Vishwa Priya

Abstract Action Inspirational

4.6  

Vishwa Priya

Abstract Action Inspirational

मेरी आँखों से अंडमान

मेरी आँखों से अंडमान

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हवाई जहाज़ से दिखता नीला नीला पानी मन में कई तरह के सवाल उठा रहा था।

क्या मैं सचमुच में काला पानी की सज़ा काटने जा रही हूँ?

क्या मेरे लिए यहाँ रहना आसान होगा?

लेकिन प्लेन से उतरते ही वो सवाल उड़न-छू हो गये।

मुझे लोग दिख रहे थे, अपने जैसे साधारण लोग।

लड़कियों ने बालों में तेल लगा कर चोटियां बनाई हुई थीं।

ऐसा नज़ारा बहुत दिनों बाद दिख रहा था।

दिल्ली में लेडीज़ के बाल ज़्यादातर खुले होते हैं और हल्के भूरे हाई लाइट से चमकते हैं,यहाँ काले काले बाल नारियल तेल के वजह से चमक रहे थे।

यहां ज्यादातर लोग दक्षिण भारत के हैं, बंगाल से भी काफी लोग हैं । आप को ये बात अचरज में डाल

देगी की वो सभी हिंदीं में बात करते हैं, शुद्ध खालिस हिंदी।भाषा की कोई समस्या नहीं है।

ख़ैर अब मैं अपने घर की ओर जा रही थी,

अपने नए घर की ओर।

पतिदेव ने यहां पोर्ट ब्लेयर के सरकारी हॉस्पिटल को जॉइन किया है।चूँकि घर मिलने में समय लगा इसलिए मुझे भी यहाँ पहुचने के लिए एक महीने का इंतज़ार करना पड़ा

अगर आपको ये नही पता हो, कि आप समुद्र के किनारे हैं,तो आप को लगेगा कि आप किसी हिल स्टेशन में हैं। रोड कहीं भी सपाट नहीं है। चढ़ाई और उतराई ,फिर चढ़ाई और फिर उतराई

घर पहुँचने में रात हो गयी । वहाँ जा कर यूँ लगा कि किसी नई नवेली दुल्हन के मुंह-दिखाई में आये हैं।

हरे रंग से रंगा नया नया घर ,बाहर की दीवारें पीली है। मन में एक अटपटी सी फीलिंग थी।ज्यादातर घरों की दिवारों पर अब सफ़ेद या हल्का पीला रंग रहता है।

ये हरियाली मन को खटक रही थी।पर यहाँ सारे घर ऐसे ही हैं।गहरे चटक रंग के ।

अंदर जा कर हम सोचने लगे कि कौन सा सामान कहाँ रहेगा ,वैसे अभी सामान आने में वक़्त था। पैकर एक महीने से ज़्यादा का समय लेते हैं, यहाँ सामान पहुँचाने का।

बाहर निकल कर ये चर्चा आगे बढ़ ही रही थी ,तभी मेरी नज़र नारियल के पेड़ों के बीच से झांकते समंदर की ओर पड़ी। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरे घर के आगे पूरा का पूरा समंदर है । ये बात मेरे पति ने मुझसे छिपा कर रखी थी।शायद उन्हें अंदाज़ा था कि घर के रंग से मैं सहमत नहीं रहूंगी, पर नज़ारा देख कर मैं बाकी बातें भूल जाउंगी।सच मे अब मैं खुश थी ,घर के हरे रंग का अफसोस जाता रहा।

जैसे पति पत्नी झगड़े के बाद एक हो जाते हैं वैसे ही मैं अपने घर के लिए अब एक प्यार का गुबार सा महसूस कर रही थी ।लग रहा था मानो मैने उसके हरे होने की गलती को माफ़ कर दिया था।

कम से कम सामान में कैसे रहा जाता है ये बात शिफ्टिंग के समय समझ आ जाती है।

टी वी नहीं, इंटरनेट नही के बराबर,एसी नहीं,एक इंडक्शन चूल्हा ,एक बड़ा बर्तन,एक बाल्टी।पर एडजस्टमेन्ट हो ही जाता हैं।

एंटरटेनमेंट के लिए हम बाहर बैठ कर हवा खाते हैं।बेटे ने भी सीख लिया ।कहता है “मम्मा चलो हवा खाने” ,फिर मुँह चला चला कर दिखाता है कि वो हवा खा रहा है ।बकरियों और बिल्लियोंको ढूंढ ढूंढ के दौड़ाता है,

