लाखों की लॉटरी
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जैसे ही इस घर को बेचने की हरी झंडी दीपक ने दिखाई, रवि और अवि घर के सामानों की सूची बनाने में लग गये। चल, अचल संपत्ति का पूर्ण विवरण तैयार किया जाने लगा। घर के बँटबारे लायक सामान की सूची बनाई जाने लगी तथा जिन अनुपयोगी सामानों को बेचना था उनकी एक अलग सूची बनाई। इन सूचियों को बनातेे समय यह भी ध्यान रखा गया कि कौन सा सामान कौन कब लाया था तथा कौन सा सामान कब किसको उपहार में मिला था... हालत यह थी कि अंजना दो घंटे से खाना टेबल पर लगाये बार-बार उनसे खाने का आग्रह कर रही थी पर वे ‘ बस पाँच मिनट माँ...।’ कहते हुए रवि और अवि अपनी-अपनी अर्धांगनियों के साथ सामानों की लिस्ट बनाने में व्यस्त थे।
रवि और अवि के लगातार दबाव के कारण अंततः दीपक बंटवारे के लिये जहाँ तैयार हो गये थे वहीं अंजना अपने पुत्र तथा पुत्रधुओं के इस अनोखे व्यवहार को देखकर आश्चर्यचकित थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उनकी परवरिश में कहाँ कमी रह गई ?
बचपन में एक दूसरे पर जान छिड़कने वाले, यहाँ तक कि अपनी-अपनी पत्नियों के दबाव के विरूद्ध एक दूसरे के बिना एक पल भी न रह पाने वालेे भाइयों में ऐसा क्या हो गया कि एकाएक उनके व्यवहार में इतना परिवर्तन आ गया है जो उन्होंने अलग-अलग रहने की ठान ली है और तो और एक दूसरे से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाली उनकी पत्नियाँ आज ऐसे मिलजुलकर बात कर रही हंै मानो वे सगी बहनें हों।
आखिर क्या कमी थी इस घर में...दोनांेे के लिये अलग-अलग कमरे हैं, अलग-अलग गाड़ियाँ हैं...घूमने फिरने की स्वतंत्रतता है। पारिवारिक एकता का प्रतीक बना किचन अवश्य उन्होंने एक ही रखा था...रात्रि का भोजन दीपकजी के आदेशानुसार वे सब एक साथ खाते थे क्योंकि उनका मानना था इससे न केवल परिवार में प्रेम और सौहार्द बढ़ता है वरन् इस समय होती हल्की फुल्की बातों से दिन भर के तनाव से मुक्ति पाकर व्यक्ति असीम शांति का भी अनुभव करता है। पूरे परिवार को एक साथ हँसता खेलता देखकर दीपकजी के साथ वह भी शांति का अनुभव किया करती। उन्हें लगता था जैसेकि उनकी जीवन भर की तपस्या सफल हो गई है।
दीपक का एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार था। वह सैल्फमेड व्यक्ति थे जो कुछ उन्होंने कमाया था, अर्जित किया था वह उनकी अपनी मेहनत का ही फल था। वह रीजनल इंजीनियारिंग कालेज में प्राध्यापक रहे थे। वह न केवल कुशल अध्यापक वरन् अपने विद्यार्धियों के चहेते भी थे जिसके कारण उनके घर विद्यार्धियों की कतार लगी रहती थी। कभी वह उनके पास अपने विषय से संबंधित समस्या लेकर आते थे तो कभी अपनी नितांत निजी समस्याओं पर उनकी राय माँगते। दीपक बिना झुंझलाए उनकी हर समस्या के समाधान हेतु सदा तत्पर रहते थे। घर में दिन भर लगी भीड़ को देखकर कभी-कभी तो अंजना झुँझला जाती थी। उनके इस उदारवादी रवैये को देखते हुए एक बार उसने दीपक सेे कहा था,‘ लोग तो पैसे लेकर भी शिक्षा का दान कुछ विशेष घंटों में ही करते हैं क्योंकि वे धन उपार्जन के साथ अपनी स्वतंत्रता नहीं खोना चाहते और एक आप हैं जो निःस्वार्थ भाव से जब भी कोई समस्या लेकर आता है तुरंत उसके समाधान में जुट जाते हैं। आखिर ऐसा क्यों ?’
