मुलाज़मत छोड़ दूँ ?
मुलाज़मत छोड़ दूँ ?
बात एक मामूली आम से लड़के की है, वह लड़का जिसकी फितरत और ख़याल बेहद मुख़्तलिफ़ है अंदाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि वह अपने दोस्त तो दोस्त दुश्मन के बारे में भी भलाई का ख़याल तसव्वुर करता है, लिहाज़ा हर किसी कि ख़ैर व आफ़ियत की दुआ करता है. सादगी भरी ज़िन्दगी से जब वह जवानी के आलम में पहुंचा तो यूँ आप भी जानते है ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए काम कितना लाज़मी है चुनाचा अब हर किसी को उसके काम के लिए फ़िक्र शुरू हुयी इस वजह से वो हमेशा ताना व तशनी का शिकार रहा है उसे इस ताने से नवाज़ा गया कि इस सादगी और भोलेपन से इसका मुस्तक़बिल बहुत सी महमहरूमियों में न गुज़र जाये, इसे कौन अपने यहाँ मुलाज़िम रखेगा ख़ैर इन सबको को वह नज़रअंदाज़ करके तवज्जो नहीं देता। परिवार बड़ा था तो ज़्यादा आला तालीम की गुंजाईश न थी इसलिए नौकरी शुरू की, कुछ अरसा किया मगर छोड़ दिया क्योंकि हर काम में तो आज कल बदउनवानी है सो आगे भी ऐसा काम तर्क किया और तलाश जारी रखी,
ख़ुदा की महेरबानी हुयी उसकी माँ बाज़ार में ज़रुरत का सामान लेने गयी तो किसी ने बताया की यहाँ एक कंप्यूटर ऑपरेटर की ज़रुरत है तो वह अपने बेटे के ख़याल से वहां पहुंची और अपने बेटे की ख़ासियत और ख़ूबी बयान की और उसे मौक़ा देने की बात कही. दूसरे रोज़ बेटे को लेकर पहुंची तो उससे चंद सवालात पूछे गए तो माँ ने भी अपने बेटे की ख़ुसूसियत से आरास्ता किया और उसे एक मौक़ा देने को कहा, माँ के इसरार से वहां का मालिक मान गया और कहा अगर माँ को अपने बेटे पर इतना ऐतमाद है तो एक मौक़ा देना लाज़मी है, सो कहावत सच साबित हुयी कि हर कामयाबी पीछे एक औरत का हाथ होता है ,
मालिक ने उसे बतौर एक ट्रेनिंग के हैसियत से अपने यहाँ रख लिया ट्रेनिंग करते हुए कई माह गुज़र गए मगर कोई जवाब नहीं आया की आप की मुलाज़मत दाइमी हुई या नहीं एक दिन सर ने कहा तुम्हारी ट्रेनिंग अब मुकम्मल हुयी मैं आपको चार हज़ार रूपए फी माह दूंगा लड़के की ख़ुशी का ठिकाना न रहा इस बात का नहीं की चार हज़ार रूपए मिलेंगे बल्कि इस बात से ख़ुशी हुयी की सादगी और अच्छाई को किसी ने तो पसंद किया, घर पहुंचा ख़ुशी का इज़हार किया माँ की आँखों में आंसू आ गये की मेरे ऐतमाद और यक़ीन पर बेटा खरा उतरा, हालाँकि माँ जानती थी की उसे इस काम में ज़रा भी इल्म नहीं है मगर ऐतमाद और यक़ीन की बिना पर साबित कर दिया।
अब इस काम को करते हुए उसे सात साल का अरसा गुज़र गया और इस सालों में कितनी मुश्किलात का सामना करना पड़ा।
उसके ज़हन में एक सवाल ये भी था कि क्या वाक़ई मैं बहुत सादा था या सच में काम करने की बेहतर सलाहियत रखता हूँ , इस तवील दिनों में अच्छा बुरा हर तरह का सामना हुआ, तो क्या वाक़ई मैं इतना क़ाबिल था की सात साल गुज़ार दिया अब इसे क़ाबिलियत समझये या कमअक़्ली, मगर अब मुलाज़मत को हर कोई तब्दील करने को कह रहा है तो क्या ये सच है मुझे ये मुलाज़मत छोड़ देनी चाहिए और कुछ नया करना चाहिए तो बताये अब मैं क्या करूँ इस सवाल का जवाब तो मेरे पास भी नहीं है
मगर ये ज़रूर कहूंगा कि किसी की मासूमियत और सादगी को बेवक़ूफ़ी नहीं समझनी चाहिए हर शख़्स अपने नसीब से जुड़ा है और कुछ नसीब कोशिश पे मुन्हसिर है। क्या एक माँ के ऐतमाद और यक़ीन को छोड़ देना चाहिए? या सादगी छोड़ देनी चाहिए या फिर मुलाज़मत छोड़ देनी चाहिए ?