मजबूत इरादे वाली भारत की बेटी

मजबूत इरादे वाली भारत की बेटी

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मज़बूत इरादेवाली भारत की बेटी

"वह दो ही साल की थी जब अनाथालय लाई गई थी। किसी को उसके माता-पिता के बारे में जानकारी नहीं थी। वह कौन है, उसके माता- पिता कौन हैं, वह किस जाति की है, किस धर्म की है यह जानने में ही उसने अपना बचपन गुजार दिया। 

 बच्चों, आज हम बात करेंगे गोवा के मातृछाया अनाथालय में पली-बढ़ी एक ऐसी लड़की की जो नहीं जानती थी, कि वह कब पैदा हुई ,उसके माता- पिता कौन हैं, उसकी जाति और धर्म क्या है।18 वर्ष की होने तक वह अनाथालय में रही और पढ़ाई - लिखाई की। उसके बाद अनाथालय के केयरटेकर ने जब उन्हें बताया कि अनाथालय आगे उसकी देखभाल नहीं कर सकता था। उन्हें अपनी देखभाल खुद करनी होगी। अच्छा हो यदि वह विवाह कर लें, तो उनकी समस्या का हल हो जाएगा ,किंतु वह पहले अपने पैरों पर खड़े होना चाहती थी।"

"कितना कठिन होता होगा यह जानना एक आश्रय स्थल जो आपका था वह भी आपका नहीं रहा!"अपर्णा ने गंभीरता से कहा।

"इंडस्ट्रियल बहुत कठिन होता है किंतु इस लड़की ने इतिहास की रचना की तो यह कोई साधारण लड़की नहीं है। ‌उसने पुणे जाने का निर्णय लिया। उसके पास कोई ठिकाना नहीं था।पुणे पहुंचकर रात उसने रेलवे स्टेशन पर बिताई। वह नितांत अकेली थी।रात बेहद डर के साए में गुजरी।वह भयभीत थी मगर ऐसे हालात में उसने आत्मबल नहीं छोड़ा।"

"यहां जितनी लड़कियां बैठी हैं, वे तो ऐसी परिस्थिति में रोने -चिल्लाने लग जातीं।"एक दबी हंसी के साथ दीपक ने कहा।

"उसने घरेलू काम करने से शुरुआत की,फिर जो भी काम उसे मिला, उसने किया, अस्पतालों, कार्यालयों ,दुकानों में जहां भी, जैसा भी काम मिला, किया। कई बार ऐसी परिस्थितियां आईं कि हिम्मत ने जवाब दे दिया, आत्महत्या ही एक राहत का रास्ता लगा,फिर एक दिन उसने एक अंधे पति- पत्नी को देखा। वे खिलौने बेच रहे थे। उसने सोचा, क्या यह उनके लिए आसान काम है, नहीं,बहुत कठिन होगा, यदि यह आशा का दामन नहीं छोडते तो, मेरे पास तो दो आंखें भी हैं ,मुझे भी निराश नहीं होना चाहिए। बस यही उसकी ज़िंदगी बदल देने वाला क्षण था। यह है अमृता करवनडे।"

"चाचाजी, मेरे बड़े भैया भी कहते हैं कि हमारे सामने अनेक प्रेरणादाई व्यक्ति और क्षण होते हैं। यदि हम उनको पहचान लें, तो हम ज़िंदगी को नया मोड़ दे सकते हैं!"विनायक ने कहा।

"वे बिल्कुल सही कहते हैं।जल्द ही एक मित्र के सुझाव पर अमृता करवनडे ने मॉडर्न कॉलेज पुणे में किसी तरह से दाखिला लिया। हॉस्टल में भी जगह मिल गई। यहां से उसकी जिंदगी मैं एक नया मोड़ आ गया। वह रात को क्लासेस अटेंड करती और दिन में काम करती।

