माँ की यादें 3
माँ की यादें 3
मेरी माँ व पापा अब हमारे पैतृक निवास पर आ चुके थे। अब परिवार में 6 सदस्य हो चुके थे। 2 बड़ी बेटियां व 2 बेटों के संग परिवार पूरा हो चुका था।
मैं अब कुछ समझदार हो चुका था, माँ से जुड़ाव और बढ़ गया था। मैंने कभी माँ को आराम करते नहीं देखा था। वो सुबह 5 बजे बिस्तर छोड़ देती थीं और रात का 11 बज जाता था उनको सोते सोते। माँ कुछ ना कुछ काम किया ही करती थीं। मुझे बड़ा आश्चर्य होता कि वो कभी किसी चीज़ से ना तो शिकायत करतीं ना ही हम लोगों को किसी बात का उलाहना देतीं। दीदी लोगों को भी किसी काम को नहीं करने देतीं। कह देती कि ससुराल जाकर फिर तो करना ही है, अपनी माँ के घर में अपनी मर्ज़ी से रह लें। जैसे मैंने बताया कि मैं शैतान बहोत था, तो मेरी पिटाई भी माँ के हाथों जब तब हो जाया करती थी। मुझे पीट कर वो बेचारी दुखी हो जाती थीं जबकि मैं पिटने के कुछ देर बाद ही सामान्य हो जाया करता था।
माँ हम लोगों को रोज़ ना जाने कितनी धमकी देतीं कि आने दो पापा को एक एक करतूत बताऊंगी, हम लोग डर भी जाते थे। मग़र मुझे याद नहीं कि माँ ने कभी किसी की शिकायत करी हो। पापा ने कभी हम लोगों को हाथ भी नहीं छुआया था पर कितना डर उनका रहता था। मैं तो बेटों की पिटाई भी कर देता हूँ फिर भी मेरे मुँह पर बदमाशी करते हैं। उनकी माँ कहती है कि बच्चे आपसे बहोत डरते हैं। मैं समझ नहीं पाता कि ये डर है तो हम लोगो मे अपने पिता जी के लिए क्या था..?? हम लोग के पीछे इतना काम रहता था माँ को कि दिनभर उसी में उनका लग जाता था। दोपहर में भी माँ सिलाई कढ़ाई या अलमारी सही करना, सामान ठीक से रखना यही सब करते देखा।
उन दिनों हमारा परिवार ही शहर में रहता था तो लगभग 2-4 दिन छोड़कर कोई ना कोई गाँव से आया ही रहता था। काम के हिसाब से 1-2 दिन रुकना तो उतना खाना भी अलग से बढ़ जाता और उनके बैठने सोने के इंतजाम को लेकर मैंने माँ को कभी कुछ कहते नहीं देखा। पापा के छोटे भाई यानी चाचा लोग आते तो उतनी दिक्कत नहीं होती थी। माँ आराम से अपने काम निपटा लिया करती थीं। मगर जब बाबा लोग आ जाते तो उनका सारा दिन उसी चौके में निकल जाता था। उनके इसी व्यवहार के चलते सब आया जाया भी करते थे। हम चारों भाई बहन कभी कुछ कह भी देते तो उनसे ऐसी डांट पड़ती कि दुबारा हिम्मत ही ना पड़ती कि कुछ कहें। उस समय घर भी छोटा हुआ करता था इसलिए और परेशानी होती। मगर कितने भी लोग आ जाते माँ उतनी ही जगह में ही सबको फिट कर लेती थीं। आज घर भी बड़ा है कमरे भी बढ़ गए हैं फिर भी आने वाले लोग नहीं हैं। कभी कोई आ भी जाये तो इतनी जगह पर भी सबको कम ही लगती है।
मैं कॉलेज में आ चुका था, मगर माँ की दिनचर्या बिल्कुल नहीं बदलती। कभी हम सब कहीं बाहर जाते और अगर बस से गये तो ठीक मगर ट्रेन से गये और ट्रेन प्लेटफॉर्म पर आ भी जाये तो भी माँ की चाल उसी तरह रहती जैसे वो सामान्यतः चलतीं। बाबा कहा करते थे, दुलहिन की चाल नहीं बदल सकती भले ट्रेन छूट जाये। और सब ठठा कर हंस दिया करते। माँ का बहोत सम्मान था एक तो घर की बड़ी बहू व दूसरा अच्छा व्यवहार। पापा के लिए लोगों के मन मे डर था पर माँ के लिए प्यार था।
