महात्मा और प्रोफेसर,ध्यान और विज्ञान
महात्मा और प्रोफेसर,ध्यान और विज्ञान
हिमालय की वादियों में बसा एक प्यारा-सा गाँव, हरे-भरे पेड़ों से घिरा, पास ही कलकल बहती नदी, और दूर से ही दिखती विशाल हनुमान जी की मूर्ति। लोग दूर-दूर से आते थे इस मंदिर में माथा टेकने।
उसी शांत वातावरण में इस बार पहुँचे प्रोफेसर जितेंद्र, अपने परिवार, पत्नी और बच्चों, के साथ। पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा,
“आप हर बार कहते थे, अगली बार मंदिर ले चलूँगा... आज तो वादा पूरा हुआ!”
मंदिर के प्रांगण में एक दाढ़ी वाले साधु रहते थे,नरेंद्र गिरी महाराज। उनका प्रवचन सुबह 10 बजे शुरू हुआ। वाणी में ऐसी मिठास थी, जैसे सरस्वती स्वयं उनमें विराजमान हों। प्रवचन के बाद उन्होंने घोषणा की
“जो ध्यान योग का अनुभव लेना चाहें, वे रुके रहें। शुल्क मात्र एक हज़ार रुपए है।”
जितेंद्र ने भी भाग लेने का निर्णय लिया।
साधु बोले
“साँस भीतर लो... भृकुटी पर ध्यान लगाओ... मन को शून्य करो...”
वातावरण में गहरी शांति छा गई। एक घंटे बाद सब लोग चले गए, केवल साधु और जितेंद्र रह गए।
नरेंद्र गिरी ने पूछा —
“प्रोफेसर साहब, कैसा अनुभव रहा?”
जितेंद्र मुस्कुराए
“अद्भुत महाराज! जैसे सिनेमा में फिल्म चलती है, वैसे ही फिल्म मेरे मन में चल पड़ी।”
गुरुजी को उत्सुकता हुई
“और क्या देखा ध्यान में?”
जितेंद्र ने आँखें बंद कर कहा —
“मैंने आपको देखा... पर बचपन में! आप क्लास में बैठे हैं, थोड़े शरारती, खेलों में निपुण। किसी बच्चे से झगड़ पड़े हैं और टीचर कह रहा है ‘और लड़ो बेटा!’ आप सच में फिर लड़ने लगते हैं, और जब क्लास से भागते हैं तो गलती से टीचर की जेब फट जाती है, पैसे ज़मीन पर बिखर जाते हैं…”
महात्मा अचंभित रह गए। जितेंद्र बोले जा रहे थे —
“फिर हेडमास्टर बुलाए जाते हैं, आपके चाचा आते हैं और स्कूल से नाम कट जाता है। आप किसी गुरु की शरण में जाते हैं और सारा जीवन भगवान को समर्पित कर देते हैं…”
नरेंद्र गिरी के चेहरे पर आश्चर्य और श्रद्धा दोनों थे —
“बेटा, जो कुछ तुमने देखा, सब सत्य है! तुम्हारे अंदर अद्भुत दृष्टि है। तुम पिछले जन्म के सिद्ध पुरुष होगे मैं तो गुरु नहीं, गुरु तुम हो!”
सत्य का खुलासा
दोनों उठे, गले मिले। जितेंद्र मुस्कुराए
“अरे महेंद्र, तूने पहचाना नहीं क्या? मैं तेरी ही क्लास में था,दूसरी बेंच पर!”
दोनों ठहाका लगाकर हँस पड़े। जितेंद्र बोले —
“तू जिस क्षेत्र में जाता, ऊँचाई छू ही लेता — देखा, अब भी वही कर दिखाया!”
उस दिन हिमालय की हवा में केवल ध्यान की गहराई ही नहीं, बल्कि दो पुराने दोस्तों की हँसी भी गूँज रही थी। मंदिर की घंटियाँ जैसे कह रही थीं —
“सच्ची भक्ति वही है, जिसमें थोड़ा हास्य और बहुत सारा प्रेम हो।”