‘ तुम नहीं समझ पाओगी अंजना, यह मेरा अतीत है...जब मैं इन छात्रों जैसा था मेरेे पास ढेरों समस्यायें थीं , अनगिनत प्रश्न थे किन्तु उनके समाधान हेतु अपने आस पास किसी को नहीं पाता था। कभी किसी शिक्षक से पूछने का प्रयत्न करता तो अभी समय नहीं है या फिर कल आना के तीर मुझे लहूलुहान कर देते थे...शायद वे अपने इस कीमती समय को बरवाद करने के एवज में मुझसे कुछ उम्मीद रखते होंगे !! पर उस समय मेरे पास इतने साधन नहीं थे कि मैं उन्हें कुछ दे पाता। अब मैं अपने जैसे ही इन छात्रों की कुछ मदद करना चाहता हँू...।’ उन्होंने अतीत में झाँकते हुए उत्तर दिया था।
उसके बाद से अंजना ने उन्हें कभी नहीं टोका था। वह अपने छोटे से घर परिवार में सुखी थी...विवाह के दो वर्ष पश्चात् ही उसके आँचल में उसके पहले प्यार रवि ने आकर खुशियों के फूल छितरा दिये थे...। कुछ वर्षो पश्चात् उसे महसूस हुआ कि अब रवि को किसी के साथ की आवश्यकता है लेकिन इस बार दीपक ने यह कहकर कि मुझे मेरा प्रतिरूप नहीं वरन् तुम्हारा प्रतिरूप चाहिए, उसे पेशोपेश में डाल दिया था। अपनी इच्छा की पूर्ति हेतु इस बार उन्होंने न जाने कहाँ कहाँ से चुन-चुनकर हँसती खेलती लड़कियों के चित्र लाकर बैडरूम में लगा दिये थे...उनका मानना था जैसा हम सोचते हैं या करते हैं वैसा ही हमें प्राप्त होता है।
जब डाक्टर ने उसे पुत्र होने की सूचना दी तो वह यह सोचकर मायूस हो गई थी कि दीपक ने उससे एक ही चीज तो माँगी थी और वह उसे भी पूरा नहीं कर पाई...। उसकी ऐसी हालत देखकर, डिलीवरी के वक्त आई उसकी बहन रंजना ने उसे दिलासा देते हुए कहा था, ‘ मायूस क्यों हो रही हो अंजना, पुत्र या पुत्री होना क्या तेरे हाथ में था...?’
