Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Inspirational

5.0  

Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Inspirational

मौत से रंगे हाथ

मौत से रंगे हाथ

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वह काफी बूढ़ा आदमी था। बुढ़ापे और खांसी का चोली दामन का साथ, शायद उसे रातों को सोने नहीं देता था। बिपिन को जब वो पहली बार टकराया था तो उसकी पीली बुझी बुझी आँखों को देख बिपिन के शरीर में झुरझुरी सी हुयी थी। सुबह की सैर के दौरान उसने अचानक से सामने आ कर बिपिन से माचिस माँगी थी।

सुबह की सैर और सिगरेट, यानी की उम्र बढ़ा कर उसी वक्त घटा लेना। बिपिन ने मन में सोचा था। वैसे बिपिन सिगरेट तो पीने लगा था पर फिलहाल सिर्फ शाम को एक पीने की आदत थी। एक सिगरेट से क्या बिगड़ेगा सोच अपनी आदत को सही भी मानता था।

"माफ़ कीजियेगा मैं माचिस नहीं रखता।"

बिपिन इतना कह कर वहां से कट लिया था। दस एक बरस पहले की बात होती जब उसकी मूंछे हल्की हल्की आनी शुरू हुयी थी तो शायद वो उससे कुछ गप -शप कर लेता। पर अब तीस साल का होते होते जिंदगी से इतना थक चुका था की किसी अनजान बूढ़े की बक-बक में उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी।

बूढ़ा हलके से हंसा । वैसे शायद माचिस नहीं मिलने पर खीज रहा हो या शायद बातचीत का बहाना बनाने पर भी बात करने के लिए मुर्गा नहीं फंसने से झल्लाया हो। चेहरा खीजा या झल्लाया होता तो शायद थोड़ा ज्यादा अच्छा लगता। पर ये हल्की हँसी बिलकुल ही अप्रत्याशित सी थी।

इसके बाद लगभग रोज ही बिपिन को वो पार्क में घूमता दिख जाता था। शायद पहले भी वो बिपिन को दिखता रहा होगा पर कभी उस पर ध्यान नहीं गया था। पर माचिस वाली मुलाक़ात के बाद से पार्क में घुसते ही बिपिन की ऑंखें उसे ही ढूंढती रहती थी।

"माचिस है क्या आप के पास ?" एक हफ्ते के बाद फिर उस बूढ़े ने उस के पास आने पर पूछा था। बिपिन एक धीमी मुस्कान देने वाला था पर कुछ सोच मुस्कान को रोक लिया। वो उस बूढ़े को रोज याद करता था और उस बूढ़े को उसकी बिलकुल याद नही थी। अपने दिल को बहलाया, पक्का बूढ़े को भी उस से हुयी पिछली मुलाक़ात याद होगी। शायद बस जता नहीं रहा।

"माफ़ कीजियेगा मैं माचिस नहीं रखता।"

इस बार जवाब दे कर वो रुक गया था। बूढ़े द्वारा अब आगे कुछ कहने की बाट जोह रहा था। पर बूढ़ा निर्विकार भाव भंगिमा बना कर आगे बढ़ गया तो बिपिन अचकचा सा गया। उसके मन पर बूढ़े के बर्ताव ने चोट कर दी थी। नाराजगी और उदासी अब बिपिन के चेहरे पर थी।

अगले दो दिन उसे वो बूढ़ा पार्क में नहीं दिखाई दिया। अनजाने ही बिपिन के चेहरे पर चिंता भाव की रेखाएं आने लगी थी। कहीं वो बीमार तो नहीं पड़ गया। इस उम्र में हार्ट अटैक से मौत होना भी तो आम बात है। यूँ भी कहीं भी कभी भी कोई हादसा होने में कितनी देर लगती है।

तीसरे दिन वो दिखा तो बिपिन के चेहरे पर धीमी सी मुस्कान आ गयी। बूढ़ा किसी दूसरे से माचिस मांग रहा था। शायद उसे माचिस भी मिल गयी थी। पर उसने सिगरेट तो नहीं सुलगाई। बस माचिस वापस कर माचिस देने वाले से कुछ बात करने लगा था। देने वाला बूढ़े की बातों से बेजार हो दूर शून्य में ताक रहा था। बूढ़ा फिर भी लगातार कुछ तो बोले ही जा रहा था। माचिस देने वाला आदमी बूढ़े के सामने हाथ जोड़ कुछ झटकेदार अंदाज में उससे बच कर भाग सा गया।