मुर्गे की बांग से उसकी नींद खुलती है।

मछलियों का पुरा ज़खीरा हमने तब देखा जब हम वन्दूर के पास जॉली बॉय बीच पर गए थे ।स्टार फिश, ऑक्टोसपस को हमने सिर्फ किताबों में ही देखा था अब सामने देखने का सुख किसी सपने जैसा था।

एक गाना है बच्चो का ,”ओल्ड मैकडोनाल्ड हैड अ फार्म”

अब वो गाना यहाँ चरितार्थ हो रहा है।

मुझे ये द्वीप एक गुलदस्ते जैसा लगता है। मछलियों का गुलदस्ता,पेड़ों का गुलदस्ता,लोगों का गुलदस्ता। हर चीज़ की इतनी विविधता है।

एक झाड़ में तीन तरह के पौधे दिखते हैं , वो भी कम से कम ।

मछलियों के रंग देख कर तो लगता था कि पूरा इंद्र धनुष समंदर में समा गया हो।अपने खुद के घर मे अमरूद,नारियल,केला,करी पत्ता,आम का पेड़ देखना भी अविश्वसनीय सा लगता है।

कुल मिला कर अंडमान में रहना एक गांव में रहने जैसा ही है और आसपास की खूबसूरती हर दूसरी बात को भुला देती है।

पेड़ों की ताज़ी हवा और चिड़ियों की चहचहाट से मन प्रफुल्लित रहता है।

समय लगता है बहुत धीरे धीरे चल रहा है यहाँ।सुबह बहुत जल्दी और रात भी जल्दी हो जाती है।

कोशिश करूँगी कि अंडमान के बारे में और लिखूँ…

मेरी आँखों से अंडमान

ये अंडमान आने के बाद कुछ ज्यादा ही विचार आने लगे हैं दिमाग में।

आएंगे भी क्यों नहीं, यहाँ इतनी शांति जो है और चारों ओर ,लोग कम पेड़ ज़्यादा।ये पेड़ चीख चीख के कहते हैं ,कुछ लिखो कुछ लिखो, विचार करो विचार करो।डर भी लगता है ,कुछ ज़्यादा विचार बाहर न निकल जाएं कभी।

दिल्ली में महीने भर से ज़्यादा समय बिताने के बाद वहां की अनगिनत कारों की आवाज़ कान में गूंजती ज़रूर है…. पीं पीं …पीं पीं।

कार में बैठने के बावजूद 7 km की दूरी 2 घण्टे में तय करना कौन भूल सकता है।

यहां पोर्ट ब्लेयर में भी गाड़ियां कम नहीं हैं

।कई बार लगता है कि ये सुंदर जगह भी कहीं प्रदूषित ना हो जाये ।पर ये अथाह समुद्र और असंख्य पेडों को देख लगता है कि ये प्रदूषण को हर फ़िक्र की तरह ,धुएं में उड़ा देंगे।

हम यहाँ एक दिन मरीना पार्क गये थे।बच्चों के बहुत सारे झूले हैं वहाँ और बीच भी है।नहाने वाला बीच नहीं,किनारे-किनारे हाथों में हाथ डाल कर घूमने वाला बीच।फेंसिंग लगी हुई है,बेंच लगे हुए हैं बैठने के लिए।

वहाँ एक बड़ी अजीब सी बात देखी।एक लंबे चौड़े एरिया में छोटे बच्चों की 15-20 सायकलें रखी थीं और वहां के ग्राउंड की बनावट एक ट्रैफिक के रेड लाइट वाले चौराहे जैसी थी।बच्चों को वहां सिखाने के लिए असली ट्रैफिक पुलिस तैनात थी ,औऱ ये गतिविधि वहाँ रोज़ शाम में होती है।आपको साईकल इस्तेमाल करने के लिए कोई राशि नहीं देनी होती बस अपने बच्चे का नाम लिखाना होता है ,पुलिस अंकल के पास।

सच में बड़ा अजीब लगा वहां जा कर।मॉल में आधे घंटे का 250 रुपये देने के बाद ये नियम कुछ पच नहीं रहा था।मॉल में बच्चे 5-6 तरह के झूले तो झूल लेते हैं।उछलना कूदना भी सीख लेते हैं ।यहाँ क्या सीखा रहे हैं पुलिस अंकल बच्चों को-ट्रैफिक नियम, बिल्कुल बेकार चीज़ है।वहाँ बच्चे थकते हैं तो बगल में मैकडोनाल्ड में जा कर फ्रेंच फ्राई तो खाते हैं यहाँ सिर्फ झालमुड़ी और फ्रूट चाट मिलता है ,हाऊ बोरिंग।