उसके चेहरे पर खुशी को कोई लकीर न पाकर मुस्कराते हुए रंजना ने पुनः कहा था, ‘ तेरी तो चाँदी ही चाँदी है मेरी बहना...बैठे बिठाये ही लाखों की लाटरी निकल आई है। न कोई चिंता और न ही परेशानी, राजरानी बनी राज करती रहना वरना आज के युग में पुत्री का विवाह करने में ही अच्छे अच्छों का दीवाला निकल जाता है।’
‘ दीदी, पुत्र और पुत्री दोनों से ही परिवार पूर्ण होता है वरना जीवन में कहीं न कहीं अधूरापन महसूस होता ही है। तुम तो जानती ही हो, पुत्री की चाह मुझसे भी ज्यादा दीपक को थी लेकिन अब जोे भी मिला है उसी में संतोष करना ही होगा।’ उसने पनियाली आँखों से आँखों से कहा था।
‘ तू सच कह रही है जो भी मिले उसमें तुझे ही नहीं हर इंसान को संतोष करना पड़ता है...अब मुझे ही देख मेरी दो बेटियाँ विभा और शिखा हैं जिन्होंने मेरे मातृत्व को पूर्ण ही नहीं किया मुझे हर तरह से सुख और संतोष दिया है। आज अगर तेरे पास आ भी पाई हँू तो सिर्फ उनके ही कारण, क्योंकि मुझे पता है कि वे मेरे पीछे मेरे घर को अच्छी तरह संभाल लेंगी। इस सबके बावजूद तेरे जैसे ही ख्याल मेरे मन में भी आकर मुझे परेशान करते हैं, विशेषतया तब जब बात-बात पर सासूमाँ ताने देती हुई यह कहती हैं कि जो औरत वंश आगे न बढ़ा पाये वह निपूती ही कहलायेगी...। अगर तेरे जीजाजी का साथ मुझे न मिलता तब शायद वह मेरा जीना भी दूभर कर देतीं। ’ कहते हुये उनकी आँखें छलछला आई थीं।
‘ दीदी प्लीज...सिर्फ अच्छी बातों को याद रखो...जीना आसान हो जायेगा।’ अंजना ने उठकर उनके आँसू पोंछते हुये कहा।
कोशिश करती हूँ अंजना पर घाव हैं कि टीस दे ही जाते हैं...। अब छोड़ भी ये बातें...बच्चे को फीड करा दे...बच्चे के लिये पहले चौबीस घंटे का दूध उसके लिये रामबाण होता है।’
दीदी सहज हो गई थीं पर उसे लग रहा था कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन क्यों होती है ? विशेषतया वह स्त्री जो अपने पुत्र के लिये खुशी-खुशी बहू लाती है पर वह उसमें अच्छाई देखने की बजाय बुराई ही क्यों ढँूढने लगती है ? उसी समय उसने निर्णय लिया था कि वह अपनी बहुओं को बेटियों जैसा ही प्यार देगी आखिर प्यार देकर ही प्यार पाया जा सकता है।
समय पंख लगाकर उड़ता रहा था...वह उन भाग्यशालियों में से थी जिसको बिना माँगे ही सब कुछ मिलता गया था। जहाँ उसकी सब सहेलियाँ अपने बच्चों को लेकर चिंतित रहती थी, वहीं वह निश्चिन्त थी क्योंकि उसके दोनों पुत्र उनकी आशाओं से कहीं अधिक अच्छा कर रहे थे।
रवि और अवि पढ़ाई में तो तेज थे ही, खेल कूद तथा अन्य गतिविधियों में भी अपनी छाप छोड़े बिना नहीं रहते थे। रवि जहाँ अपने स्कूल की क्रिकेट टीम का कैप्टन था वहीं अवि स्कूल की क्विज टीम में था। यही कारण था कि स्कूल के वार्षिक समारोह में उनके पास उपहारों की झडी लग जाती थी। उनकी सफलता के झंडे सिर्फ स्कूल तक सीमित नहीं रहे वरन् कालेज में पहँुचकर भी उन्होंने न केवल उनका वरन् कालेज का नाम भी रोशन किया।
