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Krishna Khatri

Drama

4  

Krishna Khatri

Drama

न होते तो ?

न होते तो ?

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आज मैं उससे मिला, लगा यह मेरे लिए परफेक्ट मैच है इसलिए दादाजी का कहना मानना ठीक समझा और मैंने हां कर दी। शादी की तारीख दो महीने बाद की निकली, इस बीच मैं और सपना मिलते रहे, दो-चार बार मिलने के बाद कुछ अजीब सा लगने लगा फिर भी मिलता रहा लेकिन अब लगने लगा- यह मेरे लिए परफेक्ट मैच नहीं है पर सपना से कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी, सबसे बड़ा रोड़ा यही था कि मैं ज्यों - ज्यों कुछ कहने की कोशिश करता वो हावी हो जाती, कुछ कहने का मौक़ा ही नहीं देती, मैं उसके साथ अब कंफरटेबल भी महसूस नहीं कर पाता था। जो भी हो वो अक्सर अपने ही प्लान बनाती, मुझे अखरता पर कह नहीं पाता, रिश्ता अभी बना ही नहीं था लेकिन बनने से पहले ही बोझ लगने लगा। सपना खुश थी, शादी को पंद्रह दिन बाकी थे एक दिन कहने लगी- मैंने रहेजा में फ्लेट देखा है, एक कमरे का है, अच्छा है, अभी रेंट पर ले लेंगे, बाद में देखेंगे।

क्यों, रेंट पर क्यों ? हमारा खुद का इतना बड़ा बंगलो है फिर घर में सिर्फ चार लोग है और पांचवी तुम हो जाओगी।

नहीं।

वो तो ठीक है पर हमें अपने लिए अलग से घर चाहिए ना !

अलग से क्यों ? घर में सबसे बड़ा मैं हूं, मेरे भाई-बहन दोनों छोटे हैं, पिताजी का तो जब मेरी बहन एक साल की थी तभी देहांत हो गया था, दादाजी ने हमें पढ़ा लिखा कर इस काबिल बनाया, मां ने हमारे लिए दूसरी शादी नहीं की मां और दादाजी ने इतने प्यार से परवरिश की, अपना सुख नहीं देखा। दादाजी का एक ही बेटा था और वो थे मेरे पिताजी ! पता है दादाजी क्या कहते हैं ? वे कहते हैं अब तू ही मेरा वासु है मेरा आधार है कहते-कहते उनकी आंखें भर आती और फिर मेरे सिर पर प्यार हाथ फेरते हुए मुंह फेर लेते हैं मुझसे छुपाने के लिए, मैं भी जाहिर नहीं होने देता हालांकि मेरा भी दिल भर आता है। मां भी कितनी आस लगाए बैठी है घर में बहु आयेगी, रौनक होगी और मैं उन्हीं से नाता तोड़ दूं ? 

मैं नाता तोड़ने को कहां कह रही हूं, बस इतना ही कि हम अलग रहेंगे फिर आते-जाते भी तो रहेंगे ! मुझे हर वक्त साथ में भीड़भाड़ नहीं चाहिए, प्राइवेसी भी कोई चीज होती है।

मैं कब कह रहा हूं कि प्राइवेसी नहीं हो, प्राइवेसी तो रहेगी और रहनी भी चाहिए, अरे यार, पांच बैडरूम है, हमारा अपना बैडरूम होगा ही ना ! फिर कोई चौबीस घंटे तो हमारे आसपास और साथ रहेगा नहीं, तुम भी अपने परिवार के साथ ही रहती आई हो और तुम हीं ऐसी बातें कर रही हो ?

