मैं, वो और पपीता

मैं, वो और पपीता

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बात उन दिनों की है जब मैं पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए छोटे से शहर से बड़े शहर देहरादून आया था। बहुत मुश्किल से हिटलर बाऊजी से आज्ञा मिली थी, दूसरे शहर जा कर पढ़ने की। उस दिन घर से निकलते हुये मैंने कुछ ज्यादा ही उदास चेहरा बना दिया था। अंदर तो अब तक खुशी के मारे 5 किलो लड्डू फूट चुके थे।


"बेटा अगर घर से दूर जाने में दुख हो रहा है तो कोई बात नहीं रुक जाओ। प्राइवेट कर लेना आगे की पढ़ाई" ये सुनते ही मैंने डर के मारे माँ, बाऊजी के पैर छुए और जल्दी से गाड़ी में बैठ गया।


देहरादून पहुँच गया। बुआ की बचपन की सहेली के यहाँ एक कमरा किराये में ले लिया। मैं भी धीरे- धीरे शहर के रंग में ढलने लग गया। अपने शौक पूरे करने के लिए ट्यूशन पढ़ाने लगा। बीच -बीच में बाऊजी का फोन आता रहता "संभल के रहना छोकरी बाजी में मत पड़ना"


 कॉलेज में कोने- कोने में प्रेमी जोड़ों को बैठा देखता तो मन में कसक उठती की काश मेरी भी कोई प्रेमिका होती। ऐसा लग रहा था कि मेरा ध्यान पढ़ाई में कम और प्रेमिका बनाने में ज्यादा था। मुझे पता पड़ा कि सामने वाला घर किसी रावत जी का था। उनकी बेटी मेरे कॉलेज में ही पढती थी और बहुत खूबसूरत भी थी। उसके दीदार के लिए हर समय छत पर टंगा रहता।


एक दिन वो दिख गयी। खूबसूरत तो थी। उसको देख ही रहा था कि, मेरे पीछे से उसको किसी ने आवाज दी "गीतू यानी की गीता, आज कॉलेज क्यों नहीं आयी थी?"


मैं नजरें किताब में गड़ा कर दोनों के वार्तालाप को सुन रहा था।


"ऐसे ही यार मूड नहीं था" उसकी आवाज़ सुनते ही मुझे, उससे प्रेम हो गया।


"आजा, पपीते की चाट बनाती हूँ। तेरा मूड ठीक हो जाएगा"


"ठीक है आती हूँ”


पपीते की चाट बनाने वाली बुआ की सहेली, यानी जिनके मकान में मैं रहता था, उनकी बेटी, बबिता थी। वो भी मेरे कॉलेज में मेरी जूनियर थी। खुद भी किसी पपीते से कम न थी। गोल मटोल, सांवली साधरण सी सूरत वाली। अक्सर मेरी नजरें आते- जाते उससे टकरा जाती थी। उनका काफी बड़ा बगीचा था जिसमें अमरूद, आम, पपीता आदि के पेड़ थे। बबिता हमेशा मुझे कुछ न कुछ खाते हुए ही दिखती थी। उस वक़्त मुझे भी पपीते की चाट खाने का बहुत मन था। जबकि मुझे पपीता बिल्कुल पसंद नहीं था। लेकिन उस मन मोहिनी गीतू के साथ। मेरी नींद उड़ गई। रोज इसी उधेड़बुन में रहता कि, कैसे उस तक अपने मन की बात पहुँचाऊँ?


एक दिन बबिता और गीतू कॉलेज जाते समय लोकल बस में मिल गई। उस वक़्त उस इलाके में एक ही बस चलती थी और पूरी बस कॉलेज के ही लड़के लड़कियां से भरी रहती थी। आधे प्रेमी जोडों की उत्पत्ति का श्रेय इसी बस को जाता था। कुछ प्रेमी जोड़े तो सिर्फ मिलने के लिए इस बस का सफर करते थे। उसी बस में बैठकर वापस घर भी आ जाते थे।


अचानक से गीतू धक्का-मुक्की सहते हुए मेरे बेहद करीब खड़ी हो गयी। बस की रफ्तार से ज्यादा मेरे दिल की धड़कन थी। मुझे देखकर थोड़ा सा मुस्कराई भी। बात शुरू करने का बहुत अच्छा मौका था। कुछ बोलता उससे पहले ही बबिता की बच्ची हम दोनों के बीच में खड़ी हो गयी। उफ्फ !! कितना बोलती थी चपड़ चपड़। उसकी बातों में हमेशा खाने की ही बातें होती। अपने झोले से उसने बड़ा सा स्टील का डब्बा निकाला, और खोल कर मेरी तरफ बढ़ाया "खाओ, पपीते की चाट”


