीं था।
बिरजू काका भी आज नहीं आए थे साथ। तेज आवाज के साथ तूफानी बारिश हो रही थी ।ललिया के बहुत गिड़गिड़ाने पर भी जब मालिक ने पैसे नहीं दिए तो ललिया घुटने के बल बैठ कर रोने लगी। उसे हताश देख अब मालिक ने आगे बढ़कर उसका दुपट्टा छीन लिया था। इधर मालिक के हाथ में उसका दुपट्टा आया ही था कि बराबर रखे बेलन से ललिया ने पूरी जोर से उसके सिर पर वार कर दिया। रक्त रंजित मल्लिक फर्श पर बेसुध पड़ा था। ललिया के कांपते हाथ बड़ी तेजी से गल्ले से रुपए समेट रहे थे। रुपए ले वह बेतहाशा बस्ती की ओर भागे जा रही थी। जल्दी से जल्द भोला को अस्पताल में जो भर्ती कराना था। मड़ैया से अपनी अम्मा के आती तेज रोने की आवाज और बाहर खड़े लोगों की भीड़ देख अपनी मड़ैया तक जाते रास्ते में कीचड़ में फंसे अपने पैर को निकालने की अब उसमें शक्ति नहीं थी। पीछे से आती पुलिस की जीप की सायरन और मड़ैया में अम्मा का रुदन सुन वह स्वयं भी चेतना शून्य होकर अब दलदल में गिर गई थी। हाथ में पकड़े सारे नोट कीचड़ में बहे जा रहे थे। उन्हें समेटने की भावना अब मर चुकी थी।