'माँ कितना झूठ बोलती है'
'माँ कितना झूठ बोलती है'


अलार्म बजने से पहले ही वो अपनी आंखें खोलती है, नींद में चलती हुई रसोई कि तरफ वो इधर उधर डोलती है, जब भी आता हूं दफ्तर से-कांपते हुए हाथों से मेरा टिफिन खोलती है, और पूछूँ अगर कि माँ ठीक हो ना, मुझे क्या हुआ है वो ऐसा ही बोलती है, ये माँ है ना 'कितना झूठ बोलती है'..
और उसकी नम आंखें देख के लगता है पैरों का दर्द फिर बढ़ गया, पूछूँगा अगर तो कहेगी आँखों में कोई कचरा अड़ गया, ये अपने ग़मों का ख़ज़ाना इतनी आसानी से कहा खोलती है, ये माँ है ना 'कितना झूठ बोलती है'..
खामोश समुद्र कि लहर कि तरह अभी ठहरा हूँ, ये मत समझना मैं गूँगा और बहरा हूँ, और वक्त आने दो सबको बता दूँगा मैं कितना गहरा हूँ, और पता है वो मुझे लाखों में एक और नेक बोलती है, हाँ हाँ जानता हूं मैं माँ 'कितना झूठ बोलती 
; है।'
परेशान थका हारा जब भी घर वापस आता हूं, हर बार वो ही दरवाजा खोलती है, कहां था तू अभी तक और खाया कुछ तूने हमेशा ऐसा ही पूछती है, बड़े प्यार से अपनी उँगलियों से मेरा सर रोलती है, परेशान मत हो सब ठीक हो जाएगा वो ऐसा ही बोलती है, मगर ये जो उसकी आँखें है ना ये कुछ और ही बोलती हैं, मैं जानता हूं माँ 'कितना झूठ बोलती है।'
अब उसके चेहरे से उसकी उम्र झलकती है, एक आहट से जगने वाली चार आवाज़ में जगती है, और मेरे जाने के बाद दोनों भाई खुशी खुशी साथ रहना वो ऐसा बोलती है, कहीं नहीं जाएगी मुझे छोड़ के वो, माँ सच में 'कितना झूठ बोलती है।'