उनके हर्ष की सीमा न रही जब रवि प्रथम बार में ही मेडिकल की प्रतियोगी परीक्षा में सफल हो गया। उसके दो वर्ष बाद ही अवि का इंजीनियरिंग में चयन जीवन भर की खुशियाँ दे गया था। उस समय उनको ऐसा महसूस हुआ था जैसे उनका जीवन सफल हो गया है। एक माता-पिता के लिये इससे ज्यादा खुशी क्या हो सकती है कि उनके बच्चों ने अपनी-अपनी मंजिल पा ली है।
पढ़ाई के लिये बच्चों को जुदा करते हुए वह बेहद उदास हो गई थी...लेकिन बच्चों के भविष्य के लिये जुदाई तो सहनी ही होगी, सोचकर सब्र किया। तब उसने और दीपक ने एक सपना बुना था, इस समय तो भले ही बच्चे हमसे दूर हो गये हैं लेकिन पढ़ाई के पश्चात् हरसंभव कोशिश यही रहेगी कि वे सब साथ-साथ रहें...इस महानगर में उन्हें अपनी मनपसंद कोई नौकरी मिल ही जायेगी।
अंजना को पता था कि आज की युवा पीढ़ी किसी का अंकुश नहीं चाहती है...वह स्वतंत्र रहना तथा अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीना चाहती है। शायद इसमें गलत भी कुछ नहीं है किंतु यदि उन्हें उनके मूल्यों के मुताबिक जीने दिया जाए तो कोई कारण नहीं है कि सब साथ-साथ न रह पायें। इससे आर्थिक सुरक्षा के साथ-साथ भावनात्मवक सुरक्षा तो मिलेगी ही, आपस में निहित प्रेम और विश्वास का बंधन और भी मजबूत होता जायेगा। परिवार बढ़ने के पश्चात् बच्चों को क्रेच या आया के भरोसे छोड़ने की बजाय दादा-दादी के संरक्षण में रखकर वे ज्यादा सुख, शांति और निश्चिन्तता का अनुभव कर पायंेगे। बच्चों से उसे बेहद प्रेम था...बच्चों के साथ उसे खुशी का एहसास होता था क्योंकि उसका मानना था कि बच्चों की मासूम हँसी में ही इंसान अपना दर्द और गम भूल सकता है।
उन्होंने लोन लेकर घर बनवाया था अपनी इस योजना को क्रियान्वित करने के लिये उन्होंने एक बार फिर अपने मकान में परिवर्तन करवाया जिससे कि एक साथ रहने पर भी वे अपनी-अपनी स्वतंत्रता...गोपनीयता कायम रख सकें।
रवि और अवि का भी उनको मौन समर्थन प्राप्त था। समय रहते रवि का विवाह भी हो गया। बहू दीप्ति डाक्टर होने के साथ-साथ अत्यंत ही सुलझे विचारों की स्त्री थी। उसने घर बाहर में अच्छा सामंजस्य बिठा लिया था। घर में प्रवेश करते ही घर परिवार में वह इस तरह रम गई कि वह उन्हें बहू से ज्यादा बेटी ही नजर आती थी। रवि का ख्याल रखने के साथ-साथ वह घर के अन्य सदस्यों का भी भरपूर ख्याल रखने की चेष्टा करती थी।
विवाह के कुछ दिनों पश्चात् दीपक को हार्ट अटैक आया तब उसने उनकी सेवा में रात दिन एक कर दिया था। सुबह शाम उनका ब्लड प्रेशर देखना तथा समय पर दवा देने की जिम्मेदारी उसने अपने ऊपर ले ली थी। उसकी सेवा भावना से अभिभूत होकर दीपक ने कहा था,‘ बेटी, मेरी वजह से तू क्यों परेशान रहती है...अपनी डियूटी ज्वाइन कर ले, तेरी माँ है ही मेरी देखभाल के लिये।’
‘ पिताजी, एक ओर आप मुझे बेटी कहते हैं तथा दूसरी ओर ऐसा कहकर मुझे शर्मिन्दा करने के साथ-साथ दुखी भी कर रहे हैं, इस समय मेरे लिये आपकी सेवा से बढ़कर और कोई काम नहीं है।’ उसने नम्र स्वर में कहा था।