सुबह वॉक पर जाना शुरू किया है।पहाड़ी रास्ते हैं ।हल्की ओस होती है सुबह।गीले पौधों की भीनी खुशबू के साथ ठंडी हवा में टहलना बहुत रिफ्रेशिंग लगता है ।लेडीज़ के तेल लगाएं बालों में चमकते सफेद गजरे का नज़ारा बहुत आम रहता है यहाँ।सब बहुत जल्दी तैयार हो जाते हैं काम पर जाने को। 8 बजे से दुकाने खुल जाती हैं।

…एक बहुत अच्छी बात है।यहां केक बहुत मिलते हैं।बेकरी वाले- मेरे फेवरेट।आस पास की ज़्यादातर पापुलेशन क्रिस्चियन हैं ,शायद इसलिए। हर राशन के दुकान में फ्रेश और बढ़िया प्लेन केक। मेरी तो बल्ले बल्ले हो गयी है, क्योंकि मुझे केक बहुत पसंद हैं और मुझसे कभी भी अच्छे से बनते नहीं ।

लोग मददगार हैं,ईमानदार हैं। अगर कुछ सामान गड़बड़ आ गया तो दुकानदार तुरंत उसे बदल देंगे,आपको मगज़मारी नहीं करनी पड़ेगी। कंप्लेक्शन में लोग ज्यादातर साँवले हैं और तैयार होने का शौक भी खासा है उन्हें।

बच्चे थोड़े अजीब हैं।देख देख कर मुस्कुराते हैं समझ नहींआता कि खुश मिज़ाज हैं या मेरी शक्ल में ही कोई प्रॉब्लम है।

एक छोटा सा ब्रेक

सामान आ गया

आया तो ‘गति’ से फ़िर भी थोड़ी देर लगी…

एजेंट ‘दुर्योधन’ बना हनुमान

समंदर पार

पहुँचाने में जी जान लगा दी…

सामान आ गया…

साथ लाया कितनी शिकायतें

कुछ टूटे प्लेट्स

कुछ गुम तस्वीरें…

नए घर में पता नहीं क्यू ,चादरें पुरानी सी लग रही हैं …

लगता है पहले की धूप को ढूंढ रही हैं..

बर्तन भी कम चमक रहे हैं…

इसके पहले वाले घर की अलमारी के रंगों से मिल गए थे शायद..

फ्रिज वफ़ादार निकला

एक महीने का सफ़र तय किया..

जाने कितनी बार पटकाया,

अंदर कुछ फफूंद जैसी भी दिखी लेकिन

अब तक काम कर रहा है।

माइक्रोवेव का शीशा चटक गया है

नाराज़ था शायद, कि मैंने उसे बंद करने से पहले एक बार छुआ क्यों नहीं,

रोज़ तो प्यार से सहला कर पोंछती थी

फिर किसी अनजान को क्यों सौंप दिया डब्बे में रखने को।

कुछ टूटी कॉकरी के साथ कुछ यादें भी दे दी कूड़े वाले को..

कुछ कपड़ों को देख एक हँसी भी याद आई किसी की

फिर धुंधली हो गयी..

ये सामान आ गए हैं फिर से नई जगह पर अपनी जगह बनाने..

पहले की यादों को खिसका कर एक नया मुकाम बनाने

बहुत दिनों से जिस समस्या से रूबरू नहीं हुई थी ,वह थी बिजली के कटने की समस्या।

यहाँ रोज़ दोपहर में बिजली जाती है ,नियम से ठीक उस समय जब मेरा बेटा सोने जाता है । मैं चैन की सांस लेती ही हूँ ,कि ये बिजली विभाग वालों का चैन चला जाता है।इधर पंखे की खटखट खटखट बंद होती है,उधर बेटे की कचमच चालू ।ख़ासियत ये है कि सिर्फ़ पंखे में काम चल जाता है,ए सी की ज़रूरत बिल्कुल नही है।

