मोह

मोह

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शुक्ला जी की पिछले कुछ समय से तबियत ठीक नहीं चल रही थी। शुक्ला जी और उनकी पत्नी सुमित्रा जी अपने बड़े बेटे (विनय) के परिवार के साथ रहते थे। उनका छोटा बेटा (संजय) अपने परिवार के साथ अलग रहता था। शुक्ला जी बहुत बार संजय से मिलने की इच्छा ज़ाहिर करते थे। कमज़ोरी के चलते वह स्वयं तो उससे मिलने जा नहीं सकते थे... इसलिए कभी-कभी फोन पर संजय से, "उनसे आ कर मिलने के लिए कहते थे।”


संजय हमेशा काम का बहाना बना कर टाल देता था। संजय ने अपने और अपने पापा के बीच में एक गहरी खाई खोद ली थी... क्यूंकि शुक्ला जी का उसे उसकी गलतियों के लिए टोकना संजय को बिलकुल रास नहीं आता था। वह उन्हें अपनी तरक्की में रोड़ा मान कर 

उनसे लड़ता-झगड़ता रहता था... जिसके चलते उसने उनसे अलग होने का फैसला कर लिया था और अब वह उनसे कोई मतलब नहीं रखना चाहता था... परन्तु, एक पिता का मोह यह सब जानते हुए भी पुत्र मोह से बाहर नहीं निकल पा रहा था। दिन पर दिन शुक्ला जी की तबियत ज़्यादा बिगड़ने लगी। एक-दो बार उनकी छोटी बहु अपने बच्चों के साथ उनसे मिलने आ जाती थी। अपनी बहु और पोते-पोती को देख उनकी आत्मा प्रसन्न तो हो जाती थी... मगर संजय के बिना उनकी यह प्रसन्नता अधूरी रह जाती थी। धीरे-धीरे तबियत ज़्यादा ख़राब होने की वजह से वह किसी से भी फोन पर भी बात नहीं कर पाते थे... बस किसी तरह सुमित्रा जी को अपनी बात समझाते और संजय को बुलाने का आग्रह करते। सुमित्रा जी उनके ऊपर गुस्सा कर के रह जाती थी की, "जब वो नहीं आना चाहता तो जबरदस्ती कैसे उसे बुलाऊँ... अब वह कोई बच्चा तो रह नहीं गया है, जो उसे जबरदस्ती गोद में उठा कर ले आऊं।”


शुक्ला जी जानते थे की संजय उनसे मिलना नहीं चाहता पर फिर भी कहीं ना कहीं उनके मन के किसी कोने में एक आशा की किरण जागती रहती थी कि किसी ना किसी दिन तो संजय का उनसे मिलने का मन ज़रूर करेगा और वो उनसे मिलने आयेगा पर कौन जानता था... उनका यह सपना सिर्फ सपना बन कर रह जायेगा। राजा दशरथ की तरह वो भी अपने पुत्र से विछोह के दर्द में चल बसे... यह बात अलग थी की राजा दशरथ के पुत्र राम वचनबद्ध थे जबकि संजय अपने झूठे अहम के चलते उनसे मिलने नहीं आया।


शुक्ला जी की मृत्यु की खबर सुनकर संजय अपने परिवार के साथ उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने आया। सुमित्रा जी तो उसको वहां से जाने के लिए कहना चाहती थी। उन्होंने विनय से कहा, "इससे कह दे यहाँ से चला जाये, जब अपने पापा के ज़िंदा रहते हुए इसके पास एक मिनट की फुरसत नहीं कभी उनसे मिलने की तो अब दुनिया को दिखाने के लिए उनकी अर्थी को कन्धा देने क्यों आया है?” विनय बहुत सहनशील था... उसने अपनी माँ को समझाया की, "संजय को पापा कि अंतिम यात्रा में शामिल होने दो... कम से कम जीते जी नहीं तो मरने के बाद ही उनकी आत्मा को सुकून मिल जायेगा।”


विनय की बात सुनकर सुमित्रा जी चुप हो गई... क्यूंकि वह नहीं चाहती थी कि मरने के बाद भी शुक्ला जी की आत्मा तड़पती रहे पर संजय का शुक्ला जी के लिए कुछ भी करना अब सुमित्रा जी को दिखावा मात्र लग रहा था।


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