अजीब लड़की है ये! भरी बस में भी? मैंने मुंह बनाते हुए मना कर दिया। उस पर गुस्सा भी आ रहा था। गीतू और मेरे बीच में पपीता खाने बैठ गयी। जी तो किया कि एक साबूत पपीता उसके मुहँ में ठूंस दूं। एक तरफ़ा प्रेम को ढो रहा था मैं। पूरा मजनू बन बैठा था। किताबों में बिल्कुल भी मन नहीं लगता था। आशिक़ी फ़िल्म, पुरानी वाली उसका एक गाना "नजऱ के सामने, जिगर के पास कोई रहता है वो हो तुम” दिन भर इसी गाने को सुनता रहता।


कुछ दिनों बाद एक और मौका मिला गीतू से बात करने का। बबिता की माँ ने मुझे बुलाया "बेटा जरा वो ऊपर वाले पपीते तोड़ दे। मुझसे तोड़े नहीं जा रहे (क्या यार, इन पपीतों ने मेरा जीना हराम कर दिया ) और तोड़कर न सामने गीतू के यहां दे आना”


ये सुनते ही मैं खुशी के मारे "पपीता पपीता" हो गया। कसम से पूरी जान लगा दी मैंने उन पपीतों को तोड़ने में। जल्दी से एक थैले में सारे पपीते डाले और निकल पड़ा अपने प्रेम को, पपीते भी भेंट देने। दरवाजे की घंटी बजा डाली। उस दिन वो और मैं आमने- सामने होने वाले थे और पपीते हमारे प्रेम के गवाह। दरवाजा खुलते ही मुझे बहुत जोर का सदमा लगा। सामने बबिता खड़ी दांत चमका रही थी "अरे! ले आये पपीते, दो, मैंने ही माँ को बोला था कि तुमसे तुड़वा ले। आज गीतू और मैं पपीता पार्टी करेंगे”


बुझे कदमों से मैं कमरे की तरफ़ वापस जा रहा था तभी खिड़की से बबिता की आवाज़ आयी "चल गीतू खेलते हैं। तू जल्दी-जल्दी बोल के दिखा, “कच्चा पपीता -पक्का पपीता” और दोनों हँसने लगे। मेरा दिमाग झन्ना गया। खेलने में भी पपीता। मन में एक साज़िश बना ली कि, आधी रात को इनके बगीचे के सारे पपीते के पेड़ उखाड़ फेंकूँगा।


एक दिन कॉलेज की कैंटीन में गीतू अकेले बैठी मिल गयी। मौका देखकर मैं भी उसके सामने बैठ गया। हाय! हेलो ! करके जैसे ही बात शुरू की पीछे से आ गई बबिता "अरे तुम दोनों यहां बैठे हो मैं तुझे कब से ढूंढ रही थी। (आ गई फिर से बीच में ) मुझे तो बहुत भूख लग रही है चल कुछ खाते है” बोलकर उसने अपने झोले में हाथ डाला। इससे पहले वो पपीता चाट निकालती, मैं उठकर चला गया।


एक साल निकल गया था। इस बबिता की बच्ची ने मेरे प्यार की शुरुआत ही नहीं होने दी। हर बार बीच में आ जाती थी। एक दिन बबिता बहुत खुश होते हुए हाथों में लड्डू का डब्बा थामें मेरे पास आई "लो, मुंह मीठा करो”


" क्यों ! क्या बात है?"


"आज गीतू की सगाई हो गयी। अगले महीने शादी है”


दिल के अरमान आंसुओ में बह गए। ये गीत सिर्फ मुझे सुनाई दे रहा था। हताश निराश, टूटे दिल के साथ मैंने गीतू की पूरी शादी अटेंड करी। बबिता अपनी सहेली की विदाई में बहुत रोई। अब मेरे साथ समय अपनी रफ्तार से बढ़ रहा था। पढ़ाई पूरी कर नौकरी के लिए दूसरे शहर आ गया। तीन साल बीत गए।


एक दिन बाऊजी जी का फोन आया कि मेरा रिश्ता तय कर दिया है। बुआ के यहाँ लड़की वाले आ रहे हैं मैं जाके मिल आऊं। हम कुछ भी सोचें लेकिन जो भगवान सोचता है वो अनोखा और अकल्पनीय होता है। बबिता चाय की ट्रे थामें और मुस्कराते हुए मेरी तरफ बढ़ रही थी। उसको देखते ही मेरे दिमाग में हजारों पपीते घूमने लगे।


धीरे -धीरे बबिता के भोले और चुलबुले व्यवहार ने मेरा मन जीत लिया। विवाह के इतने वर्षों बाद आज मेरे पास पपीते का पूरा बगीचा है। यानी मैं, बबिता और हमारे तीन बच्चे। इतने सालों में बबिता ने मुझे जिन्दगी की एक बहुत बड़ी सीख दी।


"पपीता सेहत के लिए गुणकारी होता है”



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