Shelley Khatri

Drama

4.3  

Shelley Khatri

Drama

लौट आओ अचल

लौट आओ अचल

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चटकीली धूप उसे कभी भी पसंद नहीं थी। अभी भी खिड़की से बाहर देखा तो शोख अलहड़ नव यौवना के गर्व में मदहोश दिखी धूप। ऐसे इठला रही थी जैसे कस्बे की कन्या ने अंतराष्ट्रीय सौंदर्य प्रतियोगिता जीत ली हो और अब इठलाठी हुइ देह प्रदर्शन करती फिर रही हो। उसकी चमक ने आंखों में विराग भर दिया। धूप से नजर हटा ली। पर त्राण कहाँ था, कमरे की हर वस्तु जैसे आँखों में चुभने लगी। माथे पर हाथ रख वह वापस कम्प्यूटर पर बैठ गई; आंखें अभी भी धुप की कड़वाहट से भरी थी। थोड़ी देर के बाद जब सब सामान्य हुआ, उसने कंप्यूटर खोला। ब्लाग देखते देखते मेल चेक करने की याद आई। इनबॉक्स में बीस अनरीड मेल थे। आधे मेल्स तो बिना काम के होते हैं सोचते हुए उसने सबपर नजर डाली। एक नाम पर नजरें अटकीं- अचल! सब्जेक्ट में कॉन्ग्रेक्स लिखा था। दिल में चांदनी की आभा चमकी। धड़कनों में जैसे स्प्रिंग लग गए, हर्ट बिट की आवाज कानों में आने लगी। फिर तुरंत ही यादों के दंश कटार से चुभे, कसक उठी और दिल जैसे टूक टूक हुआ। पल भर में ग्रहण सा सबकुछ निष्तेज हो गया। अचल तो बहुत कॉमन नाम है। मेरे अचल को कभी फिक्र ही कहाँ हुई मेरी। साथ थे तब तो कभी जाना नही उसने मुझे। सोचकर जिस तेजी से हुलसी थी उसी तेजी से बुझ गई। धड़कनें लेकिन अब भी सामान्य नहीं हुई थी। उसने कांपते हाथां से मैसेज को क्लिक किया; एक लाइन का मैसेज, “वेणु ! नाम पढ़ा अखबार में तुम्हारा, गौरवविथी पुरस्कार मिलने की बधाई। अचल!

वेणु ने एक बार दो बार तीन नहीं चार बार उस लाइन को पढ़ा। इनबॉक्स से बाहर आ गई, फिर उसे खोल लिया। और कई बार उस लाइन को पढ़ा। अचल अब उसकी आंखों के सामने था। मेल खोलती थी तो सामने अक्षर नहीं अचल का चेहरा दिखाई देता था। बड़ा सा अंडाकार चेहरा, नुकीली नाक जो अचल के क्रोध के प्रतीक थे, अर्ध फूले गाल, लंबी ठोढी, चौड़ा ललाट, उड़े उडे से बाल और हाथी जैसी आंखें जिनका रंग काला भूरा नहीं भूरा पीला था। गुच्छे वाली मूछें जो वेणु को जरा भी पसंद नहीं थी। हां माथे के पीछे वाले हिस्से में दो कट के निशान भी; जिसपर अक्सर उसकी नजर जाया करती और अचल कहता, “तुम भी हद करती हो, देखने को मेरे सिर के पीछे का हिस्सा ही मिला है।”

वेणु कहना चाहती, “तुम्हारे रोम रोम को जानना पहचानना चाहतीहूँ । तुम्हारी परछाई तक को पहचानतीहूँ । न देखा होता तो क्या ये संभव था;” पर कुछ कह नहीं पाती।