सुबह- सुबह एक व्यक्ति हमारे बगीचे के आसपास की सफ़ाई करता दिखता है। रोज़ आता है नियम से, और सूखे पत्तों को हटाता है। मैं समझती थी, पड़ोस का माली है क्योंकि पौधों को पानी देते हुए भी देखती हूँ। बातचीत के दौरान पता चला म्युनिसिपालिटी का माली है। कई सालों से यहां काम कर रहा हैं। हमारे घर के बड़े-बड़े नारियल के पेड़ इनके हाथों के ही लगे हैं। यहाँ इन लोगों की ड्यूटी लगती है।

म्युनिसिपालिटी को इतना एक्टिव मैंने यहीं देखा है।सुबह कूड़ा उठाने वाले भी वहीं से आते हैं।हम तो कई सालों से कूड़ा उठवाने के लिए पैसे देते आ रहे थे।यहाँ ये स्टाफ़ ऐसे साफ़ सफ़ाई करते हैं, जैसे ये उनका अपना ही घर है,

है ना ये अजीब सी बात !

लोगों ने अंडमान के बारे में हमेशा बिल्कुल अलग तरह की बात ही सुनी होगी ।अंग्रेज़ों से लड़ाई के समय अंडमान का योगदान महत्वपूर्ण रहा था।आज़ादी का पहला तिरंगा झंडा यहाँ नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 1943 में फहराया था।सौभाग्य से हमें ऐसे ऐसे घर मे रहने का मौका भी मिला, जहाँ खुद बोस ठहर चुके थे।पेडोक लकड़ी का बना घर,बहुत महंगी और मज़बूत लकड़ी होती है पेडोक । जहाज़ों को बनाने में वही इस्तेमाल होती है।

कहते हैं , इन हसीं नीली-हरी वादियों में जहाँ-जहाँ खड़े हो कर हम टूरिस्ट की तरह फ़ोटो खिंचवाते हैं ,वहां-वहां क्रांतिकारियों के खून का लाल रंग छुपा हुआ है।यहां का इतिहास बहुत सशक्त रहा है।10 मार्च 1857 को क्रांतिकारियों का पहला जत्था जहाज़ में भर कर चाथम पोर्ट पर आया था।धीरे-धीरे कर के यहाँ बहुत से क्रांतिकारियों को क़ैदी बना कर लाया गया था । लोग ऐसा मानने लगे थे कि ,अगर इतने देशभक्त यहां आ जाएंगे तो अंडमान को पहले ही आज़ादी मिल जाएगी।

आइलैंड्स में घूमने के मज़े लेते हुए आपको ये पता चलेगा कि, जिस मचान पर खड़े हो कर आप दूर-दूर के नज़ारे देख रहे हैं, वो क्रांतिकारियों के द्वारा ही बनाये गये हैं।फ़िर नज़ारे देखने से ज़्यादा आप एक अनकहे दर्द को महसूस करने लगेंगे।

बहुत तरीकों से सज़ा दी जाती थी उस समय।कई बार फांसी ,तो कई बार वीरान जगहों पर छोड़ दिया जाता था -काल का ग्रास बनने को।

यहां आ कर आज़ादी के सही मायने पता चलते हैं और हर कदम पर क्रांतिकारियों के निशान आपको भावुक करते जाते हैं।सेलुलर जेल जाने के बाद भी लोग बहुत भावुक हो कर बाहर आते हैं। मुझे अभी तक मौका नहीं मिल पाया है,जाऊँगी ज़रूर

साम्प्रदायिक सद्भावना के लिए भी अंडमान एक आदर्श जगह है।दो चर्चों के बीच एक मंदिर अक्सर नज़र आ जाता है, लोग बहुत धार्मिक भी हैं। आसपास के लोगों को रोज़ चर्च जाते देखती हूँ । मंगल और शनिवार को हनुमान मंदिर में लोगों की भीड़ दिख जाती है।

सड़क के हर कोने में किसी महापुरुष की मूर्ति या फिर तोप/फायटर प्लेन का मॉडल लगा दिख जाता है।

हर 20-25 दिनों में कोई न कोई मेला या प्रदर्शनी लगती रहती है।कभी हैंडीक्राफ्ट तो कभी पुराने लड़ाकू जहाज़ों की प्रदर्शनी और लोग जुट जाते हैं ,पूरे तैयार हो कर फुल फैमिली के साथ।

बहुत छोटी जगह है,प्रदर्शनी भी छोटी रहती हैं पर लोग बहुत उत्साहित रहते हैं,हर जगह जाते ज़रूर हैं।..