वो बात अलग है लेकिन आफ्टर मैरेज, आय कांट उसकी इस प्रकार की बातें मुझे नहीं जमीं, मैंने दादाजी से इस बारे में जिक्र किया , थोड़े परेशान हुए क्योंकि शादी को केवल चार दिन रह गये थे दोनों तरफ़ तैयारियां भी हो गई थी, मेहमानों को भी न्योता दे दिया गया था। मां तो तैयार थी अलग रहने के लिए कि मेरे बेटे का घर बस जाये, ऊपर से मुझपर छोड़ दिया कि जो तुझे ठीक लगे पर शादी से चार दिन पहले,

लोग क्या कहेंगे ! फिर तुम दोनों ने एक-दूसरे को पसंद किया अब ऐसी बातें कर रहे हो ? यानि कि मां का मानना था कि शादी हो जानी चाहिए मगर मेरे दादाजी इस पक्ष में जरा भी नहीं थे, उनका विचार था अगर इस तरह की बातें लड़की शादी से पहले कर रही है तो तेरे साथ में भी निभायेगी भी या नहीं ! ना कहने में ही भलाई है लेकिन मां बिल्कुल तैयार नहीं शकुन- अपशकुन की बातें ले बैठी भले कुछ भी हो, अलग तो अलग ही सही। ऊपर से मां का रोना-धोना अपशकुन के डर से ! आखिर दादाजी ने मां की बात मान ली, बेचारी ने ज़िन्दगी भर दुख ही देखें हैं तो मन की कर लेने दो। मैंने भी सोचा, चलो ठीक है, उसे साथ रहने के लिए समझाऊंगा पर कैसे

? वो मेरी बात काट ही देती है अपनी ही चलाती है।

खैर फिर भी, ऐसे तो अच्छी है, देखने में भी सुंदर है।

अलग रहकर भी अपनी फैमिली का पूरा ख्याल रखूंगा, बस कर ली शादी। ओह उसकी यह ज़िद कितनी बड़ी थी जिसने सबकुछ तहस-नहस कर दिया। 

       हनीमून तक सब अच्छा रहा इसकी इच्छा थी कुलू-मनाली जाने की तो हम वहीं गये, दस दिन बाद घर लौटे, दो दिन घर पर रहे बाद में अपने फ्लेट में रहने चले गये। मैंने तय कर लिया आफिस से पहले सीधा घर जाया करूंगा और मैंने ऐसा ही किया लेकिन यह सपना को मंजूर न था फिर भी मैंने जारी रखा तो गुस्सा करती, बात नहीं करती, खाना भी नहीं बनाया एक - दो बार ऐसा हुआ तो मैंने उसे कहा तो बोली - क्यों मां नहीं खिलाती ? एक दिन तो हद ही कर दी, घर जाकर मां को खरी-खोटी सुनाई - इतना ही प्यार अपने बेटे से था तो पल्लू स बांध कर रखती, शादी क्यों की ? अरे हमारी अपनी जिन्दगी है। तब दादाजी ने उसे डांट कर कहा- आज तक रोहिणी ने ऐसी बात नहीं की उसने अपना परिवार संंभाला और तुम कल की आई लड़की और इस तरह की बकवास कर रही है मेरी बेटी रोहिणी के सामने, अपने बड़ों की इज्जत करना तुम्हारे मां-बाप ने नहीं सिखाया ? 

मेरे मां-बाप ने क्या सिखाया, क्या नहीं सिखाया लेकिन आप लोग क्या कर रहे हैं।

बेटे की लाइफ में इंटरफेयर नहीं कर रहे हैं ? अरे उसकी भी मैरिड लाइफ़ है उसे भी स्पेस चाहिए कि नहीं ? दिन को काम पर, फिर आप लोगों के पास यहां टाइम स्पेंड करता है घर आकर खाना मांगता है इतना ही लाडला है तो भी भूखा ही भेज देते है ? ऊपर से बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। कुछ भी मेनर्स नहीं, ओ माय गोड आय फैटप। मुझे गुस्सा आ गया मैं आज पहली बार सपना पर चिलाया और थप्पड़ भी लगा दिया फिर तो पूछो ही मत उसने जो बबाल मचा दिया पूरे मोहल्ले को इकट्ठा कर दिया। फिर क्या हुआ होगा आप समझ सकते हैं, गुस्से में दनदनाते हुए अपने मायके चली गई,