बिपिन ने सर को झटका दिया। उसे बूढ़े से बात करने की उत्सुकता हो रही थी पर मन में वो थोड़ा सा आतंकित भी था। सठियाना शब्द है, तो उस के कोई मायने भी तो हैं। क्या पता बूढा कितना सठिया चुका हो। पर नहीं दिखने में तो समझदार सा ही था बूढ़ा हाँ कपडे थोड़े सामान्य से ही थे और अमीर होने का कोई लक्षण नहीं था पर पीली ऑंखें और पीले दांतों के बाद भी यह तो स्पष्ट था की बूढा गरीब नहीं था। फिर माचिस खरीद कर अपनी ही जेब में रख लेने में क्या दिक्कत थी उसे । क्यों दूसरों से इतनी छोटी चीज मांग सुबह सुबह अपनी इज्जत का फालूदा करवाता था। ऐसा तो नहीं की बेचारे की याददाश्त कमजोर हो। भूल जाता होगा शायद माचिस रखना। डीमेंसीया या अल्झाइमर्स की सम्भावना रहती ही है बुढ़ापे में । कितने ही लोग अपनी पूरी जिंदगी भूल जाते हैं । वैसे हाथ पावों तो स्थिर ही थे उसके। झनझनाते या कंपकंपाते तो नहीं दिखे थे आज तक ।

अगले एक हफ्ते बिपिन उस पार्क नहीं गया। वो अपने घर गया था। यहाँ महानगर में भी उसका अपना एक कमरे का मकान है जहाँ बस वो और उसका अकेलापन बस गया है। पर इसे घर कहना, कभी कभी घर शब्द पर सोचने को मजबूर कर देता है। खैर एक हफ्ते के लिए तो वो छोटे से शहर के चार कमरों वाले घर में था जहाँ माता-पिता और छोटी बहन उसे देख कर खुशी से उससे लिपट गये थे।पता नहीं क्यों पर इस बार अपने पिता के चेहरे में भी उसे बुढ़ापा दिखा। वो भी तो अब सुबह की सैर पर जाने लगे थे।

वापस लौट कर फिर सुबह पार्क गया तो अपनी जेब में माचिस रख कर ले गया। बूढ़ा दिखा पर उसने उससे माचिस नहीं मांगी। ऐसे ही दो- तीन दिन बीते तो उसे बेचैनी सी होने लगी। अब वो किसी भी कीमत पर उससे बात करना ही करना चाहता था। सो खुद ही उसे रोक कर बोला-

"लीजिये बाबा माचिस। "

बूढ़ा हतप्रभ सा उसे देख रहा था। फिर अचानक ही ऐसा लगा जैसे बूढ़े पर कोई देवता चढ़ गया हो। उसकी आंख लाल हो गयी। थोड़ी सी पनीली पीली ऑंखें अब अपने अंदर सारे जहाँ का दर्द समेटे हुए थी। बूढा रटे रटाये तोते सा बोलने लगा

"कितनी गलत बात है। इसी दिन के लिए माँ बाप पाल पोस कर बड़ा करते हैं की तुम बीड़ी-सिगरेट पियो और फिर माँ -बाप को बुढ़ापे में अकेला छोड़ कर उनसे पहले संसार छोड़ दो। मेरे जतिन ने भी यही किया था न। छोड़ गया न हम बूढ़े बुढ़िया को अकेला। फेफड़ों के कैंसर से मारा गया। सिगरेट के काले धुंवे ने हम सबकी जिंदगी अंधेरी कर दी। मेरी गलती है। मैं सिगरेट पीता था सो मेरी देखादेखी उसने भी पीनी शुरू कर दी। जो कालिख मेरे हाथ में थी मेरी देखादेखी उसकी नन्ही हथेलियां भी शायद तभी से सिगरेट की कालिख से रंग गए। तुम ऐसा मत करना। कभी नहीं। बिलकुल नहीं। अभी वायदा करो की आज के बाद सिगरेट नहीं पियोगे। बहुत गंदी लत है। बहुत बुरी। "

बिपिन को पल में सब कहा अनकहा समझ आ गया। पता नहीं उसे क्या सूझी और क्यों सूझी। शायद बूढ़े के चेहरे में अपने पिता का चेहरा दिखा या उसके दर्द को समझने की काबलियत उस में आ गयी। झट से उसने बूढ़े बाबा का हाथ कस के पकड़ लिया और बोला-

"ठीक कह रहे हो बाबा। बिलकुल ठीक। आप चिंता मत करो मैं कभी नहीं पियूँगा। कभी नहीं चाहे कुछ भी हो जाए।"

बूढ़ा मुस्कुरा दिया। उसकी आंखें अचानक ही बेहद जीवंत हो उठी। बिपिन की पीठ थपथपा वो पार्क से बाहर की ओर चल दिया।

"आज आप को पकड़ लिया उस पागल ने। " सामने से एक आदमी ने मुस्कुरा कर उससे पूछा।

बिपिन ने कोई जवाब नहीं दिया। बूढ़े के दर्द को यहाँ कौन समझता। किसी को उसकी भलमनसाहत की कद्र भला क्यों होती। उसने अपनी संतान को जिस व्यसन की वजह से खोया था वो बेचारा अपने दम पर दूसरों को उस व्यसन से दूर रखने की कोशिश ही तो कर रहा था। 

कालिख से दूर रखने की उसकी नेक कोशिश से एक दो भी लोग सुधर जाएँ तो शायद उसे अपने हाथ फिर से साफ़ लगें। 


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