उत्तराखण्ड की लोककथा काफल
उत्तराखण्ड की लोककथा काफल
उत्तराखंड की एक बहुत प्राचीन लोक कथा है । किसी गांव में एक बहुत निर्धन महिला अपनी बेटी के साथ रहती थी ।वह दिनभर खेतों में काम करती और शाम को घर आती तो बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता था । कभी अतिवृष्टि तो कभी अनावृष्टि के कारण उस समय अकाल से भी जूझना पड़ता था। भरपेट खाना किसी किसी को ही मयस्सर हो पाता था। उत्तराखंड के जंगलों में अप्रैल-मई के महीनों में एक रसीला और मीठा फल काफल पकता है। इसका पेड़ अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों जहां बांज बुरांश होते हैं उन्ही जंगलों में उगता है । इसके फल मीठे और रसीले होते हैं ।लेकिन दिन में वह धूप की वजह से कुछ मुरझा से जाते हैं। एक दिन मां और बेटी दोनों काफल तोड़ने जंगल में गए ,और टोकरी भरके काफल तोड़ लाये ।क्योंकि घर में अनाज की कमी थी इसीलिए मां उन्हीं काफलों से थोड़ा-थोड़ा करके घर का गुजारा करना चाह रही थी। क्योंकि जंगल बहुत दूर होते थे । दिन में खेतों में काम भी करना होता था। उसने घर में रखे काफलों की देखरेख की जिम्मेदारी अपनी बेटी को यह कहकर सौंप दी कि तुम इनकी रखवाली करना । घर आकर हम इन्हें मिल बांटकर खाएंगे। सुबह टोकरी भरी पूरी थी। लेकिन दिन में गर्मी पड़ने के कारण वह काफल मुरझा कर कम हो गये। और टोकरी आधी हो गई ।जब मां खेतों से काम करने के बाद घर आई तो उसने देखा काफल तो आधे रह गये हैं। मां ने सोचा शायद बेटी ने अकेले ही खा लिए है। कहते हैं कि पापी पेट क्या न कराये।वह गुस्से में आपा खो बैठी और पास ही पड़े डंडे से उसके सिर पर वार कर दिया । बेटी कहती रही कि मां काफल मैंने नहीं खाये।
थोड़ी ही देर में बेटी की मौत हो गई। मां को जब होश आया तो रोने चिल्लाने लगी। कि यह मुझसे क्या अपराध हो गया । लेकिन अब पश्चाताप करने के सिवा कुछ नहीं बचा था। कहते हैं कि उस लड़की के प्राण एक चिड़िया में बस गए । और कहा जाता है कि आज भी जब वह घर आंगन के आसपास आती है तो अपनी मां को सफाई देते हुए यही कहती है कि -"काफल पाकी मैंन नि चखी।"