जब मेरी नौकरी देहरादून में लगी थी और मैं हाँ भी कर आया था तो सबसे ज्यादा माँ ही परेशान थीं क्योंकि मुझे खाने पीने में चाय भी नहीं बनानी आती थी, कपड़े धोना, बिस्तर लगाना कुछ भी मैंने नहीं किया था। मैं बड़ी कठिनाई से उन्हें समझा पाया था कि आप परेशान मत हो मैं सब कर लूँगा आप बिलकुल निश्चिंत हो जाओ। अगर फिर भी नहीं कर पाया तो वापस आ जाऊँगा। तब कहीं जाकर उन्होंने इज़ाजत दी। जब छुट्टी या मीटिंग में घर आता तो माँ केवल मेरे पसंद का ही खाना बनातीं। 2-3 दिन जो भी रुकना होता मजाल होती कि मैं पानी भी उठ कर नहीं ले सकता था, सब जगह पर मिलता था। माँ के इस लाड़ दुलार से सब को जलन होती।
माँ से मैंने कहा कि मेरे साथ देहरादून चलो तुम्हें सब घुमा दूँगा। मसूरी, हरिद्वार, ऋषिकेश सब जगह तो बोलीं खाना बनाते नहीं हो ना ही सामान रख रखा है। हम होटल में रोज़ नहीं खा पाएंगे। उसी समय मैंने सोंच लिया कि अब दुबारा तभी कहूँगा जब सब इंतज़ाम कर लूँगा। बस वापस आकर बहोत देख सुन कर 2 रूम सेट लिया, पेइंग गेस्ट के तौर पर। बहोत अच्छी फैमिली थी करीब 2 महीने बाद मैंने आंटी से पूछा कि मैं माँ को लाना चाह रहा हूँ 10-12 दिनों के लिए, कि उनको भी घुमा दूँ। उन्होंने कहा बिल्कुल लेकर आओ, हम भी उनसे मिलना चाहते हैं। बस मीटिंग में घर गया तो माता जी का भी रिज़र्वेशन करवा कर ही गया था। उनको बोला कि सब इंतज़ाम कर लिया है बस आपने चलना है।
वो दिन भी आ गया जब माँ मेरे साथ देहरादून आई, मेरा घर देख कर मेरे मकानमालिक से मिलकर बहोत खुश हुई। बढिया से पूरा एरिया उनको घुमाया, आंटी के साथ खाना खाती। पर इस तरह खाना खाते हुए उनको संकोच बहोत होता था। मैंने आंटी से बताया तो उन्होंने उनका संकोच खत्म कर दिया। वापस लौट कर माँ बहोत खुश थीं, सबसे उन्होंने मेरी ढेर तारीफ करी। बस घर में छोटा गुस्से में था, माँ पहली बार उससे इतने दिनों के लिए दूर थीं। वो महा चिपकू था।
मैं घर से करीब 9 साल बाहर रहा फिर वो नौकरी छोड़ कर घर ही लौट आया। मेरी शादी हो चुकी थी, माँ दादी बन चुकी थीं। दोनों बहनें अपनी ससुराल जा चुकी थी। छोटे की भी शादी हो गई थी अब तक। मेरे एक बेटा और हो गया था छोटे के एक बहोत क्यूट सी बेटी थी। माँ बहोत खुश थीं कि दोनों बेटे साथ में हैं, अच्छी बहुएं आ गई थीं। पोते पोती, नाती नातिनों से घर भर जाता था। दिनभर घर में चहचहाहट बनी रहती। माँ पापा बिल्कुल ठीक थे, संतुष्ट थे अपनी गृहस्थी से।
अब माँ हमारे बीच नहीं है मगर उसकी यादें इतनी सजीव हैं कि आज भी मैं उनको महसूसता हूँ। घर में, परिवार में सब उन्हें बहोत याद करते हैं। सबसे ज्यादा पापा, उनके जाने से वो बहोत अकेले रह गए हैं। माँ तो माँ ही होती हैं कोई भी माँ को नहीं भुला सकता है। छोटा तो अब भी याद कर रो लेता है।