मोहन मसीहा
मोहन मसीहा
मोहन एक होनहार छात्र था। वह अपने सारे कार्य पूरे मनोयोग से करता था। इसलिए उसके सभी शिक्षक भी उससे प्रसन्न रहते थे। लेकिन वह बात बहुत कम करता था। प्रत्येक दिन उसका नियम होता था, कि वह जरुरत मंदों की मदद जरूर करता था। कभी- कभी तो वह अपने हिस्से का खाना या रोटी तक भूखों को खिला कर खुद भूखा रह जाता था। जब मां घर आकर पूछती तो कहता ,हां मां मैंने खा लिया था। जिस रास्ते से वह गुजरता था ,वहां पर सड़क किनारे एक बहुत बड़ा मॉल बन रहा था। और वहां बहुत से मजदूर कार्य करते थे। उनमें से एक बहुत कमजोर महिला भी थी । उसका एक छोटा सा बच्चा भी था जिसे पीठ पर बांध कर वह काम करती रहती थी। मोहन रोज आते जाते उस बच्चे को देखता । और उससे बातें भी कर लेता । मोहन को उससे बात करके बहुत सुकून मिलता। क्यों कि उसका कोई भी भाई या बहन नहीं थी। धीरे धीरे उससे मोहन को लगाव हो गया। मोहन उस बच्चे के लिए अब कुछ न कुछ खाने को ले जाता। एक दिन वह बच्चा मां की पीठ से गिर गया। और उसके सिर से खून बहने लगा। उसकी मां जोर जोर से रोने लगी। उसने मॉल के मालिक से इलाज के लिए कुछ पैसे मांगे ताकि वह बच्चे को डाक्टर को दिखा सके । लेकिन मालिक ने उसे भला बुरा कहकर दुत्कार दिया। वह रोती रही लेकिन उसके एक न सुनी और उसे काम छोड़कर जाने के लिए कह दिया। वह गिड़गिड़ाती रही लेकिन वह तो जैसे पत्थर का बना हो। मोहन यह सब देख रहा था। उसे बहुत बुरा लगा, और वह तुरंत घर वापस लौट आया। अपनी गुल्लक को तोड़ कर उसमें जितने भी पैसे थे उन्हें लेकर मोहन मजदूर महिला के पास पहुंच गया। फिर उसे अस्पताल लेकर गया। अब बच्चा खतरे से बाहर था। उस मां ने मोहन को आशीर्वाद दिया। मोहन ने घर जाकर सारी बात अपनी मां को बताई। मां ने अगले दिन मोहन को उस महिला को घर लाने को कहा। वह आई तो मोहन की मां ने उसे घर में साफ सफाई के काम पर रख लिया। और उसके बच्चे को मोहन की तरह ही प्यार दिया। साथ ही बच्चे को स्कूल में दाखिला भी दिला दिया । धीरे धीरे समय बीतता गया और मॉल भी बनकर तैयार हो गया था। मोहन ने बारहवीं कक्षा में प्रथम प्राप्त किया था। और वह बच्चा राघव आठवीं कक्षा में पहुंच चुका था। एक दिन दुर्भाग्य से मोहन एक अज्ञात वाहन की चपेट में आने के कारण दुनिया से चल बसा। अब तो मोहन के माता पिता की दुनिया ही उजड़ चुकी थी। उस बुरे वक्त में राघव और उसकी मां ने ही उन्हें संभाला। कुछ समय पश्चात राघव आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चला गया और वहां से बिजनेस मैनेजमेंट का कोर्स कर वापस आया। तो मोहन के पिता ने राघव को अपनी पूरी सम्पत्ति व जायदाद का वारिस बना दिया । राघव काम पर ध्यान देता था। धीरे धीरे वह शहर का एक सफल कारोबारी बन गया और एक दिन उसने वह मॉल भी खरीद लिया जिसमें उसकी मां काम करती थी। उसने शहर में निर्धन, गरीब व बेसहारा लोगों के लिए घर तथा रैन बसेरे भी बनवाये । व एक वृद्धाश्रम भी बनवाया। और आज वह वहां मोहन की प्रतिमा लगवा रहा था। उसका उद्घाटन उसने अपनी सगी मां से बढ़कर मां (मोहन की मां) से करवाया इस अवसर पर सभी खुश थे। लेकिन राघव की मां उस मसीहा (मोहन) को याद करके रो रही थी। मां के हाथों भिखारियों को खाना और कपड़े भी बंटवारे जा रहे थे। तभी उसकी नज़र उस व्यक्ति पर पड़ी जो तब उस निर्माणाधीन मॉल का मालिक था। और आज वह अपना आधा मुंह ढके भिखारियों की पंक्ति में खड़ा था। उसे देखते ही वह पुरानी यादों में खो गयी और मोहन का उपकार याद कर सिसक सिसक कर रोने लगी।