‘ सचमुच तूने हमारी पुत्री की चाह पूरी कर दी।’ उसकी सेवा तथा बातों से अभिभूत से दीपक कह उठे थे।
रवि की तरह अवि के लिये भी उन्होंने काफी छान बीन कर रीना को पसंद किया...दहेज की माँग न उन्होंने रवि के समय की थी और न ही अवि के समय की। उनकी चाहत सिर्फ संस्कारवान, सुशील कन्या की थी जो उनके घर संसार में रम सके। रीना उनकी आशाओं के अनुरूप ही लग
ी थी अतः खूब धूमधाम से उन्होंने अवि और रीना का विवाह कर दिया।
अवि के विवाह के साथ ही बिखराव की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी। रीना बहुत ही शक्की और जिद्दी स्वभाव की लड़की थी। घर के सदस्य यदि आपस में बैठकर बातें कर रहे हों तब न तो वह स्वयं सबके साथ बैठना चाहती थी और न ही वह चाहती थी कि अवि उनके साथ बैठे। अगर कभी अवि और दीप्ति बात करते दिख जायें तब वह जल भुन कर अपना आक्रोश अवि पर निकालने लगती थी। छोटी-छोटी बात पर रूठकर मायके जाना तो उसके स्वभाव में शामिल हो गया था। उसके विचित्र स्वभाव ने उनके परिवार की सुख शांति भंग कर ही दी थी। सदा चहकने वाला अवि भी अपने अंतःकवच में कैद होने लगा था।
रीना को न जाने ऐसा क्यों महसूस होता था कि दीप्ति को उसकी अपेक्षा अधिक सम्मान मिलता है। उसने सैद्धान्तिक रूप से दोनों बहुओं को घर के कामकाज से अलग रखने का फैसला कर रखा था क्योंकि उसे लगता था स्त्रियों में मनमुटाव घर के कामों के ऊपर ही होते हैं अतः काम के कारण कोई झगड़ा न हो इसलिये उसने दीप्ति के समय ही खाना बनाने के लिये महाराजिन रख ली थी। घर के अन्य कार्यो के लिये नौकरानी थी ही। यह बात अलग है कि अगर किसी को कुछ स्पेशल बनाना हो तो वह मना नहीं करती थी...आखिर मना भी क्यों करे जितना यह घर उसका है उतना ही उन दोनों का भी तो है।
महाराजिन तथा नौकरानी को निर्देश देने का काम अंजना स्वयं ही करती रही थी। रोजमर्रा के सामान्य काम के अतिरिक्त यदि अन्य कोई काम होता या कोई स्पेशल डिश बनानी होती तो दीप्ति या रीना का इंतजार करने की बजाय स्वयं बना लिया थी। दीप्ति तब भी कभी-कभी उसकी सहायता करवाने किचन में आ जाया करती थी...जबकि रीना किचन में झाँकती भी नहीं थी। उसे अपनी बेड टी से लेकर खाना नाश्ता तक अपने कमरे में ही चाहिए होता था। रात्रि का भोजन भी वह अकेले अपने कमरे में ही करना चाहती थी। ऐसा करके वह सदा यही जताने का प्रयत्न करती कि उसे किसी की परवाह नहीं है, वह जो चाहे कर सकती है, जहाँ चाहे जा सकती है...।
रीना का व्यवहार देखकर अंजना को लगता था कि आखिर उससे कहाँ कमी रह गई जो वह रीना को अपना नहीं बना पाई। अगर वह एक कदम आगे बढ़ती तो वह दो कदम पीछे हटने का दिखावा करती...। ‘ मुझे किसी की परवाह नहीं है ’ का मूलमंत्र उसने गांठ में बांध लिया था। उसके सारे प्रयत्नों के बावजूद वह हमेशा कटी-कटी रहती।