मेरी आंखों से अंडमान

यहाँ हर जगह नलों में पानी हल्का भूरा आता है।शुरू में हमें पानी को छूने का मन भी नहीं होता था, पर रंग हमेशा किसी चीज़ का गुण और सुंदरता निर्धारित नहीं करते।

पानी को छूने और इस्तेमाल करने के बाद ही पता चला कि वो बहुत ही ‘soft’ रहता है।

बरसों से फटी एड़ियां यहाँ आ कर ठीक हो गयी हैं।

आगरा,दिल्ली,जोधपुर हर जगह मौसम रूखा और पानी सफ़ेद, लेकिन hard। एड़ियों ने आंदोलन शुरू कर दिया था ,ठीक करो नहीं तो हम चले अपने रास्ते ,फ़िर तुम जाके दिखाना अपने रास्ते।

कपड़े धो कर जैसे ही बाहर सूखने डालो और चैन की एक झपकी लो, अचानक बाहर गोलीबारी शुरू हो जाती है।

सपने की दुनिया से कूद-फांद के बाहर आना पड़ता है कि ये हमला किया किसने, पाकिस्तान तो बहुत दूर है।

थोड़े होश में आने के बाद पता चलता है कि बारिश हो रही है।

ऊपर एस्बेस्टस की तिरछी छत रहती है हर बिल्डिंग में।

बारिश के मौसम में लगातार होने वाली बारिश को ध्यान में रख कर ऐसे घर बनाये जाते हैं ताकि ढलान से पूरा पानी नीचे आ जाये।

दौड़ कर बाहर जाने का तुक नही रहता क्योंकि 100 km/hr के स्पीड से ही स्टार्ट होने वाली बारिश कपड़ों को भीगो चुकी होती है।

फिर अगर बाहर जा कर ‘ये मौसम की बारिश’ ,या ‘टिप टिप बरसा पानी’ टाइप का कोई गाना गाने का मन है तो कोई बात नहीं !

सूखे कपड़ों को धो कर सूखने डालती हूँ ,सूखने वाले होते ही हैं कि फिर वो गीले हो जाते है और फिर वापस से सूखते हैं बेचारे।

आंखों के आगे समंदर का नज़ारा भी है। अगर रात में बारिश शुरू हुई, तो यहां रहने वाले कमज़ोर दिल वालों को इयरफोन ज़रूर लगा लेना चाहिए।

क्योंकि वो तड़तड़ाती आवाज़ और बीच बीच मे स्पीड से बढ़ती सायं सायं की हवा ऐसा महसूस करवाते हैं कि समंदर घर के अंदर बस आने वाला ही है।

हनुमान चालीसा पढ़ना शुरू कर देती हूं।वैसे अंडमान का मतलब हनुमान भी है तो शायद हनुमान जी हमें priority दे कर पहले बचाने आ जायें।…

एक छोटा सा ब्रेक

कल हम जी बी पन्त हॉस्पिटल गए थे।बेटे को पोलियो ड्रॉप्स दिलवाने के लिये।ये हॉस्पिटल एम्स जोधपुर जैसा वृहत तो नहीं है लेकिन साफ़ सफाई के मामले में ये एम्स के बराबर ही है।हाँ बिल्डिंग पुरानी ज़रूर है पर मज़बूत और आकर्षक है।

पति बहुत व्यस्त थे। फिर भी 2 घंटे बाद, समय निकाल कर उन्होंने हमारा काम करवा दिया।लंच टाइम हो गया था तो उन्होंने कहा ” तुम पास के कैफेटेरिया जाओ ,किसी ऑटो वाले को बोलना ले जाएगा,मैं 10 मिनट में आता हूँ।”इससे ज़्यादा वो और कुछ नहीं बोलना चाहते थे,पेशेंट ज्यादा थे।

मैंने भी वहां से निकल लेने में भलाई समझी।

देर हो गयी थी और भूख से हम दोनों मां बेटे बिलबिला रहे थे।

पति के कहे अनुसार मैंने बाहर जा के एक ऑटोवाले से कहा कैफेटेरिया चलो।

वो मेरी शक्ल देखने लगा ।

नई जगह में सब नए लगने लगते हैं।

जैसे लगा उसे कुछ पता ही नहीं,

सामने एक पेशेंट खड़ा था ऑटो वाले ने उससे पूछा तो उसने बोला रेस्टॉरेंट ले जाओ।(शायद उसे लगा होगा कैफेटेरिया का मतलब पूछ रहा था ऑटोवाला)