अभी मुश्किल से दो घंटे ही बीते थे कि अपने भाई और माता-पिता के साथ आई, उन लोगों ने अंदर कदम रखा ही था कि पुलिस इंस्पेक्टर राणावत भी अपने कांस्टेबल के साथ आया, यह तो अच्छा हुआ कि राणावत और मैं स्कूल में दसवीं तक साथ - साथ पढ़े थे, इसकी पोस्टिंग यहां थी, दो दिन पहले ही इसने ज्वाइन किया था, हम दोनों एक-दूसरे को देखकर हैरान रह गये।

आश्चर्य में एक-दूसरे को देखा और एक साथ बोले- अरे तुम ? और फिर एक-दूसरे के बारे में जानकर हालात को समझा, सुलह कराई। फिलहाल मामला सुलझ गया था, दादाजी के कहने पर एक कुछ शर्ते मान ली लेकिन अब मेरा मन टूट चुका था कि निभाने की कोशिश की पर पानी सिर से गुजर रहा था। एक हफ्ता मुश्किल से ठीक रही फिर वही नाटक जबकि अब तो रोज़ मैं घर भी नहीं जाता था तो भी उसकी किट-किट, क्योंकि घर खर्च के लिए दादाजी को कुछ पैसे देता था वैसे तो दादाजी की पेंशन थी लेकिन पूरा नहीं पड़ता था जब मैं पढ़ता तब तक दादाजी की सर्विस थी और मेरी सर्विस लगने के पांच महीने बाद रिटायर हो गये थे तो अब घर चलाना मेरा भी तो फर्ज था पर उसे तो यह भी गवारा नहीं था हर तरह से जीना हराम कर दिया हर वक्त उसी के अनुसार रहने की कोशिश करता मगर उसे लड़ने का कोई न कोई बहाना मिल ही जाता था। इस तरह शादी के तीन महीने सजा के रूप में काटे, अब तो बर्दाश्त के बाहर हो गया था। वो तो रोज़ कहती थी मुझे नहीं रहना तुम्हारे जैसे आदमी के साथ ! इसलिए मेरे लिए आसान हो गया , आखिरकार मैंने उसे कहा - हमारा रिश्ता सही नहीं बन पा रहा है तो क्यों नहीं हम अलग हो जाते हैं, मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं बेहतर, आगे मुझे बोलने ही नहीं दिया हो गई शुरू पता नहीं क्या-क्या सुनाती रही, मैं सुनता रहा। दूसरे दिन मैं अपने घर चला गया उसे यह बोल के कि डिवोर्स पेपर भिजवा दूंगा, लेकिन फिर अड़ंगा, यह फ्लेट ग्यारह महीने के लिए है,भाड़ा कौन भरेगा

तुम्हारा बाप ? खबरदार जो बाप तक गई, बाकी बचे आठ महीने का भाड़ा मैं तुम्हें एडवांस में दे दूंगा लेकिन अब बस दे दूंगा नहीं अभी दो, भाड़े से ही काम नहीं चलेगा ! दस लाख एलीमनी देनी पड़ेगी।

अरे मैं दस लाख कहां लाऊं ? मेरे पास नहीं है, ठीक है डिवोर्स भी नहीं।

आखिर में पांच लाख में मामला तय हुआ दादाजी ने अपने पी एफ के पैसे देकर पीछा छुड़ाया। कोर्ट में अर्जी दी थी मगर कोर्ट ने छ: महीने का वक्त दिया कि साथ रहें ताकि रिश्ता संवर जाए पर ऐसा हुआ नहीं, छह महीने बाद हम कानूनन अलग हो गये।

मैंने और मेरे घर वालों ने चैन की सांस ली। इसने तो मुझे मेरे घर वालों से ही दूर कर दिया था, अब वापस अपने घर आकर ऐसा लगा जैसे कितने सालों बाद कैद से छूटकर अपने घर आया इन सबसे कितना दूर था, लगा सदियों बाद मिला हूं। ओह गोड तुम्हारे लाखों-करोड़ों धन्यवाद जो मुझे नरक से निजात दिला दी और मेरे दादाजी का धन्यवाद किन शब्दों में और कैसे करूं ! किस तरह से करूं ! बस इतना ही कह सकता हूं-

अगर वे न होते तो ?


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