उसके आचरण से अंजना को ऐसा लगने लगा था कि किसी ने ठीक ही कहा है कि खुशियाँ ज्यादा दिन नहीं टिकती हैं। इंसान को स्वर्ग नर्क इसी जन्म में भोगना पड़ता है।उसे अपनी मित्र रूपा के शब्द बार-बार याद आते,‘ अंजना मुझे तो लगता है जितनी परेशानी लड़की के लिये लड़का देखने में होती है उससे कम लड़कों के लिये लड़की देखने में नहीं होती है। लड़की को हमने संस्कार दिये हैं अतः उसके बारे में हमें पता है कि वह स्वयं को दूसरे परिवार समायोजित कर पायेगी या नहीं अगर नहीं कर पाई तो हम उसे गाइड कर सकते हैं जबकि जब हम बेटे के लिये बहू लेकर आते हैं तब हमें पता नहीं होता कि वह कैसे परिवेश में पली बढ़ी है, उसके संस्कार कैसे हैं ? अब दो चार घंटे की मुलाकात में तो कोई किसी के बारे में जान नहीं पाता और न ही समझ पाता है।’
सच एक लड़की जहाँ पूरे घर को एक सूत्र में बाँध सकती है वहीं दूसरी ओर वह एक अच्छे भले घर को तहस-नहस भी सकती है। किसी के विचारों पर अंकुश लगाना या परिवर्तन करवा पाना अत्यंत ही कठिन कार्य है।’
शायद यही कारण था कि न चाहते हुए भी सब उसके निरंकुश व्यवहार को सामान्य रूप से लेने की चेष्टा करने लगे जिससे कि घर की सुख शांति बची रह सके। अखिर दीपक ने उसकी समस्या का हल खोजने की कोशिश की। उसे नौकरी करने के लिये प्रोत्साहित ही नहीं किया वरन् अपने प्रयत्नों से उसकी योग्यतानुसार एक अच्छी कंपनी में पब्लिक रिलेशन पद पर नियुक्ति भी दिलवा दी। उनके प्रोत्साहन और पहल पर रीना ने भी एक आफिस में नौकरी कर ली। अब उसका ज्यादातर समय बाहर गुजरने लगा। लगा कि अब स्थिति में सुधार आयेगा, काम में व्यस्त होने के कारण अब शायद वह स्वयं भी घर के छोटे-छोटे झगड़ो से उबर सके तथा अन्य भी सुख शांति से रह सकें।
स्थिति थोड़ी संभलती लग रही थी...एक दिन वह और दीपक बाहर लाॅन में सुबह की हल्की धूप का सेवन कर रहे थे कि अवि और रीना उनके पास आकर बैठ गये। अप्रत्याशित स्थिति देखकर दीपक ने पूछा ,‘ क्या बात है बेटा, क्या तुम दोनों कुछ कहना चाहते हो ?’
‘ पापा, हम चाहते हैं कि इस मकान को बेचकर तीन बेडरूम वाले दो फ्लैट खरीद लें। इन्होंने एक प्रार्पटी ब्रोकर से बात भी कर ली है। वह इस मकान का वह तीन करोड़ देने की बात कर रहा है। इतने में दो फ्लैट आराम से पाॅश लोकेलटी में मिल जायेंगे, अगर कुछ लगाना पड़ा तो बैंक से लोन ले लेंगे। कोशिश यही रहेगी कि दोनों फ्लैट एक ही एपार्टटमेंट में मिल जायें। आपका जिसके पास रहने का मन हो रह लीजिया करियेगा।’ रीना ने दीपक से प्रोत्साहन पाकर अपनी बात रखी।
‘ लेकिन बेटी, इस बंगले के रहते फ्लैट खरीदने की क्यों सोच रहे हो ? ’ अचकचा कर दीपक ने पूछा।
‘ पापा, आजकल बंगले की देखभाल करना बड़ा कठिन काम है। साथ ही सीक्योरिटी भी ज्यादा नहीं होती, आजकल चोरियाँ भी कितनी हो रही हैं, फ्लैट में इन सबका डर भी नहीं रहता। इसके अतिरिक्त बड़े होते बच्चों को भी एक अलग कमरा चाहिए होगा। अभी भी कभी कोई गेस्ट आ जाता है तब भी समस्या हो ही जाती है।’ रीना ने अपना पक्ष रखते हुए स्वभाव के विपरीत नम्र स्वर में कहा।