मैंने सोचा ,अच्छा ऑटो वाला समझ गया

फ़िर वो धड़ल्ले से ऑटो को आगे बढ़ाने लगा सुर्र्रर्रर .. और मुझसे पूछता है, “वेज या नॉनवेज।”

मैंने बोला” नहीं मुझे रेस्टोरेंट नहीं जाना है कैफेटेरिया जाना है”। वो मुझे आश्चर्यभरी दृष्टि से देखता है फिर मैं उसे बोलती हूँ ,”कैंटीन चलो”

मेरे पति ने बोला था एक कैंटीन है और एक कैफेटेरिया है हॉस्पिटल का। कैंटीन में भीड़ रहती है इसलिये हम कैफेटेरिया में खाते हैं।

वो पास के एक शॉप में ले जाता है (हॉस्पिटल के काम्प्लेक्स के अंदर वाली)।मैं उस दुकान के अंदर जाती हूँ पर वो मुझे न तो कैंटीन लगता है ना कैफेटेरिया।

हालांकि इस दुकान में भी 2-3 कुर्सियां लगी हुई हैं।सिर्फ़ एक ही दुकान है जो इस कैंपस में दिख रही थी मुझे।

मैं अंदर जा कर एक आदमी से पूछती हूँ” कैफेटेरिया कहाँ है?”

वो प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखता है, मैं फिर पूछती हूँ “कैंटीन कहाँ है?”

वह कहता है “यहाँ तो नही है।”

मुझे किस पर ज़्यादा गुस्सा आ रहा था ये तो नही पता पर भूख बहुत ज़ोरो से लग रही थी, तो पहला काम खाना खाना ही था।

फोन करने की हिम्मत नहीं थी मेरे अंदर ,क्योंकि पति वैसे भी बिजी थे ।

अब मैं पूछती हूँ” अच्छा डॉक्टर लोग खाना कहाँ खाते हैं?”

फ़िर वो इंसान बोलता है “आप एडमिन ब्लॉक में जाइये मैडम”।

मुझे लगा चलो कुछ तो बात बनी।

मैं ऑटो वाले को जा कर बोलती हूँ” भैया एडमिन ब्लॉक् चलो।”

ऑटो वाला भी संतुष्ट लगता है। आगे बढ़ाता है ऑटो …सुरर्रर्रर।

हम अब हॉस्पिटलके बाहर आ गए हैं ।एक एडमिन ब्लॉक जैसी बिल्डिंग भी सामने से निकल चुकी है,मैंने ऑटोवाले से बोला “भैया आप एडमिन ब्लॉक् ही जा रहे हैं ना।”

वो पलट कर सर हिलाते हुए बोलता है “मैडम मुझको तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है”

मुझे अपने आप से ज़्यादा उस ऑटोवाले पर दया आने लगती है।मैं बोलती हूँ”भैया घर ही चलते हम,आप शादीपुर ले चलो”।

मन ही मन मैंने सोचा घर जा कर खिचड़ी बनाने में ही भलाई है।कैंटीन और कैफेटेरिया की खिचड़ी से तो अच्छी ही रहेगी।

मेरी आँखों से अंडमान

क्या आपने कभी ग़ौर किया है कि जब हम समंदर के किनारे गीली रेत पर चलते हैं तब हमारे पैरों के निशान वहाँ बनते जाते हैं ,और जब हम लौटते हैं तो हमारे साथ ही ये रेत अपनी निशानी ले हमारे घर तक वापस आ जाती है । और हाँ ! अगर समंदर में नहाने का मज़ा भी आपने लिया है तो आप जानते होंगे कि बार -बार धोने के बाद भी ये रेत कपड़ों से अलग होने का नाम नहीं लेती। झड़ -झड़ कर निकलती ये रेत ,आपके घर की मिट्टी से मिल जाती है। फ़िर कहीं न कहीं आप समंदर किनारे की उस सैर की यादों को इन चमकते कणों में हमेशा अपने आस पास देखने लगते हैं।

हैवलॉक आईलैंड पोर्ट ब्लेयर से 2 घण्टे की दूरी(जहाज़ के माध्यम से) पर है।यहीं आने के लिए ही टूरिस्ट मुख्य रूप से अंडमान आने का प्लान बनाते हैं।