कॉलेज की शिक्षा पूरी करने के बाद अमृता ने 2017 के महाराष्ट्र पब्लिक सर्विस कमीशन एग्जामिनेशन जो ओपन कैटेगरी में था उसकी परीक्षा दी और 100 में से 39 नंबर हासिल किये। लड़कियों के लिए कटऑफ 35 था, किंतु उसे कभी कॉल नहीं आई उसका मुख्य कारण बताया गया कि उसके पास जाति प्रमाण पत्र नहीं था।"

"वह अनाथ थीं। उन्हें अपने माता-पिता के बारे में नहीं पता था, तो धर्म और जाति कैसे मालूम होती? ऐसे में प्रमाण पत्र मांगना तो अनाथ बच्चों के साथ अन्याय है।"अनन्या ने अपनी बात पर बल देते हुए कहा।

"अमृता अमृता ने भी यही कहा। वे कहती हैं, उन्होंने तब तक ओपन कैटेगरी से ही पढ़ाई की थी, उन्हें अपना धर्म और जाति मालूम नहीं थी वह प्रमाण पत्र कहां से देतीं ? 

उन्होंने हार नहीं मानी और एक नए संघर्ष की शुरुआत की। वह जानती थी कि उसे और उसके जैसे अनेक अनाथ बच्चों को इन कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।

 उन्होंन तहसीलदार से लेकर डिप्टी कलेक्टर तक सभी संभावित दरवाजों को खटखटाया और उन्हें उसके जैसे अनाथ बच्चों की सहायता के लिए एक प्रावधान बनाने की गुज़ारिश की। 

कहीं से कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला।"

"फिर क्या हुआ चाचाजी?'विशाल ने जानना चाहा।

"इस अनुभव से हार मान कर बैठ जाए , वह ऐसी नहीं हैं।इन अनुभवों ने उनके निर्णय को और भी मज़बूत किया।वह अपना हक़ पाकर रहेंगी।

 वह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से मिली उसने कहा, हम अनाथ हैं। हमारे पास और कुछ नहीं है, मगर हम इस राज्य के बच्चे हैं और राज्य की यह ज़िम्मेदारी है कि वह हमारी देखभाल करे।"

"वाह, यह हुई ना बात!' साड्डा हक एथे रख' ! अत्यंत जोश में आशुतोष ने कहा।

"उसे केवल आश्वासन ही नहीं मिला। 1 वर्ष बाद महाराष्ट्र सरकार ने सरकारी नौकरियों में अनाथ बच्चों को 1% रिजर्वेशन देने का फैसला किया। यह अमृता के दृढ़ इरादों की विजय और अटूट इरादों और जीवट का ही परिणाम था ।

इस फैसले से अनाथ बच्चों को अपना भविष्य सुरक्षित करने में मदद मिलेगी।यह अमृता के दृढ़ विश्वास ही था जिससे न केवल वह खुद बल्कि आज महाराष्ट्र के अनाथ बच्चे भी लाभान्वित हुए।"

"वाह, वाह, चाचाजी ,आपकी इन बातों से हम अत्यंत लाभान्वित हो रहे हैं। 52 सप्ताह पूरे होने तक तो हम इतने जोश से भर जाएंगे कि हम खुद ही अपनी एक समाजसेवी संस्था खोल लेंगे और अच्छे-अच्छे कार्य करके आपको गौरवान्वित करेंगे। क्यों साथियों?"विनीत ने सब की ओर देखते हुए पूछा।

 "किंतु एक शर्त है, चाचा जी ,उस संस्था का अध्यक्ष तो आपको ही बनना होगा। क्यों साथ ही हुई है अभी ठीक है न ?" रूपाली ने सबकी सहमति जानना चाही।

"अच्छा ,अच्छा ठीक है। 52 सप्ताह पूरे होने दो ,फिर देखते हैं। चलो बच्चों, कल तक के लिए जय हिंद ।"

"जय हिंद ,चाचाजी और आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।" सब ने समवेत स्वर में कहा।


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