मन के अनुबंध
मन के अनुबंध
हर रोज़ धुआँ - धुआँ होती निगाहों ने अब छिप कर सुलगना सीख लिया था।आँखों में धुआँ नहीं था अब, लेकिन राख, अब भी चेहरे की मुस्कान से उड़ नहीं सकी थी।
सुबह मुँह धोते हुए मुक्ता ने वाश बेशिन के ऊपर लगे शीशे में अपना अक्स देखा। रात भर सुलगते रहने के कारण आँखें लाल हो गई थीं। पलकों ने रात में कम्बल उढ़ा कर सुलाने की कोशिश की थी मगर सांसों ने तिलमिला कर हर बार कम्बल हटा दिया था।
आईने में दिखती अपनी छाया को मुक्ता ने कुछ पल देखा मगर उसे वह नही मिला जिसे मुक्ता खोज रही थी। अपनी गहरी सांस की भाप आईने पर छोड़ कर मुक्ता रसोई में आ गई। एक कप अदरक वाली चाय बनाकर और दो मैरी बिस्किट लेकर वह ड्राइंगरूम में आकर बैठ गई। आज घर मे कोई नहीं था, केवल वह थी। एकांत के इन दुर्लभ पलों में वह अपनी यादों को खुलकर जीना चाहती थी। चाय के हर घूँट के साथ आंखों की सुलगाहट बढ़ती जा रही थी, इससे पहले की सुलगती आंखे दोबारा धुआँ उड़ाने लगती, उसने पास रखा अपना मोबाइल उठा लिया। नेट ऑन करते ही कल के मैसेज और नोटिफिकेशन शो होने लगे। व्हाट्सअप पर उसका मैसेज था " कल मिलोगी? मुझे तुम्हारी जरूरत है। "
" जरूरत"! मुक्ता के होंठ तिरछे हो गए। आँखें बंद कर मुक्ता ने फिर से अपने मन में उसके संदेश को दोहराया। " जरूरत....मुझे भी तुम्हारी जरूरत थी। पिछले एक साल से तुम्हें अहसास दिलाने की कोशिश करते- करते अकेलेपन और क्षुब्धता के गरल को पीकर नीलकंठ सी होने लगी हूँ।
हमारे बीच केवल मन के अनुबंध ही तो थे! तुम तो उन्हें कुछ समय भी नहीं निभा सके तो जिंदगी भर इस अनुबंध को कैसे....? ऐसा नहीं कि मन के अनुबंध हमेशा कमजोर ही रह जाते हो! निभ सकते हैं अगर दोनों तरफ से निभाने की शिद्दत से चाहत हो।
व्हाट्सप बन्द कर मुक्ता ने फेसबुक पर उसकी प्रोफाइल खोली और उसकी तस्वीर को ध्यान से देखने लगी। कभी यह चेहरा सबसे अपना था मगर ...। एक- एक फोटो देखती मुक्ता एक तस्वीर पर आकर रुक गई। इस तस्वीर में वह उसके साथ था जो उसकी अपनी थी लेकिन फिर भी वह मुक्ता से जुड़ा था यह कहकर कि सच्चा अनुबंध तुमसे जुड़ा महसूस करता हूँ। बचपन से मुक्ता एक सपना देखा करती थी। वह भाग रही है। मंदिर की सीढ़ियों से उतर कर पीछे बने तालाब के किनारे और फिर एक खंडहर की दीवार से भाग कर सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए एक गहरे कुएँ में गिर जाने का।
एक दिन मुक्ता ने इस सपने को उसे भी सुना दिया था। कुछ पल चुप रहकर उसने कहा था, " जानती हो, बचपन से ऐसा ही एक सपना मैं भी देखता था जिसमे एक सत्रह - अट्ठारह साल की लड़की एक बकरी के बच्चे के पीछे भाग रही है और उसकी बावड़ी में गिर कर मौत हो जाती है। भीगे कपड़ों में लिपटी उसकी लाश को देखकर मैं सिसक- सिसक कर रो रहा हूँ। वह लड़की मेरी पत्नी थी। अंतिम क्रिया के बाद मैं अपने बच्चों के साथ उस गाँव को छोड़ कर चला जाता हूँ। तुमने जो भी दृश्य बताए वही सब मैंने देखे हैं।"
मुक्ता हैरानी से उसे देखती रह गई थी।" क्या अब वह सपना तुम नहीं देखते?"
" मैं उस सपने के बाद बहुत डर जाता था। मेरे मम्मी- पापा ने हमारे पैतृक गांव जाकर पूजा करवाई थी। उसके बाद वह सपना नहीं आता था लेकिन तुमसे मिलने के बाद वह सपना मुझे फिर आने लगा। आज समझ आया कि क्यों...!"
" क्या सचमुच यह विधि का विधान है! हमारे मन के अनुबंध के तार पूर्वजन्म से जुड़े हैं!", मुक्ता इस रहस्योद्घाटन से चकित थी।
उसकी आँखों में झांकते हुए मुक्ता ने अपने अनुबंध पर होठों से स्वीकृति की मोहर लगा दी।
"उस दिन भी दिल इतनी ही ज़ोर से धड़का था जैसे आज" ,सोचते हुए हुए मुक्ता का हाथ उसके सीने पर चला गया। उस दिन के बाद मुक्ता को वह सपना कभी नहीं आया जैसे उसका उद्देश्य पूरा हो गया था।
मोबाइल के स्क्रीन पर वही मुस्कुराती तस्वीर अब भी चमक रही थी। मुक्ता ने और तस्वीरें खोली। उन तस्वीरों की आंखों में सितारों की चमक थी। अकेली तस्वीरों में भी वे अकेले नहीं थे। फिर वह सपना और उनके अनुबंध का औचित्य...?!
कभी- कभी मुक्ता सोचती थी कि शायद वह उन तस्वीरों में जो रंग देखती है वह उसका वहम है लेकिन जल्दी ही वह जान गई थी कि ये वहम नहीं, सच है। मज़ाक में भी वह मुक्ता के मुँह से उसके खिलाफ कुछ नहीं सुन पाता था।
वो शाम मुक्ता को आज भी याद है। मुक्ता ने थोड़ा नाराज़ होकर अपनी अहमियत के लिए सवाल उठाया था और उसके बाद जो हुआ उसने सभी भ्रम तोड़कर अनुबंध की प्रति जला दी थी। तबसे वह धुआँ मुक्ता की आंखों में सुलग रहा है कभी गहराता तो कभी अपनी जलन से तड़पाता।
" वह भी कहाँ बच सका था इस धुएँ की चपेट से। चाह कर भी वह इस धुएँ की आग को नहीं बुझा सकता, शायद बुझा भी सके मगर उसके लिए चाहत के घने बादलों का बरसना भी तो जरूरी है।", यह सोचते हुए मुक्ता के सीने में दर्द की लहरों के ज्वार- भाटा फिर उठने लगा था। फेसबुक बन्द कर, मुक्ता ने उसके मैसेज का जवाब देने के लिए व्हाट्सअप खोलना चाहा लेकिन हाथ उसके सीने से हट ही नहीं सके। चाय भी कप में पड़ी कब की सूख चुकी है लेकिन निगाहें आज भी सुलग रही हैं। मन के अनुबंध पर मोहर तो मुक्ता ने ही लगाई थी, इसलिए वह उस मैसेज का जवाब देना चाहती है लेकिन.......!
