Shalini Dikshit

Inspirational

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Shalini Dikshit

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माँ का फोन

माँ का फोन

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सुधीर सिर पकड़े दवा की गोलियों को उलट-पलट रहा था फिर गुस्से में उसने सारी गोलियां फेंक दी। 

"जाओ तुम सब भी बेकार हो.......किसी दवा में इतनी ताकत नहीं कि मुझे नींद दिला सके।" दवाओं को फटकारा उस ने।

पिछले कई दिन से उसको नींद नहीं आई थी, अवसाद कि गोलियों ने भी अपना काम करना कम कर दिया था। जिन टीवी सीरियल में वो काम कर रहा था उनकी शूटिंग भी जोरों से चल रही थी कभी रात में शूटिंग तो कभी दिन में।

छोटे शहर से आने वाले लोग शायद इस अभिनय की चकाचौंध भरी दुनिया में खुद को बहुत शीघ्रता फिट करने के चक्कर में अपने आप को ही भूल जाते है और पूरी तरह से अपनी जड़ो को भूल भी नहीं पाते। वही से संघर्ष शुरू हो जाता है मन के अंदर की दुनिया और बाहर की दुनिया का संघर्ष, कभी-कभी यही संघर्ष विकराल रूप धारण कर लेता है। 

सुधीर का अपने छोटे से शहर से मुंबई की चकाचौंध भरी दुनिया का सफर जो उसके लिए अब तक एक सुनहरे सपने के सामान था अब वो बुरा सपना बनकर उसे डराने लगा था। कहाँ बॉलीवुड फिल्मों का सुपर स्टार बनने का सपना उसकी आँखों में था कहाँ आज टीवी सीरियलों का एक्स्ट्रा बन के रह गया था वो। 

"चल बेटा सुधीर अब इस सीरियल में तेरा कोई काम नहीं है........काम तो मिल जायेगा तुझे, लेकिन ये टीवी सीरियल फायनेंस करना पड़ेगा तुझे, नहीं तो जब सीरियल ऑन एयर होगा तब तेरा मेहनताना तुझे मिल जायेगा।"

इस तरह के वादों फटकारो से विचलित हो उठता था सुधीर लेकिन एक उम्मीद लिए इस स्टूडियो से उस स्टूडियो भटकता रहता वो। जो थोड़ा बहुत काम मिल जाता उसी के मेहनताने से जिंदगी चल रही थी उसकी। कहां तो वह जमींदार का बेटा था वो लेकिन इस रुपहली दुनिया ने उसे सदा के लिए स्ट्रगलर बना के रख दिया था। 

अब उसकी डेली की भागदौड़ और अवसाद की दवाइयों तक उसकी दुनिया सिमट कर रह गई थी। 

आज सुधीर को अपनी चारों तरफ बिल्कुल अंधेरा नजर आ रहा है हताशा और निराशा में उसने साइड में पड़े क्लच वायर को हाथों में उठाया और फांसी का फंदा लगाने लगा, अचानक से जेब में रखा मोबाइल बज उठा वह जेब से निकाल के फ़ोन फेंक देना चाहता था लेकिन स्क्रीन पर माँ का नाम देख फ़ोन उठा लिया।

"कैसा है बेटा?" माँ की ममता भरी आवाज उसके कानों में पड़ी। 

मां की आवाज सुनते ही वह फूट-फूटकर रो पड़ा और बोला, "माँ तुम नहीं जानती मैं कितना परेशान हूं……..”

"बेटा मैं हूँ न तू घर आ……मुझे घर आ के अपनी सब परेशानी बता।" माँ के अमृत भरे शब्द उसके कानों में पड़ते ही उसने अपनी आँखों में भर आये आंसुओं को पोंछ डाला। 

सुधीर कुछ देर अपने हाथ में पकड़े क्लच वायर को देखता रहा और फिर कुछ सोचकर उसने क्लच वायर को फेंक दिया और अपने घर जाने के लिए बैग पैक करने लगा। 

दो घंटे बाद बिना रिजर्वेशन के रेल के कोच में बैठ अपने घर की और चला जा रहा था। 

माँ को सुधीर के किसी मित्र से थोड़ी सी भनक लग गई थी कि वो परेशान है तभी उसकी माँ ने तुरंत फोन कर के अपना सफल विवेक प्रयोग किया।


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