 वेणु को लगा, ये शब्द अपने अर्थो के विपरीत काफी कुछ कह रहे हों। मेल, मेल ना होकर अचल का दिल हो। जो इतने दिनों के बाद लौट कर वेणु के पास आया है। सच, क्या चाहता है अचल, क्या सोचता है? क्या उसे मेरी याद आई तो उसने मेल किया? इन दिनों पुरस्कार तो कई मिले, नाम भी कई जगह आया पर कभी अचल की तरफ से तब कोई पहल नहीं हुई तो क्या इसे पहल मान लिया जाए। क्या अचल को मेरी याद आई? लेकिन अगले ही पल वेणु ने सिर झटक दिया। कैसे मान ले वह ऐसा। अचल की निष्ठुरता भी कम थी क्या। कभी उसने मेल या मैसेज किए हो ऐसा तो याद नहीं आता। वह तो रोज उसे गुड नाइट और गुड मॉनिंग के मैसेजेज भेजती थी। पर कभी जान ही नहीं पाई कि उसके मैसेज अचल तक पहुंचते भी थे या नहीं। अचल ने कभी जवाब ही नहीं दिया, न ही मुलाकात होने पर कभी उनका जिक्र ही किया। सामान्य शिष्टाचार जैसे उसकी डिक्शनरी का हिस्सा ही नहीं रहे; वेणु का दुख इस बात के लिए था कि ये सारे नियम सिर्फ उसपर लागू होते थे; शेष अन्य के लिए तो अचल जान लगा दे। किसी को कभी उसके फोन, मैसेजेज, मदद या खुद अचल को याद करने की जरूरत नहीं होती थी। अचल हर समय उपस्थित होता, पर वेणु अपने लिए कभी ऐसे दिन नहीं देख सकी। उसने कई बार विश्लेषण करने की कोशिश की, आखिर अचल उसके ही साथ ऐसा क्यों करता है और हर बार उसकी सोच इसी तर्क पर आकर टिकती, अचल को उससे मुहब्बत नहीं है बस थोड़ी सी जरूरत है और हर उस समय जब उसे जरूरत होती, वेणु उसे अपने पास, अपने साथ, अपनी आत्मा में गुथी सी मिलती। अचल कभी नहीं दिखाता, कभी कोई उम्मीद पूरी नहीं करता। वेणु की जरूरत के समय कभी उपलब्ध नहीं होता; लेकिन जब भी खुद उसे वेणु की जरूरत होती झट पास आ जाता और अपना काम करा लेता। कभी वेणु अपने रिष्ते के बारे में बात करना चाहती तो अचल उपलब्ध नहीं होता, कभी मिल भी जाता तो बात टाल देता। जवाब नहीं ही मिलता वेणु को। वेणु सोचती वह अचल से दूर हो जाए, जहां प्रेम ही नहीं वहां किसी रिश्ते की उम्मीद क्या करें। तभी अचल की आखों में उसे आपार प्रेम दिखता। उनमें बस उसकी छवि होती। चाहत से लबरेज उन आंखों को वेणु नकार नहीं पाती और अचल की डोर से बंधी रहती। वह सोचती अगर कभी वह अचल के लिए दुर्लभ होती, जब वह ढूंढता तो उसे नहीं मिलती, जो चाहता वेणु पूरा नहीं करती, तो अचल उसे भी महत्व देता, उसकी भी खोज करता, उसके साथ भी व्यवहारिकता निभाता, उस के मैसेज या मेल के जवाब देता और कभी कभी उसे याद भी करता। यह शायद वेणु की गलती थी कि उसने अचल को दिल से चाहा और हर समय उसकी आत्मा के साथ गुंथी रही। उसी अचल ने क्या उसे इतने दिन के बाद याद किया है ? क्या अचल को अब भी वह याद है ?

