माँ की रूखी सूखी रोटी

माँ की रूखी सूखी रोटी

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वर्षा, गाँव के मास्टरजी धर्मेशजी की बेटी...


धर्मेशजी की गाँव के चौधरी सत्यपाल जी से घनिष्ट मित्रता थी, जिसके चलते सत्यपाल जी ने धर्मेश जी से अपने बेटे वीरेंद्र के लिये वर्षा का हाथ मांग लिया| धर्मेशजी को भला क्या ऐतराज़ हो सकता था आखिर सत्यपाल जी और उनके परिवार को वो बरसों से जानते थे|


सत्यपाल जी की धर्मपत्नी शशिकला जी इस रिश्ते से ज़रा भी खुश नहीं थी... परन्तु सत्यपाल जी के सामने उनकी एक नहीं चलती थी|


वर्षा की शादी विजेंद्र से हो गयी| ससुराल में पहले दिन से ही मिलनसार वर्षा सबका दिल जीतने में लगी रहती थी| 


घर में इतने नौकर-चाकर होने के बावजूद उसकी सास शशिकला ने रसोई में खाना-पीना बनाने की सारी ज़िम्मेदारी उसी के ऊपर डाल दी| अपनी अमीरी का रुतबा दिखाने के लिए पूरे दिन उसे रसोई में ही लगाए रखती थी और घरवालों की पसंद कह कर तरह-तरह के व्यंजन बनवाती रहती थी, चाहे बाद में वो सब उठा कर नौकरों को ही देना पड़े क्यूंकि घर वाले भी आखिर कितना खाते| 


वीरेंद्र और वर्षा का तो साथ शशिकला जी को बिलकुल भाता ही नहीं था, इसलिए किसी ना किसी कारण से उन दोनों को साथ में बैठने भी नहीं देती थी| अपने संस्कारों से बंधी वर्षा अपनी सासु माँ का दिल जीतने में ही लगी रहती थी| एक दिन वर्षा का मन आम की लौंजी खाने का हुआ उसने डरते-डरते अपनी सास से कहा, "मम्मी जी आज खाने में थोड़ी सी लौंजी बना लूँ ? मेरी मम्मी बनाती थी हम सब भाई-बहन तो उँगलियाँ ही चाटते रह जाते थे| बहुत पसंद है, मुझे आम की लौंजी|" शशिकला जी ने एक मिनट नहीं लगाया वर्षा को मना करने में और यह भी नहीं की वो उसे आराम से मना कर देती, उन्होंने उसे ताना मारते हुए कहा, "रोज़ ही हमारे घर में इतने व्यंजन बनते है... तुमने तो कभी न देखे होंगे ना सुने होंगे और ये तुम्हारा पीहर नहीं है, जो यहाँ तुम्हारा नखरा उठाया जायेगा| हमारे घर में कोई नहीं खाता ऐसी बेकार सी चीज़े|" आज वर्षा के सम्मान को बहुत ठेस लगी...


उसे अब इस घर में घुटन होने लगी, जहां वो अपनी मर्ज़ी से चैन से जी नहीं सकती थी, कुछ खा नहीं सकती थी| एक अपनी पसंद की चीज़ बनाने के लिए उसे इतनी बातें सुननी पड़ गयी| आज वर्षा अपने को उस प्यासे की तरह समझ रही थी, जो कुएँ के पास खड़ा हो कर भी प्यासा ही रह जाता है|


अब उसने मन ही मन में इतना अपमान ना सहने की ठान ली थी| एक दिन वह रसोई में गयी और लहसून-प्याज की चटनी बनाने लगी, इतने में किसी थानेदार की तरह शशिकला जी रसोई में आ गयी और लगी वर्षा को चार बातें सुनाने, "किस के लिए बना रही हो, तुम यह? कितनी बार कहा है, रसोई में कुछ भी हमसे बिना पूछे नहीं बनेगा| माँ-बाप ने कुछ संस्कार दिए भी हैं की नहीं"?


वर्षा से भी अब चुप नहीं रहा गया उसने शशिकला जी की आंखों में आंखें डालते हुए कहा, "मम्मी जी ये घर जितना आपका है, उतना ही मेरा भी है| आप भी इस घर की बहु हो मैं भी इस घर की बहु हूँ| जहाँ चार लोगों की पसंद का खाना बनता है, वहां आज तक मुझसे मेरी पसंद नहीं पूछी गयी इसलिए मैंने सोचा मैं भी इस घर की सदस्या हूँ, तो मैं क्यों नहीं खा सकती अपनी पसंद का खाना... रही बात संस्कारों की तो मेरे पापा एक अध्यापक है, उन्होंने एक तरफ जहाँ मुझे सबकी इज़्ज़त करना सिखाया है, वहीं दूसरी तरफ अपने सम्मान के लिए खड़ा होना भी सिखाया है| हमारे घर में रोज़ छप्पन भोग तो नहीं बनते थे, पर मेरी माँ परिवार के हर सदस्य की इच्छाओं का बराबर ध्यान रखती थी| मेरे पीहर की रूखी-सूखी रोटी भी मुझे आपके घर के पकवानों से अच्छी लगती थी, क्यूंकि उसमें मेरी माँ के प्यार का स्वाद होता था और यहाँ पर तो हर चीज़ में आपकी रईसी का घमंड ही नज़र आता है|आम की लौंजी


शशिकला जी अवाक सी खड़ी वर्षा को देखती रह गयी और वर्षा अपना खाना लेकर अपने कमरे की तरफ मुड़ गई |"|


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