‘ रवि से भी बात कर लो, तुम दोनों को जैसा ठीक लगे वैसा ही करो।’ कहते हुये दीपक ने बात टालनी चाही।
‘ यह हमारा अपना मकान है, कितनी मुश्किल से हमने इसे बनवाया था। आप इतनी आसानी से कैसे रीना का प्रस्ताव मान गये ? ’ उनके जाते ही दीपक से अंजना ने पूछा था।
‘ अंजना, हम अपनी जिंदगी जी चुके हैं, अब बच्चों को अपनी जिंदगी जीने दो...।’ कहकर दीपक निस्पृह भाव से सदा की तरह पेपर पढ़ने लगे।
उनकी यही आदत उसे सदा से बुरी लगती रही थी। दो टूक फैसले कर देना तथा जब किसी बात पर ध्यान न देना हो तो पेपर पढने बैठ जाना। वह किसी से कुछ कह तो नहीं पाई लेकिन मन रो उठा था। उस समय उसने यह सोचकर मन को सांत्वना दी कि शायद यह रीना के दिमाग का फितूर है कुछ दिनों में शांत हो जायेगा या फिर शायद रवि और दीप्ति ही उसके इस प्रस्ताव को न मानें लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, वे भी खुशी-खुशी इस प्रस्ताव को मान गये जैसे वे इस प्रस्ताव के आने का इंतजार ही कर रहे थे।
अचानक दीपक का कर्कश स्वर सुनकर वह चौंक गई। रवि और अवि को किसी बात पर बहस करते देखकर वह कह रहे थे,‘ वाह बेटा, वाह...आज तुम इस बात पर बहस कर रहे हो कि इस टी.वी. में दोनों का पैसा लगा है अतः इसको कौन रखे ? कल को शायद तुम दोनों हमसेे पूछे बिना यह फैसला भी कर लो कि छह महीने हम रवि के पास रहेंगे तथा छह महीने अवि के पास या मैं रवि के पास रहूँ तथा तुम्हारी माँ अवि के पास रहे...और शायद हम दोनों में से किसी एक के न रहने पर खाना देने की जिम्मेदारी एक लेगा तथा बीमारी में दवा देने की दूसरा। अब तक तुम दोनों अपनी मर्जी करते रहे लेकिन अब मेरी बात भी सुन लो...मेरे जीते जी इस घर का बंटवारा नहीं होगा और न ही यह बिकेगा...जिसे यहाँ रहना हो वह रहे जिसे जाना हो वह जाए।
गलती मेरी थी...मैं सदा तुम्हारी जायज और नाजायज माँगों को यह सोचकर पूरी करता रहा कि तुम लोग खुश रहो...हमने तो अपनी जिंदगी जी ली, हम क्यों बच्चों को उनकी खुशी से मरहूम रखें...? लेकिन मेरा यह सोचना ही मेरी गलती थी...तुम दोनों न केवल अलग हो रहे हो वरन् इस यत्न से सींचे घर का बंटबारा कर इसमें रचे बसे प्यार, विश्वास, त्याग और बलिदान की भावना कोे भी तोड़ने का प्रयास कर रहे हो वरना यह नहीं होता कि यह मैंने खरीदा है या यह मुझे उपहार में मिला है, इसलिये यह मेरा है। जिसमें दोनों का पैसा लगा है, उसे यदि दूसरा रख रहा है तो रखने वाले को उसके पैसे लौटानेे होंगे...लेकिन उन सामानों का क्या होगा जो मैंने और तुम्हारी माँ ने खरीदे थे ? सामानों को तो तुम बेच सकतेे हो लेकिन उन यादों का क्या होगा जो इस घर में रची बसी हैं। बेटा, जब रिश्तों में स्वार्थ आ जाता तब रिश्ते टूटने लगते हैं...और मैं इन रिश्तों को टूटने नहीं देना चाहता क्योंकि तोड़ना बहुत आसान है पर जोड़ना बहुत ही कठिन है...।’ कहते हुये उनकी आवाज कंपकंपा उठी थी।