उन दिनों की निष्ठुरता को याद कर वेणु का दिल डोल गया। कैसे मानूं कि अचल क्या सोचता है। इसी अचल के नाम पर तो उसने अपना जीवन होम किया; कितने ऑफर थे उसके पास। लेकिन उसने सबको नकार दिया; मन में अचल को बसाकर किसी को अपनाया भी तो नहीं जा सकता था; सब जानकर भी वह ऐसे बना रहा जैसे ये बहुत मामुली बात हो। याद आए वे दिन जब अचल ने प्रेम निवेदन किया था, उन दिनों उसकी आंखों में अपार रंग होते थे, आंखों का आहलाद साफ साफ अचल के दिल की बात कहता था। आंखें हर वक्त हंसती रहती और कोई उन आंखों की ओर देखकर कह सकता था कि उसमें पुतलियों की जगह वेणु का ही चेहरा होता है। बहाने ढूंढ ढूंढ कर वे वेणु का पीछा किया करती। कई बार उनकी तीव्रता से वेणु दहल जाती , उसकी आवाज कांप जाती। वह नजरें बचाया करती और अचल की नजरें उसे ढूंढ ढूढ कर निषाना बनाती। चेहरे से वह भले ही शांत रहता हो पर आंखें वेणु की आंखों से टकराते ही गहरी हो जाती। नेत्र गोलक की तीव्रता वेणु सहन नहीं कर पाती और झट नजरें झुका लेती या इधर उधर देखने लगती। अचल ने उसे प्रपेज नहीं किया था, पर ऐसे समय में अक्सर वेणु को बिहारी का दोहा याद आता, “कहत नटट रीझत खीजत मिलत खिलत लजियात भरे भौन में करत है नैनन ही सौ बात।” और वह मुस्कुरा उठती; कभी लगता उसे इस तरह मुस्कुराना नहीं चाहिए जाने उसकी इस हरकत का अचल कौन सा अर्थ लेता हो। समय गुजरता गया। अचल का उसके साथ आंख मिचौनी जारी रहा। और एक सुबह वेणु को पता चला अचल दिल्ली चला गया; वहीं सेटल होगा, विवाह भी वहीं करेगा।

वह स्तब्ध खड़ी सोचती रही; काष! तुम हमारी षर्मो हया को ढक पाते, काश की एक बार हमें बाहों में भर पाते। कभी तो कहते कि तुम हमकदम हो हमारे, इस सफर में बांटोगे हमारे गम, मैं जब भी आवाज दूंगी, तुम आ जाओगे। काष! अचल । काष! कि तुमने एक थाती दी होती जिसे गले लगाकर वेणु जीवन गुजार लेती। साथ के इतने पल ही दिए होते जिन्हें याद करते हुए उम्र कट जाती; काष! अचल काष!

यह काश! नहीं आया क्योंकि अचल जा चुका था।

और वेणु की आंखों से सावन झरने लगे। वह लौट आयी वर्तमान में। ओह् इतने साल बाद भी वह सिर्फ अचल को ही क्यों चाहती है, उसे बुरा भी लगा अपनी चाहता का यूं बहना। उसने अचल को रिप्लाई करना चाहा, फिर रूक गई, नहीं फोन क्यों न कर ले। उसने सुधीर को फोन लगाया, अचल के अभिन्न मित्र को, उसके पास जरुर होगा अचल का नंबर।

और सचमुच। सुधीर को जुबानी याद था। कांपते हाथों से उसने मोबाइल पर नंबर डायल किया। हैलो, वेणु तुमने मुझे फोन किया, मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा। मुझे तो लगा था तुम बात नहीं करना चाहोगी मुझसे, अचल एक सांस में बोल गया। वेणु की आवाज गले में अटक गई तो अचल के पास मेरा नंबर है, उसने सेव कर रखा है, उसकी आंख भर गई। कहाँ सोचा था कि कभी ऐसे अचल से बात करेगी । वेणु क्या माफ कर सकोगी? जितनी चाहें शिकायतें करो, पर माफ तो कर दो ना।

वेणु तब भी चुप। रोम रोम पिघल रहा था।

तुम्हें मालुम नहीं वेणु इस दौरान मैं कहाँ कहाँ भटकाहूँ , यूं समझ लो नाली का पानी पिया है मैंने। उसके बाद भी तुम मुझे अपनाने की बात करती हो, अचल का स्वर डूबा सा था। वेणु की आंख भर आई। शिकवा शिकायतें कैसी, बस लौट आओ, लौट आओ अचल, मैं वहीं तो खड़ीहूँ , बदला कहाँ कुछ। हां समय सरक गया है, हम तुम शारीरिक रूप से पहले जैसे नहीं रहे। मेरे और अपने मन से यह अलगाव वाला समय हटा दो, तो हम वहीं एक दूसरे के इंतजार में खड़े मिल जाएंगे ............ वेणु ने फोन रख दिया। उसे अचल के स्वागत की तैयारी जो करनी थी।


    



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