बिल्कुल साफ़ -सफ़ेद ‘beaches’।

सूरज लगता है ,मानो ख़ास तौर पर टाइम निकाल कर मिलने आता है लोगों से।

सुबह पांच बजे से सब उसे ‘गुड मॉर्निंग’ विश करने आ जाते हैं बीच पर।हर कोई अपने मे मगन रहता है जब तक सूरज भैय्या न निकल जाएं। और जैसे ही वे आते हैं सब सावधान की मुद्रा में तस्वीरें निकालने को तैयार हो जाते हैं।

किनारे लगे नारियल के लहलाते पेड़ लालिमा युक्त धूप से चेहरे का बचाव एक दुपट्टे सा करते हैं।

वहाँ रहने का एकमात्र मकसद केवल सूर्योदय और सूर्यास्त देखना ही लगता है और क्रिस्टल क्लियर पानी मे अपने पैरों को डुबो कर चलते रहना ,चलते रहना और दूर क्षितिज तक चले जाना।

पैरों के पास आये सीप ,कोरल,कौड़ियों को इकट्ठा करना।मोती की फिराक़ में ,सीपों को खोल खोल के देखना।

वहाँ रहने का एक दूसरा मकसद चांद की चांदनी को पानी में तैरता देखना भी हो सकता है।झिलमिलाती चाँदनी,नाचती चाँदनी,सज संवर,तैयार हो कर पानी में टहलती चाँदनी।

पोर्ट ब्लेयर की तरह यहाँ ज़्यादा चढ़ाई उतराई नही है ।बहुत कुछ गोआ की याद दिलाती है सड़कें। लोग ठीक-ठाक हैं ,बस टूरिस्ट स्पॉट है इसलिए उनकी मंशा आपका पॉकेट ढीला कराने की ज़्यादा होती है,मतलब सब कुछ महंगा है।विदेशी खूब दिखते हैं।अलग-अलग देशों से।कभी पूछा तो नहीं किसी कि कौन कहाँ से है पर उनकी शक्ल,नाक नक्श,बालों का टेक्सचर देख कर अंदाज़ा हो जाता है कि सब अलग अलग जगहों के हैं।

हाँ! हम इंडियंस की नज़र से देखें तो सभी गोरे हैं। ‘Tanning’का सुख लेने आते हैं और हफ़्तों रुक जाते हैं।आराम से पड़े रहते हैं धूप में किताबें ले कर, उनमें डूबे हुए। ‘Hammock’ (झूला)की व्यवस्था रहती है होटल्स के पीछे गार्डन में।उसमे गद्दे लगा कर पड़े रहते हैं, पूरे पूरे दिन। मैं तो 2-3 पेज पढ़ कर ही सो जाऊं।

चेहरे की रंगत जो पहले से 2 टोन कम हो गई है उसे वापस आने में जाने कितना समय लग जाये । पर इन गोरों का टोन कम नही होता, बस लाल-गुलाबी हो जाते हैं ।शाम में वाक के समय कश लगाते, beer पीते दिख जाते हैं ।सबके पास टूरिस्टों वाला बड़ा-सा बैगपैक।उसमें कई देशों का स्टीकर लगा होता है,इंडिया का भी।शायद घूमने की लिस्ट को याद रखने के लिए ये ऐसा करते होंगे। होटल में जाने ये क्या खाते हैं।ऐसी चीज़ मैंने तो कभी आर्डर नही की,नाम भी नही पता है,सब्जियां दिखती हैं बस ,वो भी शायद उबली हुई।बच्चे भी चटकारे ले ले कर खाते दिखते हैं। 1 साल का बच्चा भी अपनेआप चम्मच उठा कर खाता दिखता है।

विदेशी तो विदेशी हमारे अपने शुद्ध देशी कोई कम नही रहते। विदेशी कपड़े और चश्मा,हैट लगाए लहरों के मज़ा लेते दिख जाते हैं।’Broadmindedness’ का उदाहरण टूरिस्ट स्पॉट्स में ज़रूर दिख जाता है।आंटी और अंकल बड़े मजे में शॉर्ट्स पहने बाहों में बाहें डाले घूमते दिखते हैं।

वाटर स्पोर्ट्स के बहुत ऑप्शन्स हैं।स्कूबा,स्नोर्केलिंग,सी वाक,सी स्कूटर राइड।पहले इतना interest नहीं था कि क्या अंदर जा कर देखना है पेड़ पौधों को,मछलियों को।पर एक बार जाने के बाद लगता है बहुत अच्छा किया जा कर ।पानी के अंदर जाने के बाद प्रकृति के रंग रूप का जो नज़ारा दिखता है वो कभी भी बाहर की दुनिया या TV पर नहीं दिखेगा । गाइड्स बहुत सचेत रहते हैं आपके सेफ्टी को ले कर।अगर आप ट्रायल में कंफर्टेबल नहीं हैँ तो आगे नहीं ले जाते।

