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Nisha Singh

Drama

4.5  

Nisha Singh

Drama

मुश्किल

मुश्किल

7 mins
337


शाम गहराती जा रही थी। लगता था जैसे कि थोड़ी ही देर में रात ढ़ेर सारे टिमटिमाते हुये तारों और खिले हुए चाँद के साथ आने कि फ़िराक में है। शाम की चहल पहल के बीच गुमसुम सा अंकित सड़क के किनारे किनारे चुपचाप चला जा रहा था। चाल में एक भारीपन सा था चेहरे पे साफ दिख रहा था कि दिल में कोई बोझ है। चलते चलते पांव खुद ब खुद घर की तरफ़ हो लिये। धीरे धीरे कदम बढ़ाता अंकित अपने घर की तरफ़ जा रहा था। नज़रें कहीं देख रही थीं, दिल कहीं था, दिमाग कहीं, बस कदम ही थे जिन्हें पता था कि कहाँ जाना है।

अचानक ही उसके कदम ठिठके और नज़रें बाईं ओर बने मकान पर जा कर ठहर गईं। शाम की धुंधली सी रोशनी में ना जाने किस चेहरे को तलाश करने लगा। पर जानता था कि कोई नहीं मिलने वाला था वहाँ।

“कहाँ था इतनी देर से? कब से फोन लगा रहे हैं बंद जा रहा है।” घर में घुसते ही ताऊजी ने कहा।

“मैंने देखा नहीं पता नहीं कब बंद हो गया।” कहते हुये अंकित अपने कमरे की तरफ़ चला गया।

फ्रेश हो के कपड़े बदले और तकिये में मुह छिपा कर लेट गया। जिससे कि अगर कहीं आँसू गिरें तो कोई देख ना ले। आँखें बंद कीं तो कुछ घंटे पहले की तस्वीर उभर के सामने आ गई।

गर्मियों की दोपहर में नींद बहुत अच्छी आती है। अंकित भी सोने ही जा रहा था कि उसी वक़्त सूरज का फोन आ गया।

“यार मुझे बड़ी नींद आ रही है मैं शाम को आता हूँ।” अंकित ने उबासी लेते हुए कहा।

“अबे दिन में सोने वालों को लीचड़ कहते हैं।”

“बकवास मत कर बोल दिया ना शाम को आता हूँ। सोने दे।“

“बहाने मत बना चुपचाप आ जा।“

इस बार आवाज़ किसी और की थी। भव्या की। सूरज की बड़ी बहन भव्या। भव्या ने कहा तो वो ना नहीं कह पाया।

“ठीक है, आता हूँ।” कहते हुए अंकित करीब 4-5 घर छोड़कर सूरज का घर था ‘मिश्रा निवास’ ।

सूरज के पिताजी की घर के पास में ही एक दुकान थी तो जब  तब घर में आ धमकते थे। कुछ सनक मिज़ाज़ भी थे। दरवाजा भी उन्होंने ही खोला था। शायद खाना खाने आए होंगे।“अंकल सूरज कहां है?” अंकित ने पूछा।

अंदर की तरफ बने बाएं कमरे की ओर इशारा करते हुए वह सोफे पर बैठ गये। उनकी आंखों से ऐसा लगा जैसे अंकित का आना उनको पसंद नहीं आया पर इस बात से अंकित पूरी तरह अनजान था।

थोड़ी ही देर में मिश्रा जी ने जोर से आवाज लगा दी।

“सूरज… सूरज…”

“हां पापा…” सूरज ने जवाब दिया तब तक मिश्रा जी कमरे में आ गए थे।

“जाओ, तुम दुकान चले जाओ। मैं खाना खा कर जाऊंगा।” उन्होंने कहते हुए अंकित की तरफ देखा। 

उन्हें लगा की सूरज के जाने के बाद अंकित भी चला जाएगा। पर ऐसा हुआ नहीं।

सूरज के पिताजी अंकित के जाने का इंतजार करते रहे। कुछ देर तो उन्होंने देखा आखिर में उनका सब्र जवाब दे गया।

“यहां अकेले क्यों बैठे हो तुम लोग? बैठना है तो बाहर चल कर बैठो।” मिश्रा जी गुस्से से बोले।

उनका ऐसा स्वभाव अंकित और भव्या के लिए नया नहीं था। दोनों चुपचाप उठे और जाकर ड्राइंग रूम में बैठ गए। जो बातें अभी तक  हंसी मजाक में चल रही थी  अब वह कुछ संजीदा हो गई। अब बातें पढ़ाई और करियर की होने लगी। सामने टीवी चल रहा था पर मिश्रा जी का ध्यान टीवी पर कम और उन दोनों की बातों पर ज्यादा था। खाना खाते खाते भी वह बार-बार अंकित को देख रहे थे। उसे हंसते मुस्कुराते बातें करते देख उनका खून जला जा रहा था। दिमाग इतना गर्म था कि खाने के बीच में बार बार पानी का  घूंट ले रहे थे।

“अंकल खाना खाने के बीच में पानी नहीं पीना चाहिए। खाना अच्छे से डाइजेस्ट नहीं हो पाता है।” अंकित ने बार-बार पानी पीते देख उन्हें Vskd दिया।

वह तो बस मौके की तलाश में ही थे। मौका मिलते ही अंकित पर बरस पड़े।

“अच्छा तो अब तू मुझे बताएगा कैसे खाना खाओ कैसे पानी पियो?” गुस्से से थाली फेंकते हुए मिश्रा जी बोले।

