मन का मीत

मन का मीत

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आज भी भिखारी काका रोज आकर पिपल के उस पेड़ के नीचे बैठते हैं, जहाँ बैठते रहे है शायद पिछले बीस सालों से, सामने दूर तक फैले लहलहाते खेत, और पास के कुँए के पास चरती काका की भैंसें। पर अब काका के चेहरे पर ना वैसी चमक है ना ठहाकों का शोर। हर वक्त हँसी-मजाक में मशगूल रहने वाले भिखारी काका, इसी पिपल के पेड़ के नीचे बैठे, अपने साथ लायी रोटी राम बाबू की माँ के साथ बांटते, काका ने अपनी पूरी जिंदगी गुजार दी। बच्चे जब बड़े हो जाते है तो कितने समझदार हो जाते है। भिखारी काका के बच्चों को और राम बाबू के परिवार वालों को काका के साथ रामबाबू की माँ का बैठना अच्छा नहीं लगता था। तरह-तरह की बातें हो रही थी गाँव में। भिखारी काका के बच्चे तो खुलेआम, भिखारी काका से लड़ने लगे और कहने लगे की उनके चाल-चलन से पूरी बिरादरी और रिश्तेदारी में बदनामी हो रही है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो कोई अपनी लड़की नहीं देगा हमारे घर में। बहुत बड़ी मुसीबत थी, काका राम बाबू की माँ से बात-चीत बंद करने को बिल्कुल तैयार ना थे। क्योंकि उनको इसमे कुछ भी गलत नहीं लग रहा था। लेकिन लोगों का कहना था कि आखिर क्या मिलता है, उनको एक नीच जाती की औरत के साथ ऐसे दिन-दिन भर बैठ के बतियाने में? क्या एक पचास साल के पुरुष और पैतालीस साल की औरत के बीच एक-दूसरे के साथ मन बहलाने, दिल की बातें करना दुराचार है? राम बाबू अपनी माँ को अपने साथ लेकर शहर चले गए, जहाँ एक साल में ही उनकी मौत हो गयी। अब भिखारी काका गुम-सुम बैठे रहते है। भिखारी काका के चेहरे की वो रौनक और उनकी हँसी खत्म हो गयी है। किसी से बात भी नहीं करते। शायद इसलिये की दिल एक बार जिसे अपने दिल की सारी बातें बताने के लिये चुन लेता है, उसके ना रहने पर दिल की सारी बातें ही खत्म हो जाती है।


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