कुल मिला कर अगर मन और फेफड़ों में जमी गंदगी को RO फिल्टर की तरह प्रॉसेस कर के निकाल देना है तो हैवलॉक ज़रूर जाएं…

मेरी आँखों से अंडमान 6

बारिश किसे नहीं पसंद ।

झमझम कर के आती है अपने साथ झींगुरों और मेंढको की फ़ौज भी लाती है।साल भर प्रदूषण और धूल से लिपटे पेड़ बारिश में ही तो नहाते हैं।यहाँ अंडमान में बारिश इसलिए भी ख़ास है कि ये किसी बहुत बोलने वाले बच्चे की तरह बस बोलती ही चली जाती है नॉन स्टॉप।

रात भर बारिश ,सुबह थोड़ी देर के लिए रुकती है जैसे सैर पर जाने को तैयार होने गयी हो , फ़िर लोगों के ऑफिस जाने के समय तेजी से दौड़ने भागने लगती है।

हवा के साथ साथ भागने वाली बारिश पोलों और पेड़ों को हिलाते जाती है।मन के डर को कैसे शब्द दूँ ,लगता है अगर भरी बारिश में अगर रात के वक़्त पोल गिर जाए तो बिजली चली जाएगी और अगर बिजली चली गयी तो हमलोग कब तक अंधेरे में बैठे रहेंगे,अगर पोल न भी गिरा कोई पेड़ ही गिर गया तो गिरेगा तो तारों पर ही फिर पैदा होगी बिजली की समस्या।भगवान का नाम ले कर सोने में ही भलाई लगती है।

और जो दूर दिखता है समंदर, इतनी तेज बारिश में धुन्दला दिखने लगता जैसे वो बस अपना लेवल बढा के हमसे मिलने ऊपर तक आने वाला है।हम जैसे सूखे प्रदेश वालो के यहाँ जब बारिश होती थी तो स्कूल या ऑफिस नही जाने के बहाने पर जैसे एक ठप्पा लग जाता था।यहाँ 6 से 7 महीने बारिश होती है।कर्मठ इंसान अपने काम पर जाता है ।कार वाले कार में बैठ वाइपर चला कर,पैदल चलने वाले भीग भीग कर आराम से टहलकदमी कर।स्कूल वाले बच्चे आधे भीगे आधे सूखे ऑटो में बैठ कर जाते दिखते हैं।बारिश में रफ़्तार नही रुकती,रुकनी भी नही चाहिए।

पानी कहीं भी जमा नहीं होता क्योंकि हर जगह ज़मीन ऊंची नीची है जैसे लगता है सारा पानी घूम फ़िर कर वापस समंदर में फ़िसल फ़िसल कर पहुँच जाता है।फिर भांप बन आसमान में और फ़िर बादल बन बरस कर ज़मीन पर।अच्छा गेम है ना!

वाटर साईकल का नमूना बच्चा अच्छी तरह से समझ जाएगा।वो कहते हैं ना आंखों देखी।

कीड़े मकोड़े हैं आसपास पर उतने भी नहीं।

मच्छर वगैरा तो बाकी जगहों से कम ही हैं और जो हैं वो खली के साइज के हैं,इसलिए सुस्त भी हैं।आराम से स्लो मोशन में उन्हें शिकार बनाया जा सकता है।फिर निकलता है उनसे आधा लीटर खून जो शायद दो दिन की मेहनत से उन्होंने जमा किया होगा।

शाम में बारिश होती रही तो पकोड़े या झालमुड़ी का मूड बन जाता है।उसे उठ के बनाना हर किसी के बस की बात नहीं।बहुत कर्मठता चाहिए होती है।मैं इस आराम के मौसम में पहले से ज़्यादा अकर्मठ बनती जा रही हूँ।कुछ करना पड़ेगा।अब लिखने में भी आलस आता है।

हां कुछ पढ़ने मिल जाये तो पंखा बन्द कर चादर ओढ़े घण्टों पढ़ सकती हूँ।

इसलिए चाहती हूँ बाकी लोग लिखते रहें और मै आराम से पढ़ती रहूँ।


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