“सॉरी अंकल मेरा ऐसा मतलब नहीं था।” अंकित उनकी यह हरकत देखकर डर गया।

“अच्छा... तो तू अब मुझे समझायेगा। एक बात

बता... ये कौनसा वक़्त है किसी के घर आने का? चाहे जब मुँह उठाये चला आता है। ना काम ना धाम जब मर्ज़ी आई चला आया। और जब सूरज नहीं है तो तू यहाँ क्यों बैठा है?” गुस्से से भरे हुए मिश्रा जी एक ही सांस में फूट पड़े।अंकित बुरी तरह से सहम गया। कुछ कहते ना बना तो चुपचाप उठा और चला गया। जाते वक़्त बस एक नज़र भव्या को देखा तो छलछलाई नज़रों से वो अंकित की तरफ देख रही थी।“दोबारा यहाँ दिखाई मत देना।”

मिश्रा जी पीछे से चिल्लाये पर अंकित ने मुड़ कर नहीं देखा।

उसके बाद अंकित घर नहीं गया। पूरा दिन बस यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ घूमता ही रहा।

“अंकित... अंकित... ” दादी ने आवाज़ लगाई ”चल बेटा खाना खा ले।”

“आया दादी...” आँसू पोंछते हुए अंकित ने जवाब दिया।

दो दिन बीत चुके थे। इन दो दिनों में अंकित कहीं बाहर नहीं गयापिछले 2 दिनों से हमेशा मुस्कुराते रहने वाला अंकित बहुत उदास था। ना किसी से बात करता था ना किसी से मिलने जाता था।

‘क्यों आता है यहां?’ इसी एक सवाल ने अंकित के दिल को अजीब सी मुश्किल में डाल दिया था। ना तो किसी से कुछ कह पा रहा था ना ही भूल पा रहा था। इस बात के चलते अंकित ने सूरज से दूरी बना ली थी। ना उससे बात करता था ना उसके मैसेज का रिप्लाई करता था। कल शाम को भी जब सूरज उसे बुलाने आया तो अंकित ने ये कहलवा दिया कि वह घर पर नहीं है। भव्या के भी कई मैसेज और कॉल आए पर अंकित ने किसी का भी कोई रिप्लाई नहीं किया।

आज शाम अंकित छत पर बैठा था। हवा की ठंडक दिल को सुकून देने वाली थी। पर अंकित के दिल तक नहीं पहुंच पा रही थी। चिड़ियों की चहचहाहट के शोर में अंकित अपने मन की शांति तलाश कर रहा था। तभी किसी के आने की आहट हुई, देव भैया थे। अंकित के बड़े भाई।

“क्या बात है भाई बीमार हो? 2 दिन से देख रहा हूं कहीं जाते नहीं किसी से बात नहीं करते... “ कहते हुए देव भैया अंकित के पास बैठ गए।

“क्या हुआ किसी ने कुछ कहा या झगड़ा हो गया किसी से ?”  

अंकित ने कोई जवाब नहीं दिया।  

“सूरज से झगड़ा हुआ है क्या ?”  

“नहीं भैया, ऐसा कुछ नहीं है।“

“तो फिर क्या बात है ?”

इस बार देव ने पूछा तो अंकित से रहा नहीं गया। उस दिन की सारी बात अंकित ने देव को बता दी।  

 “अच्छा.... मुझे लगा ही था जब तुम ने सूरज को वापस कर दिया।“

“उन्होंने ऐसे कैसे बोल दिया कि क्यों आता है यहां?” कहते हुए अंकित के की आंखें नम हो गई।  

“कुछ लोग ऐसे होते ही हैं।“  

“इतने छोटे ?”  

“हां, इतनी छोटे... इतने छोटे हो जाते हैं लोग, इतने नीचे गिर जाते हैं कि अपने आसपास के माहौल में सिवाय गंदगी के कुछ दिखता ही नहीं। इतनी छोटी सोच हो जाती है लोगों की कि रिश्ते बौने नजर आने लगते हैं। पानी जैसे साफ दिल में भी मैल नजर आने लगता है। सूरज के पापा भी शायद ऐसी ही सोच रखते होंगे।“  

“भैया क्या उनके सवाल का एक ही जवाब है हो सकता है? क्या कोई लड़का लड़की अच्छे दोस्त नहीं हो सकते?”  

“हो सकते हैं। लेकिन समाज में इतनी गंदगी फैल चुकी है की हर रिश्ते पर उंगली उठा दी जाती है वह भी बिना सोचे समझे।“  

देव की बातें सुनकर अंकित कुछ सोचने लगा।  

“मैं उनके घर कभी नहीं जाऊंगा।“  

“क्यों ? तुम्हारा दोस्त है सूरज...”  

 “मेरा कोई दोस्त नहीं है।“

“देख यह दुनिया है। यहां हर तरह के लोग होते हैं। अच्छे भी और बुरे भी। बस यह है की किसी बुरे इंसान के किए की सजा किसी अच्छे इंसान को नहीं देना चहिये।” कहकर देव चला गया।

 काफी देर तक देव की बातें अंकित के ज़ेहन में चलती रहीं। जो तूफ़ान उसके दिल में पिछले 2 दिन से चल रहा था वो अब धीरे धीरे थमने लगा था। अचानक ही उसका ध्यान जेब में पड़ी सामान की उस लिस्ट की तरफ गया जो माँ ने आज सुबह दी थी।

“सूरज... बाइक निकाल ले सामान लेने जाना है। मेरी बाइक देव भैया ले गये।” फोन पर कहता हुआ अंकित बैग लेकर घर से बाहर निकल आया और मुश्किल से भी।


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