कुछ रूक कर स्वयं को संयमित कर उन्होंने पुनः कहना प्रारंभ किया, ‘ तुम अपने अलग-अलग घर बनाना चाहते हो, अलग रहना चाहते हो तो शौक से रहो, हमें कोई आपत्ति नहीं है लेकिन दिलों में दरार मत पैदा करो। टूटे घर तो एक बार जुड़ भी सकतेे हैं लेकिन दिलों में आई दरार को पाटना बहुत ही मुश्किल है। यह भी मत भूलो...केवल चारदीवारियों से या उसमें उपस्थित मँहगे-मँहगे सामानों से ही घर नहीं बनता है...घर बनता है उसमें रहने वाले लोगों से...। प्रेम और विश्वास के धागों में बंधे लोग ही ईट पत्थरों से बनी चारदीवारी को घर बनाते हैं। मैं सोचता था कि मेरे घर की नींव जिसे हमने प्यार और विश्वास से सींचा था, अत्यंत ही सुदृढ़ है। उसे चक्रवाती तूफान भी नहीं हिला पायेगा लेकिन यह बड़ी ही कमजोर निकली तभी तो जरा सी आँधी पानी से ही हिल उठी है। इस घर से हमारी यादें जुड़ी हैं, स्वप्न जुड़े हैं...जब तक हम हैं तब तक हमें यहीं रहने दो...।’ कहते हुए वह भावुक हो उठे थे, गला रूंध गया था...वे अचानक उठे और अपने कमरे की ओर चल दिये।
सदा शांत रहने वाले दीपक की मर्मभेदी बातें सुनकर अंजना निःशब्द रोने लगी थी...दीपक को उठता देख वह भी उठकर उनके पीछे चलने के लिये उद्यत हुई...मन चीख-चीखकर कह रहा था...दीदी, तुम्हीं ने कहा था कि तुम्हारी लाखों की लाटरी निकल आई है। क्या यही होता है लाखों की लाटरी का सुख...?
दीदी कुछ दिन पूर्व ही अपनी सांसारिक जिम्मेदारियों को पूर्ण कर चारोंधाम की यात्रा पर गई थीं। उन्होंने इस यात्रा का प्रस्ताव उनके सामने भी रखा था किन्तु वही मोह के जाल से स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रही थी। दीपक कहीं घूमने का प्रस्ताव भी रखते तो वह मनाकर दिया करती थी...। उसे लगता था जब जाना है तो सब मिलकर चलें पर ऐसा कभी हो नहीं पाया...। यह अवश्य है जब-जब रवि और अवि को अवसर मिलता वे चले जाते थे पर तब भी उसे उनका जाना कभी गलत नहीं लगा...। वह उनकी बुराईयों में भी अच्छाई खोज लिया करती थी...शायद आज उसे अपनी इसी अच्छाई का अंजाम भोगना पड़ रहा है।
माँ, प्लीज हमें क्षमा कर दीजिए, हम भटक गये थे, हम कहीं नहीं जायेंगे। हम दोनों आपके साथ इसी घर में रहेंगे। पापा से भी हम अभी जाकर क्षमा माँग लेते हैं। ’ पापा की प्रतिक्रया देखकर रवि और दीप्ति ने उसके पास आकर क्षमायाचना के स्वर में कहा।
अभी वह अपना हाथ उनके सिर पर रख भी नहीं पाई थी कि रवि और दीप्ति को उसके सामने झुकते देखकर रीना क्रोध से काँपते हुए अंदर चली गई तथा अवि भी उसका अनुसरण करते हुए अंदर चला गया। कुछ देर के लिये तो तूफान थम गया था किंतु बारिश होने की संभावना अभी भी बाकी थी, बारिश हल्की होगी या अपनी त्रीवता से विनाश की ओर ले जायेगी इसका किसी को भी पता नहीं था पर उसने भी सोच लिया था कि वह हारेगी नहीं, न ही झुकेगी...वह हर तूफान का सामना पूरी दिलेरी से करेगी।