महकता सीरा
महकता सीरा
महीने में पाँच सात बार पड़ोस में वो जो सीरे (हलुआ) की खुशबू आया करती, नमिता उसकी दिवानी थी। कई बार सोचती कि पड़ोस वाली भाभीजी से इसकी रेसिपी पूछ ले, पर झिझक सी थी। उस घर में लोगों का आना जाना भी कम ही था। आज सवेरे-सवेरे इस खुशबू से सारा पड़ोस फिर महक रहा था। आखिर आज हिम्मत कर नमिता पहुँच ही गई।
दरवाजे पर ठक ठक की तो सकपका कर भाभी ने दरवाजा खोला, "ओह आप ! इस समय आइये आइये, कोई काम था मुझे बुलवा लिया होता।" थोडी़ डरी सी और घबराई भाभी के चेहरे पर हल्की सी सूजन सी थी।
"अरे नहीं, मैं तो यूँ ही सीरे की खुशबू सूँघकर चली आई। बहुत दिन से इस खुशबू की दिवानी हो गई हूँ। कैसे बनाती है आप।"
उतावली नमिता ने आखिर अपनी मंशा जाहिर कर ही दी।
"अच्छा नमिता इसके लिये कुछ देर रूकना होगा, ये निकल रहे हैं ऑफिस के लिये, मैं टिफिन देकर आती हूँ।"
थोड़ी ही देर में दो प्लेटों में सीरा डालकर भाभी ले आई,
"लो नमिता ये सीरा आज तुम भी चख ही लो।"
"अरे नहीं, आप बस रेसिपी ही बता देती तो मैं ..."
"न, न ईश्वर तुम्हें ये सीरा बनाने की नौबत कभी न ..."
"क्यों भाभी, ऐसा क्यूँ कह रही हैं आप।"
फिर जो बात भाभी ने कही सुनकर सन्न रह गई नमिता"
ये शीरा गुड़ का है नमिता, जब जब रात में ये मुझसे मार पीट करते हैं तब-तब मेरे पतिदेव अपने हाथों से खुद बनाते हैं और माफी माँगते हैं। ये तरीका है उनका मुझसे प्यार जताने का।"
कहते कहते भाभी की रूलाई फूट पड़ी। नमिता बिना सीरा खाये उल्टे पाँव घर लौट गई। इस सीरे की खुशबू से घिन्न सी हो रही थी, पर एक निर्णय उसने भी लिया था। नोक झोंक की आवाज पर ही अब वो भाभी के घर पहुँच जाया करेगी। कुछ नहीं तो डोर बेल तो बजेगी ही अब से।